कामज दोष
महर्षि मनु ने काम से उत्पन्न हुए दस दोषों के बारे में हमें बताया है कि :-
मृगयाक्षो दिवास्वप्नः परीवादः स्त्रियो मदः।
तौर्य्यत्रिकं वृथाट्या च कामजो दशको गणः।। ( सत्यार्थ प्रकाश छठा समुल्लास)
इसका हिंदी अर्थ करते हुए महर्षि हमें बताते हैं कि काम से उत्पन्न हुए व्यसनों के चलते व्यक्ति के भीतर "मृगया खेलना अर्थात चौपड़ खेलना, जुआ खेलनादि, दिन में सोना ,काम कथा व दूसरे की निंदा किया करना, स्त्रियों का अति संग, मादक द्रव्य अर्थात मद्य, अफीम, भांग ,गांजा ,चरस आदि का सेवन, गाना बजाना, नाचना या नाच कराना, सुनना और देखना वृथा इधर-उधर घूमते रहना यह दस कामोत्पन्न व्यसन हैं।"
राजा को अपनी प्रजा के लिए आदर्श होना चाहिए । यदि राजा के भीतर ही इस प्रकार के व्यसन होंगे तो वह अपनी प्रजा के लिए कभी भी आदर्श नहीं हो सकता। इसके साथ ही यह बात भी विचारणीय है कि जब व्यक्ति इस प्रकार के व्यसनों में फंस जाता है तो समाज की व्यवस्था और मर्यादा सब भंग हो जाती है। राजा और उसके शासन कार्य में लगे हुए लोग समाज के लिए आदर्श होने चाहिए। उनका चरित्र उज्ज्वल होना चाहिए और उनकी कार्यशैली बड़ी पारदर्शी होनी चाहिए। चरित्र की उज्जवलता और कार्यशैली की पारदर्शिता जितेंद्रियता से ही आनी संभव है। इसके अतिरिक्त हमें यह बात भी ध्यान रखनी चाहिए कि राजा का अनुकरण प्रजा करती है। “यथा राजा तथा प्रजा” की जो उक्ति हमारे समाज में प्रचलित है, वह बहुत ही सार्थक है। इस उक्ति के संदर्भ में हमें यह समझना चाहिए कि राजा यदि पवित्र आचरण का है तो देश के लोग भी पवित्र आचरण वाले होंगे।
क्रोधज दोष
पैशुन्यं साहसं द्रोह ईर्ष्यासूयार्थदूषणम्।
वाग्दण्डजं च पारुष्यं क्रोधजोऽपि गणोऽष्टकः।।
क्रोध से उत्पन्न व्यसनों को गिनाते हुए स्वामी दयानंद जी इस श्लोक की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि – “चुगली करना, साहस अर्थात् बिना विचारे बलात्कार से किसी की स्त्री से बुरा काम करना, द्रोह रखना, ईर्ष्या दूसरे की बड़ाई या उन्नति देखकर जला करना, ‘असूया’ दोषों में गुण, गुणों में दोषारोपण करना ,अर्थदूषण अर्थात अधर्म युक्त बुरे कामों से धन आदि का व्यय करना , वाग्दंड कठोर वचन बोलना और बिना अपराध कड़ा वचन या विशेष दंड देना यह आठ दुर्गुण क्रोध से उत्पन्न होते हैं।”
क्रोध अपने आप में ही एक भारी दोष है। जब यह आता है तो कई प्रकार के अन्य दोषों को साथ लेकर आता है। यही कारण है कि हमारे ऋषि-मुनियों ने क्रोध को जीतने के लिए जनसाधारण को प्रेरित किया है। क्रोध के क्षणिक आवेश में आकर लोगों ने अपने घर का ही नहीं, संसार का भी अहित किया है। अंत में क्रोध की ज्वाला में ही भस्म होकर वह स्वयं भी संसार से चले गए।
वास्तव में हमने विदेशी तुर्कों ,मुगलों, अंग्रेजों के इतिहास को पढ़कर और उनके काल में राज्य सिंहासन पर बैठने वाले नीच, पापी और अधर्मी लोगों की कार्यशैली को देखकर ही यह अनुमान लगा लिया कि राजा ऐसे ही होते होंगे। जिनके भीतर वे सारे दुर्गुणों मिलते हैं जो हमारे यहां पर राजा के लिए ही नहीं साधारण व्यक्ति के लिए भी निषिद्ध किए गए हैं। वैसे भी दुर्गुण तो दुर्गुण है ,उसके लिए आप यह नहीं कह सकते कि यह किसी बड़े व्यक्ति में हो सकता है छोटे में नहीं हो सकता या छोटे में हो सकता है और बड़े में नहीं हो सकता ।
हमने तुर्क, मुगल और अंग्रेजों जैसे जनापेक्षाओं के विरुद्ध कार्य करने वाले राजाओं के आचरण को देखकर ही राजा के विषय में जिस प्रकार यह विपरीत धारणा बनाई कि राजा जनता पर तानाशाही ढंग से शासन करते हैं ,उसका एक कारण यह भी रहा कि हमको हमारे ही अपने महर्षि मनु जैसे अन्य विद्वानों के द्वारा प्राचीन भारत के द्वारा राजधर्म पर लिखे ग्रंथों को पढ़ने से रोक दिया गया। इस आदर्श राजधर्म के स्थान पर हमें पश्चिम के तथाकथित राजनीतिशास्त्रियों के ग्रंथों को पढ़ाया गया जो स्वयं कामज और क्रोधज दुर्गुणों में फंसे हुए थे । पश्चिमी जगत के इन राजनीतिक विद्वानों का अध्यात्म की ऊंची साधना से दूर-दूर का भी संबंध नहीं रहा। जबकि काम और क्रोध जैसे महाभयंकर शत्रु को नियंत्रण में लेने के लिए अध्यात्म साधना बहुत आवश्यक है। इसके विपरीत हमारे राजा लोग वास्तव में पंडित हुआ करते थे । जिनका अध्यात्म साधना से गहरा संबंध होता था। यदि हमारे देश में आर्य राजाओं की कार्यशैली और उनके लिए नियुक्त किए गए राजधर्म को पढ़ाने की व्यवस्था की जाती तो वास्तव में ही आज भारत में लोकतंत्र सुव्यवस्थित ढंग से अपना कार्य कर रहा होता।
दयानन्द के सपनों का भारत
यदि महर्षि दयानंद के सपनों का भारत बनता तो किसी सभासद, सांसद या किसी विधायक में मद्यपान करने, मांस आदि खाने या जुआ खेलने का एक भी दोष नहीं मिलता। क्योंकि तब राजकीय नियम इस प्रकार का होता कि जो व्यक्ति इन दुर्गुणों में फंसा हुआ होगा वह किसी गांव पंचायत, नगरपालिका या किसी राज्य के विधानमंडल का या देश की संसद का सदस्य नहीं हो सकता। आचरणशील सभ्य पुरुषों को स्वामी दयानंद जी की राजकीय व्यवस्था में आगे बढ़ने का अवसर दिया जाता। उनका सम्मान होता और उन्हीं के माध्यम से संसार में व्यवस्था बनाई जाती। उनके बौद्धिक विवेक और आध्यात्मिक चेतना का राष्ट्र के लिए सदुपयोग किया जाता।
यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि आज के जनप्रतिनिधियों के लिए इस प्रकार की कोई व्यवस्था संवैधानिक ढंग से नहीं रखी गई है कि वह अमुक अमुक दोषों के होने के कारण देश की जनता का प्रतिनिधि नहीं हो सकता। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मांसाहारी लोगों को भी जनप्रतिनिधि बनाने की पूरी छूट दे दी गई है। जब मांसाहारी लोग हमारे जनप्रतिनिधि होंगे तो वह प्राणी मात्र के प्रति कैसा दृष्टिकोण रखते होंगे ? यह बात सहज ही समझ में आ सकती है।
चरित्र पूजा के स्थान पर वोट पूजा को स्थान दिया गया है। हमने यह भी नहीं सोचा समझा कि भारत का पतन उस समय से आरंभ हुआ जब राजाओं के अंदर कामज और क्रोधज दुर्गुण आने आरंभ हुए। तुर्क, मुगल और अंग्रेजों के समय में भारत के राजाओं के भीतर ये दुर्गुण और भी बढ़ गये थे। आगे स्वामी दयानंद कहते हैं कि –
व्यसनस्य च मृत्योश्च व्यसनं कष्टमुच्यते।
व्यसन्यधोऽधो व्रजति स्वर्यात्यव्यसनी मृतः।।११।। मनु०।।
आगे स्वामी दयानंद कहते हैं कि – “इसमें यह निश्चय है कि दुष्ट व्यसन में फंसने से मर जाना अच्छा है। क्योंकि जो दुष्टाचारी पुरुष है वह अधिक जिएगा तो अधिक पाप करके नीच नीच गति अर्थात अधिक अधिक दुख को प्राप्त होता जाएगा। और जो किसी व्यसन में नहीं फंसा वह मर भी जाएगा तो भी सुख को प्राप्त होता जाएगा। इसलिए विशेष राजा और सब मनुष्यों को उचित है कि कभी मृगया और मद्यपान आदि दुष्ट कामों में न फंसे और दुष्ट व्यसनों से पृथक होकर धर्म युक्त गुण ,कर्म, स्वभाव से सदा वर्त्त के अच्छे-अच्छे काम किया करें।”
स्वामी जी महाराज ने महर्षि मनु की इस व्यवस्था को यहां उद्धृत करके भारत के स्वर्णिम इतिहास के स्वर्णिम काल को स्थापित करने का प्रयास किया है और हमें यह बताया है कि इतिहास चरित्रवान लोगों के लिए स्थान आरक्षित करता है। जो लोग पापी और हत्यारे हैं या गिरे हुए आचरण के हैं उनके लिए इतिहास में कहीं कोई स्थान नहीं होता। अतः महर्षि दयानंद जी के दृष्टिकोण से हमें यह बात समझ लेनी चाहिए कि इतिहास सात्विक, मर्यादाशील, चरित्रवान, जितेंद्रिय शासकों, जनप्रतिनिधियों, सभासदों के गुणगान के लिए होता है और जिन लोगों ने इन मानवीय गुणों का या तो उपहास किया है या इनको अपनाने में संकोच किया है,उनका बहिष्कार करना इतिहास का धर्म है।
राकेश कुमार आर्य
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
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मुख्य संपादक, उगता भारत