धर्म ही व्यवस्था का प्रतीक है
स्वामी दयानंद जी भारत में राजा को चारित्रिक गुणों में बहुत ही उत्तम देखने के पक्षधर थे। उनकी इच्छा थी कि जिस प्रकार आर्य राजाओं के भीतर गुण हुआ करते थे वैसे ही गुण आज के राजनीतिज्ञों के भीतर भी होने चाहिए।
राजा के 36 गुण
महाभारत में राजा के भीतर 36 गुणों का वर्णन किया गया है। उन गुणों को हम यहां यथावत प्रस्तुत कर रहे हैं :-
“राजा शूरवीर बने, किंतु बढ़चढ़कर बातें न बनाए, स्त्रियों का अधिक सेवन न करे, किसी से ईर्ष्या न करे और स्त्रियों की रक्षा करे, जिन्होंने अपकार या अनुचित व्यवहार किया हो, उनके प्रति कोमलता का बर्ताव न करे,क्रूरता ( बलात या अधिक कर लगाकर) का आश्रय लिए बिना ही अर्थ संग्रह करे, अपनी मर्यादा में रहते हुए ही सुखों का उपभोग करे, दीनता न लाते हुए ही प्रिय भाषण करे, स्पष्ट व्यवहार करे पर कठोरता न आने दे,
दुष्टों के साथ मेल न करे, बंधुओं से कलह न करे, जो राजभक्त न हो ऐसे दूत से काम न ले,किसी को कष्ट पहुंचाए बिना ही अपना कार्य करे, दुष्टों से अपनी बात न कहे, अपने गुणों का वर्णन न करे, साधुओं का धन न छीने, धर्म का आचरण करे, लेकिन व्यवहार में कटुता न आने दे,आस्तिक रहते हुए दूसरों के साथ प्रेम का बर्ताव न छोड़े,दान दे परंतु अपात्र (अयोग्य) को नहीं,,लोभियों को धन न दे, जिन्होंने कभी अपकार (अनुचित व्यवहार) किया हो, उन पर विश्वास न करे, शुद्ध रहे और किसी से घृणा न करे, नीच व्यक्तियों का आश्रय न ले,अच्छी तरह जांच-पड़ताल किए बिना किसी को दंड न दे, गुप्त मंत्रणा को प्रकट न करे,आदरणीय लोगों का बिना अभिमान किए सम्मान करे,गुरु की निष्कपट भाव से सेवा करे, बिना घमंड के भगवान का पूजन करे,अनिंदित उपाय से लक्ष्मी प्राप्त करने की इच्छा रखे, स्नेह पूर्वक बड़ों की सेवा करे, कार्यकुशल हो, किंतु अवसर का विचार रखे, केवल पिंड छुड़ाने के लिए किसी से चिकनी-चुपड़ी बातें न करे,किसी पर कृपा करते समय आक्षेप (दोष) न करे, बिना जाने किसी पर प्रहार न करे,शत्रुओं को मारकर शोक न करे, अचानक क्रोध न करे,स्वादिष्ट होने पर भी अहितकर हो, उसे न खाए।”
इससे पता चलता है कि हमारे राजाओं की जीवन चर्या और दिनचर्या कैसी होती थी? इन्हीं दिव्य गुणों से राजा की स्वीकार्यता बनती थी। उसकी विश्वसनीयता कभी भंग नहीं होती थी और प्रजा उससे आत्मिक लगाव रखती थी।
मुगलों की दिन चर्या
जबकि दूसरी ओर हमारे पास विदेशी मुगल शासकों की भी एक परंपरा है, जिसके शासकों की दिनचर्या और जीवन चर्या बहुत ही निम्न स्तर की होती थी।
पंडित इंद्र विद्यावाचस्पति अपनी पुस्तक ‘मुगल साम्राज्य का क्षय और उसके कारण’ के पृष्ठ संख्या 70 पर हॉकिंस नामक एक अंग्रेज के द्वारा जहांगीर के साथ बीते हुए उसके जीवन के कुछ काल के संस्मरणों के माध्यम से जहांगीर की दिनचर्या पर विचार करते हुए लिखते हैं कि “हॉकिंस ने जहांगीर के साथ कई बार हम निवाला हम प्याला होकर दिन गुजारा। उसने लिखा है कि प्रभात में बादशाह उठता है। उसका पहला काम है माला फेरना। यह काम एक प्रार्थनागृह में होता है। जिसमें जहांगीर पश्चिम की ओर मुंह करके बैठता है। प्रार्थनागृह में ईसा और मेरी के चित्र लगे हुए हैं। उसके पश्चात वह प्रजा को दर्शन देता है। जिसके बाद 2 घंटे तक आराम करता है। विश्राम के पश्चात खाना खाकर बादशाह बेगमात में चला जाता है। कुछ घंटे अंतः पुर में बीतते हैं। जिसके बाद दरबार होता है। राज्य का सब काम उसी समय किया जाता है। अर्जियां सुनी जाती हैं और राजनीतिक मुलाकातें होती हैं। दरबार के बाद हाथियों की लड़ाई या ऐसे ही और तमाशे दिखाई जाते हैं। जिसमें इच्छानुसार बादशाह शामिल होता है। फिर नमाज होती है, जिसके बाद दस्तरखान परोसा जाता है। भोजन में चार पांच तरह के व्यंजनों के अतिरिक्त विशेष हिस्सा शराब का रहता है। भोजन के बाद बादशाह अपने निज कमरे में पहुंच जाते हैं, जहां महफिल लगती है। महफिल में वही लोग सम्मिलित हो सकते हैं जिन्हें बादशाह निमंत्रित करें। उस समय बातचीत ,हंसी मजाक ,नाचना- गाना और मेल – मुलाकात के साथ-साथ शराब का दौर चलता रहता है। जहांगीर हकीम के आदेशानुसार प्राय: पांच प्याले चढ़ाता है, परंतु कभी-कभी सीमा को लांघ भी जाता है। शेष निमंत्रित मुसाहिबों को भी थोड़ी बहुत शराब चढ़ानी पड़ती है। रात होते-होते सारी महफ़िल बेहोश हो जाती है। जहांगीर की मस्ती जब पूरे जोबन पर होती है तब अफीम का गोला चढ़ाया जाता है। जिसके बाद सिवाय इसके कोई उपाय नहीं रहता कि नौकर अपने झूमते हुए बादशाह को पकड़कर चारपाई पर डाल दें। 2 घंटे तक बेहोशी सवार रहती है। जिसके बाद आधी रात के समय उसे उठाकर थोड़ा बहुत खाना खिलाया जाता है। उसे खिलाना नहीं बल्कि बलात्कार से पेट में अन्य भरना कहा जा सकता है।”
इससे पता चलता है कि मुगल शासक किस प्रकार का घटिया आचरण करने वाले और विषय भोग में डूबे रहने वाले होते थे ?
अकबर के समकालीन गुजरात की एक रियासत के नवाब महमूद बेगड़ा के बारे में यूरोपीय इतिहासकारों का कहना है कि एक बार बादशाह को भोजन में विष देने का प्रयास किया गया था। जिसके बाद उन्हें खाने में प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा विष दिया गया । जिससे कि अगली बार कोई उसे विष दे तो उसके शरीर पर इसका प्रभाव न हो। धीरे-धीरे वह खाने की जगह विष लेने लगा और समय के साथ उसकी मात्रा बढ़ाने लगा। कुछ ही वर्षों बाद उसका शरीर बहुत विषैला हो गया। महमूद बेगड़ा का शरीर इतना विषैला था कि यदि उसे कोई मक्खी काटती थी तो वह भी मर जाती थी। यहां तक कि जो भी महिला उसके साथ शारीरिक संबंध बनाती थी तो उसकी भी मृत्यु हो जाती थी।कहा जाता है कि बादशाह के द्वारा प्रयोग किए कपड़े और कोई प्रयोग नहीं करता था और उन्हें जला दिया जाता था। क्योंकि वो जहरीले हो जाते थे।
सुल्तान नाश्ते में एक कटोरा शहद, एक कटोरा मक्खन और 100-150 केले खा जाते थे। फारसी और यूरोपीय इतिहासकारों का ये मानना था कि सुल्तान महमूद बेगड़ा काफी ज्यादा खाना खाते थे। इन इतिहासकारों ने अपनी कहानी में उल्लेख किया था कि सुल्तान महमूद बेगड़ा रोज लगभग एक गुजराती टीले जितना यानी 35-37 किलो तक खाना खा जाते थे। खाने के बाद के डेजर्ट का हाल भी जरा जान लीजिए। खाने के बाद आप अमूमन मीठे में आइसक्रीम या फिर खीर की एक से दो कटोरी खा पाएंगे। लेकिन सुल्तान खाने के बाद साढे़ चार किलो तक मीठे चावल खा जाते थे। इतना खाना खाने के बाद वैसे तो किसी को भूख नहीं लगती लेकिन वो सुल्तान महमूद बेगड़ा हो तो ऐसा हो सकता है। रात में अचानक भूख के कारण सुल्तान परेशान न हो इसलिए उनके तकिये के दोनों तरफ गोश्त के समोसे रखे जाते थे। जिससे सुल्तान की रात की भूख शांत होती थी।”
शासन और योगक्षेम
अब आप थोड़ा अनुमान कीजिए कि भारत के आदर्श आर्य राजाओं की परंपरा को मिटाकर बदमाश, लुटेरे, व्यभिचारी, पापाचारी, शासकों, नवाबों या बादशाहों की निम्न परम्परा को उनके चाटुकार इतिहासकारों और मानस पुत्रों ने क्यों बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत किया ? जब हमारा इतिहास ही ऐसे निम्न और निंदनीय व्यक्तित्व के लोगों का बनाकर प्रस्तुत किया गया है तो वर्तमान राजनीति के लिए भारत के आर्य राजाओं की परंपरा अनुकरणीय क्योंकर हो सकेगी?
दयानंद जी महाराज सत्यार्थ प्रकाश या स्वरचित ग्रंथों में आर्य राजाओं की परंपरा को ही आगे बढ़ाने के पक्षधर थे। इसका कारण केवल एक था कि वह विदेशी राजाओं के आचरण और चरित्र को भली प्रकार जानते और पहचानते थे।
स्वामी जी महाराज को इतिहास के व्यावहारिक पक्ष का ज्ञान था। वे जानते थे कि यूरोपियन या मुस्लिम शासकों की नीति और सोच या आचरण कैसा होता है और भारत के राजाओं का आचरण कैसा होता था या होता है ?
स्वामी जी महाराज प्रशासन के सभी अंगों के साथ एक पूर्ण संगठित राज्य के चरित्र की चर्चा पर विचार करते हैं और उसी पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं। स्वामी दयानंद जी का चिंतन था कि राज्य व्यक्ति को योगक्षेम की प्राप्ति कराने में सहायक हो।
स्वामी दयानंद जी महाराज सत्यार्थ प्रकाश के छठे समुल्लास में लिखते हैं कि सब सेना और सेनापतियों के ऊपर राज्याधिकार दंड देने की व्यवस्था के सब कार्यों का अधिपति और सब के ऊपर वर्तमान सर्वाधिक राज्याधिकार इन चारों अधिकारों में संपूर्ण वेद शास्त्रों में प्रवीण, पूर्ण विद्या वाले, धर्मात्मा, जितेंद्रिय, सुशील जनों को स्थापित करना चाहिए अर्थात मुख्य सेनापति, मुख्य राज्याधिकारी, मुख्य न्यायाधीश और राजा यह चार सब विद्या में पूर्ण विद्वान होने चाहिए।
इस प्रकार जहांगीर या उसके वंश के अन्य मुगल बादशाहों को भारतीय आर्य राजाओं की परंपरा में रंचमात्र भी स्थान प्राप्त नहीं हो सकता।
वह सभा सभा नहीं होती….
स्वामी जी महाराज धर्म को ही व्यवस्था का प्रतीक मानते हैं। आज की राजनीति व्यवस्था अर्थात सिस्टम को अलग और धर्म को अलग मानकर चलती है। आज की राजनीति की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि वह भारतीय आदर्शों से अपने आप को दूर कर चुकी है। स्वामी जी की मान्यता थी कि राज्यसभा आदि में चारों वेदों अर्थात कारण अकारण का ज्ञाता, न्याय शास्त्र, निरुक्त, धर्म शास्त्र आदि के वेत्ता विद्वान सभासद होने चाहिए यह सारे सभासद ब्रह्मचारी , गृहस्थ और वानप्रस्थ हों।
जिस सभा में अविद्वान ,वेदों की निंदा करने वाले या वेद विरुद्ध आचरण करने वाले या ऋषियों की शिक्षा का उपहास करने वाले लोग पहुंचने में सफल हो जाते हैं, वह सभा सभा नहीं रह पाती अपितु गिद्धों की चौपाल बनकर रह जाती है। उनके शोर-शराबे और गिद्धों जैसे आचरण से सर्वत्र स्वार्थ वाद को प्रोत्साहन मिलता है। जैसे गिद्ध केवल दूसरे का मांस नोंचना ही अपना धर्म मानते हैं, वैसी ही प्रवृत्ति ऐसे शासकों की हो जाती है। ये सत्ता स्वार्थी धन लोलुप और दूसरों पर अत्याचार करने वाले शासक वर्ग के लोग अपने गिद्ध धर्म का परिचय देते हुए प्रजा उत्पीड़न का कार्य करते रहते हैं।
ऐसी गिद्ध प्रवृत्ति के शासकों के शासनकाल में अन्याय पूर्ण कानून बनते हैं और पक्षपाती शासन व्यवस्था के कारण जनता में भी खेमेबंदी को प्रोत्साहन मिलता है। डाकू का धर्म दूसरों पर बलात अपना अधिकार जमाना होता है। वह आतंक मचाकर दूसरों के धन को हड़पता है। डाकू यह नहीं समझ पाता है कि इस संसार के बाद भी एक संसार है जहां सारे कर्मों का लेखा जोखा बना होता है और वहां सारा हिसाब देना होता है। आध्यात्मिक चेतना से पूर्णतया शून्य ऐसा डाकू लोक परलोक के बारे में कुछ नहीं जानता । वह केवल शरीर पोषण और शारीरिक भूख को शांत करने में ही आनंद समझता है। वास्तविक आनंद के बारे में देखना, सोचना और समझना संभवत: उसकी क्षमताओं के भी बाहर होता है।
ऐसी डाकू प्रवृत्ति के शासकों की सभा इसलिए सभा नहीं होती कि वह किसी आभा से युक्त हो ही नहीं सकती। क्योंकि आभा दैवीय कार्यों को करने और दिव्याचरण को अपनाने से आती है। डाकू दिव्यता से बहुत दूर होता है । उसके बारे में यह भी कहा जा सकता है कि वह दिव्यता के बारे में तो सोच भी नहीं सकता। नशेड़ी, भंगेड़ी , व्यभिचारी, पापाचारी, कामी लोगों की सभा को सभा नहीं कह सकते। वह आतंकी या डाकू लोगों की मौजमस्ती या जनसाधारण पर आतंक मचाने के लिए कानून बनाने वाली एक चौपाल हो सकती है , इससे अधिक कुछ भी नहीं।
भारत में राजनीतिक सांप्रदायिकता
भारत में ऐसे ही लोगों के राजनीति में चले जाने के कारण बहुदलीय शासन व्यवस्था के चलते राजनीतिक सांप्रदायिकता तेजी से बढ़ी है। इस राजनीतिक सांप्रदायिकता ने लोगों को विभिन्न प्रकार की गुट बंदियों में विभाजित कर दिया है। लोकतंत्र को लोगों के बीच प्यार प्रीत फैलाने के लिए अपनाया जाता है, परंतु भारत में लोकतंत्र ही लोगों के बीच वैमनस्य को प्रोत्साहित करने का माध्यम बन गया है।
स्वामी दयानंद जी महाराज कहते हैं कि जिस सभा में ऋग्वेद, यजुर्वेद ,सामवेद के जानने वाले सभासद रहते हैं ,उनके द्वारा बनाई गई किसी भी व्यवस्था का उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए। इसका कारण केवल एक है कि ऐसे सभासद जनहित में ही निर्णय लेते हैं। उनसे जनहित के विपरीत आचरण करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
आज इतिहास को दोबारा लिखे जाने की इसीलिए आवश्यकता है कि मुगलिया शासकों की दिनचर्या और जीवन चर्या को हमारे राजनीतिज्ञों ने अपना लिया है। जिससे राजनीति का उत्तरोत्तर पतन हो रहा है। राजनीति के साथ-साथ समाज भी पथभ्रष्ट और धर्म भ्रष्ट है। समाज की गिरी हुई अवस्था को दुरुस्त करने के लिए और राजनीति को आर्य राजाओं की परंपरा के साथ जोड़ने के लिए अपने आदर्शों को बदलना समय की सबसे पहली आवश्यकता है। आज आवश्यकता व्यवस्था को धर्म के अनुसार चलने वाली बनाये जाने की है। जब व्यवस्था धर्म की प्रतीक बन जाएगी तो सब का आचरण शुद्ध हो जाएगा। राजनीति का उद्देश्य यही है कि वह धर्म की जय के लिए व्यवस्था को धर्म के अनुकूल बना दे।
मुख्य संपादक, उगता भारत