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पर्यावरण

दिल्ली में ‘प्रदूषण इमर्जेंसी’ का क्या हो उपाय

आनंद प्रधान

सर्दियों की शुरुआत के साथ दिल्ली एक बार फिर गैस चेंबर बन गई। तेज हवाओं ने दो-तीन दिनों से थोड़ी राहत जरूर दी है, लेकिन इससे हालात खास बदले नहीं हैं। गंभीर प्रदूषण में सांस लेने के लिए मजबूर लोगों खासकर वृद्धों, बच्चों और गंभीर बीमारियों के मरीजों का जीवन और स्वास्थ्य खतरे में है। अस्पतालों में सांस की बीमारी के मरीजों की भीड़ बढ़ रही है। यह सिर्फ इस साल की बात नहीं। आलम यह है कि राजधानी का सबसे सुंदर मौसम साल-दर-साल एक बुरे सपने में बदलता जा रहा है।

यह हर मायने में ‘प्रदूषण इमरजेंसी’ की स्थिति है। दुनिया के किसी भी विकसित देश की राजधानी और उसके आसपास के इलाकों में ऐसी स्थिति केंद्रीय और स्थानीय सरकारों की नीतिगत और प्रशासनिक नाकामी के रूप में देखी जाती और उन्हें राजनीतिक रूप से उसकी कीमत चुकानी पड़ती। लेकिन दिल्ली और उसके पड़ोसी राज्यों के साथ केंद्र सरकार की प्रतिक्रिया हैरान और निराश करने वाली है।

इच्छाशक्ति की कमी

इस चुनौती से निपटने और इसका कोई स्थायी समाधान तलाशने की कोशिश करने के बजाय राज्य सरकारें और केंद्र सरकार आरोप-प्रत्यारोप में ही सारी ऊर्जा खर्च कर रही हैं। यही कारण है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में दिल्ली और राजधानी क्षेत्र में प्रदूषण की समस्या विकराल ही होती गई। यह साफ होता जा रहा है कि मौजूदा राजनीतिक दलों और उनके नेतृत्व के पास इस गंभीर समस्या का न तो कोई समाधान है और न ही समाधान ढूंढने की कोई इच्छाशक्ति उनमें दिखाई देती है। अधिकांश राजनीतिक पार्टियों के चुनावी घोषणापत्रों में पर्यावरण से जुड़े मसलों का बहुतेरे दूसरे मुद्दों की तरह चलताऊ जिक्र भर होता है।

असल में, अधिकांश राजनीतिक पार्टियों की निगाह में पर्यावरण और प्रदूषण कोई वोट खींचू मुद्दे नहीं हैं।
उनकी समझ है कि प्रदूषण, पर्यावरण और क्लाइमेट चेंज उच्च मध्यवर्गीय मुद्दे हैं और आम वोटर खासकर गरीब, किसान, मजदूर और निम्न मध्यमवर्गीय वोटर को इनकी कोई खास परवाह नहीं है।
इस सोच के कारण अधिकांश पार्टियां पर्यावरण, प्रदूषण और क्लाइमेट चेंज जैसे अत्यंत गंभीर मुद्दों की अनदेखी करती हैं और यह उनके बीच राजनीतिक प्रतियोगिता का मुद्दा भी नहीं बन पाता।
नतीजा यह कि दिल्ली और आसपास के इलाकों में बिगड़ते पर्यावरण के कारण जन-जीवन, जन-स्वास्थ्य, लोगों की आजीविका, कृषि और अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले गंभीर प्रभावों के बढ़ते खतरों और चेतावनियों के बावजूद एक राजनीतिक चुप्पी और लापरवाही बनी हुई है। इस चुप्पी और गतिरोध को तोड़ने का एक ही राजनीतिक तरीका है। असल में, दिल्ली और देश को विकसित पश्चिमी देशों की तरह एक ऐसी प्रगतिशील ग्रीन पार्टी की जरूरत है, जो पर्यावरण, क्लाइमेट चेंज और प्रदूषण जैसे मुद्दों को अपनी पहली, आखिरी और सबसे बड़ी राजनीतिक प्राथमिकता मानती हो। एक ऐसी ग्रीन पार्टी, जो पर्यावरण से जुड़े मसलों को लोगों की आजीविका, जन-स्वास्थ्य और टिकाऊ विकास जैसे मुद्दों से सकारात्मक रूप से जोड़ सके। इस ग्रीन पार्टी को पर्यावरण, प्रदूषण और क्लाइमेट चेंज जैसे गंभीर और जटिल मुद्दे से कारगर तरीके से निपटने के लिए एक साफ वैज्ञानिक, समावेशी और दूरगामी लेकिन लागू की जा सकने वाली व्यापक कार्ययोजना सामने रखनी होगी। उसे आम लोगों खासकर गरीबों, मजदूरों, किसानों के अलावा शहरी मध्यवर्ग के बीच वैसे ही ले जाना और जन-आंदोलन खड़ा करना होगा, जैसे पिछले दशक की शुरुआत में दिल्ली में भ्रष्टाचार के खिलाफ जन-लोकपाल आंदोलन खड़ा हुआ। उस आंदोलन से जैसे एक राजनीतिक पार्टी का जन्म हुआ, राजनीति में कुछ नए मुद्दे उभरे, राजनीतिक प्रतियोगिता और गतिशीलता बढ़ी और उसके कारण सीमित अर्थों में ही सही, लेकिन राजनीति बदली।

देश और कम से कम दिल्ली में प्रदूषण और पर्यावरण जैसे मुद्दे पर एक बड़े राजनीतिक बदलाव के लिए जमीन तैयार है। गौर करें तो इस नई पार्टी की जरूरत ही नहीं, उसकी संभावित भूमिका भी स्पष्ट होने लगती है।

प्रदूषण इमरजेंसी से निपटने में लगभग सभी बड़े राजनीतिक दलों और राज्य तथा केंद्र सरकारों की नाकामी ने एक नए ग्रीन जनांदोलन और ग्रीन राजनीतिक दल की जरूरत को सामने रखा है।
इस नई ग्रीन पार्टी से यह अपेक्षा कतई नहीं है कि वह रातों-रात सब कुछ बदल देगी या तुरंत सत्ता में आ जाएगी। इसके उलट अगर वह शुरुआती दौर में एक राजनीतिक प्रेशर ग्रुप के रूप में उभर सके तो यही बड़ी कामयाबी होगी।
यह नई पार्टी पर्यावरण, प्रदूषण और क्लाइमेट चेंज को दिल्ली जैसे राज्य में राजनीतिक प्रतियोगिता का बड़ा मुद्दा बना सके, उसे राष्ट्रीय और राज्य के राजनीतिक एजेंडे पर प्राथमिकता के मुद्दों में स्थापित कर सके और इस आधार पर लोकसभा और कुछ राज्यों की विधानसभाओं में कुछ सीटें जीत सके तो यह एक नई पर्यावरण आधारित ग्रीन राजनीति के लिए काफी होगा। इसे सिर्फ कल्पना की उड़ान समझने की भूल नहीं करनी चाहिए।

आखिर यूरोप के कई देशों में 70 और 80 के दशक में पर्यावरण, सामाजिक न्याय, टिकाऊ विकास और अहिंसा के विचार के इर्द-गिर्द ग्रीन पार्टियों का जन्म हुआ।
आज दुनिया के लगभग 90 देशों में ग्रीन पार्टी सक्रिय हैं और एक दर्जन से ज्यादा देशों की राजनीति में वे निर्णायक भूमिका में हैं।
इन पार्टियों की सक्रियता के कारण पर्यावरण-पारिस्थितिकी से जुड़े मुद्दों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय एजेंडे पर प्रमुखता से लाने में कामयाबी मिली है और सरकारों पर पर्यावरण केंद्रित साफ और नवीकरणीय ऊर्जा, कचरा निपटान, पब्लिक ट्रांसपोर्ट, बेहतर नगरीय प्रबंधन का दबाव बढ़ा है।
इसके कारण यूरोप और दुनिया के कई देशों में उनके शहरों में गंभीर वायु प्रदूषण से लेकर नदियों को साफ करने में कामयाबी भी मिली है।
क्या अब भी यह दोहराने की जरूरत है कि दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में मौजूदा ‘प्रदूषण इमरजेंसी’ और क्लाइमेट चेंज से पैदा हो रही चुनौतियों से कारगर तरीके से निपटने के लिए भारत और कम से कम दिल्ली में एक जुझारू समावेशी-प्रगतिशील पर्यावरण केंद्रित ग्रीन पार्टी का समय आ गया है?

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