वैदिक सम्पत्ति : अध्याय – प्रक्षेप और पुनरुक्ति
अध्याय – प्रक्षेप और पुनरुक्ति
गतांक से आगे …
इसी तरह सामवेद का भी खिल-भाग अर्थात् परिशिष्ट भाग प्रसिद्ध है। सभी जानते हैं कि सामवेद की महा नाम्नी ऋचाएँ और आरण्यकभाग परिशिष्ट हैं। महानाम्नी ऋचाओं के विषय में ऐतरेय ब्राह्मण 22/2 में लिखा है कि ‘ ता ऊर्ध्वा सोम्नोऽभ्यसृजत । यदूर्ध्वा सोम्नोऽभ्यसृजत तत् सिमा अभवत् तत्सिमानां सिमात्यम्’ अर्थात् इन महानाम्नी ऋचाथों को प्रजापति ने वेद की सीमा के बाहर बनाया है। बाहर होने के कारण ही इनका नाम सिमा है । यहाँ महानाम्नी ऋचाएँ स्पष्ट रीति से ऋग्वेद की सीमा के बाहर बतलाई गई हैं। ये अब तक पूर्वाचिक के अन्त में लिखी जाती हैं। इसी तरह आरण्यकभाग भी परिशिष्ट ही है। यह बात सामवेदसंहिता के देखने मात्र से स्पष्ट हो जाती है । सामवेदसंहिता के दो विभाग हैं। एक का नाम पूर्वाचिक है और दूसरे का उत्तराचिक । पूर्वाचिक में प्रपाठक हैं और प्रत्येक प्रपाठक के पूर्वार्ध उत्तरार्ध दो दो विभाग हैं। यह क्रम पाँच प्रपाठकों में एक ही समान है, परन्तु छठे प्रपाठक में जहाँ यह आरण्यकखण्ड जुड़ा हुआ है, उसमें तीन विभाग छपे हुए हैं। यह तीसरा विभाग ही आरण्यक है । इसको सायणाचार्य ने भी परिशिष्ट ही कहा है और क्रम के देखने से भी परिशिष्ट ही ज्ञात होता है, इसलिये इसके खिल होने में सन्देह नहीं है ।
जिस प्रकार इन तीनों वेदों का खेलिक भाग प्रसिद्ध है, उसी तरह अथर्ववेद का कुन्ताप सूक्त भी खिल के ही नाम से प्रसिद्ध है। अजमेर की छपी हुई संहिता में जिस प्रकार ऋग्वेद का खिलभाग, ‘अथ वालखिल्य’ और ‘इति वालखिल्य’ लिखकर छापा गया है, उसी तरह अजमेर की छपी हुई अथर्वसंहिता के काण्ड 20 सूक्त 126 के आगे ‘अथ कुन्तापसूक्तानि’ और सूक्त 136 के पहले ‘इति कुन्तापसूक्तानि समाप्तानि’ भी छपा हुआ है, जिससे प्रकट हो जाता है कि इतना भाग परिशिष्ट ही है। स्वामी हरिप्रसाद ‘वेदसर्वस्व’ पृष्ठ 97 में लिखते हैं कि ‘जैसे ऋग्वेदसंहिता में वालखिल्य सूक्त मिलाये जा रहे हैं, वैसे अथर्वसंहिता के अन्त में आजकल कुन्तापसूक्त मिलाये जा रहे हैं’। इस विवरण से पाया जाता है कि कुन्तापसूक्त भी परिशिष्ट ही हैं और शुरू से ही सबको ज्ञात हैं ।
इन प्रसिद्ध और सर्वमान्य परिशिष्टों के अतिरिक्त भी चारों संहिताओं में कहीं कहीं प्रक्षिप्त भाग है, जो उसी स्थल की सूचना से स्पष्ट हो जाता है । उदाहरणार्थ यजुर्वेद का निम्न मन्त्र देखने योग्य है –
न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः ।
हिरण्यगर्भ इत्येषा मा मा हिसीदित्येषा यस्मान्न जात इत्येषः (यजुर्वेद ३२ ३)
इस मंत्र में आधा भाग तो मन्त्र का है परन्तु आवा भाग तीन भिन्न भिन्न स्थलों में आये हुए मन्त्रों की प्रतीकों का बतलानेवाला बाह्य वाक्य है। ‘हिरण्यगर्भ’ ऋग्वेद 8/7/6 में, ‘मा मा हिंसी’ यजुर्वेद 12/172 में और ‘यस्मान्न ‘जात’ यजुर्वेद 8/16 में आए हुए मन्त्रों के प्रारम्भिक शब्द हैं। इसलिए मूल मन्त्रों की प्रतीकों का बतलानेवाला यह भाग मूल मन्त्र का नहीं हो सकता। यह तो उक्त तीनों मन्त्रों का पता बतानेवाला संस्कृतवाक्य है। क्योंकि सर्वानु क्रमणी 3/15 में लिखा है कि ‘एताः प्रतीकचोदिता ब्रह्मयज्ञ ध्येया’ अर्थात् यह प्रतीकवाला मन्त्र ब्रह्मयज्ञ का है । प्रतीक कहने से ही यह बाहर का सूचित होता है। इसी तरह और भी बहुत से छोटे छोटे टुकड़े अनेक मन्त्रों में मिले हैं, जिनकी सूचना उवट और महीघर आदि ने यजु के नाम से कर दी है। इसका उत्तम नमूना यजु 10/20 के भाष्यमैं दिखलाई पड़ता है।
क्रमश: