दुष्टों के लिए दंड
जनसाधारण धर्म की मर्यादा का स्वाभाविक रूप से पालन करते हैं इसलिए उन्हें दंड की आवश्यकता नहीं पड़ती। जबकि दुष्ट प्रवृत्ति के लोग कठोरता से ही सीधे चलते हैं। इस प्रकार दंड और धर्म एक ही सिक्के के दो पहलू हो गए। यही कारण है कि बुद्धिमान लोग दंड को ही धर्म कहते हैं। दंड देते समय भी राजा को पूर्ण समीक्षा करनी चाहिए। बिना किसी समीक्षा के किसी निष्कर्ष पर पहुंचना राजा के लिए उचित नहीं है। इसी बात के दृष्टिगत स्वामी दयानंद जी व्यवस्था देते हैं कि :-
समीक्ष्य स धृतः सम्यक् सर्वा रञ्जयति प्रजाः।
असमीक्ष्य प्रणीतस्तु विनाशयति सर्वतः।।
अर्थात “जो दण्ड अच्छे प्रकार विचार से धारण किया जाय तो वह सब प्रजा को आनन्दित कर देता है और जो विना विचारे चलाया जाय तो सब ओर से राजा का विनाश कर देता है।”
इसका अर्थ है कि राजा को अच्छी प्रकार विचार करके ही दंड देना चाहिए। जिसने जैसा अपराध किया है उसे उसी सीमा तक का दंड देना चाहिए। छोटे अपराध के लिए बड़ा दंड देना राजा की क्रूरता, निर्ममता और निर्दयता को प्रकट करता है। इससे समाज में राजा के प्रति असंतोष पैदा होता है और लोग राजा की निंदा करने लगते हैं। फलस्वरूप समाज में अराजकता प्रवेश कर जाती है और देर सवेर ऐसे राजा के विरुद्ध या तो विद्रोह होता है या कोई और आपदा आकर उसके शासन का अंत कर देती है।
विचारपूर्वक दंड देने वाले राजा के प्रति प्रजा प्रसन्न रहती है। क्योंकि वह दंड देते समय वैसी ही समझदारी और बुद्धिमत्ता का प्रयोग करता है जैसे एक किसान अपने खेत में खड़ी फसल में से खरपतवार को सावधानीपूर्वक खत्म करता है और फसल के पौधे को छोड़ देता है। जब इतनी सावधानी के साथ दंड दिया जाता है तो सचमुच अपराध करने वाला अपराधी ही दंड प्राप्त करता है। जिन लोगों ने अपराध नहीं किया है वह शांति पूर्वक बिना भय के अपना जीवन यापन करते रहते हैं। स्वामी दयानंद जी का मत था कि एक अपराधी भले ही छूट जाए पर किसी निरपराध को अनावश्यक दंड नहीं मिलना चाहिए। आज के कानून विद भी इसी सिद्धांत को मानते हैं।
बिना दंड के हो जाती है मर्यादा भंग
छठे समुल्लास में ही महर्षि इस बात को भी स्पष्ट करते हैं कि विना दण्ड के सब वर्ण दूषित और सब मर्यादाऐं छिन्न-भिन्न हो जाती हैं। इसलिए महर्षि दयानंद दंड का समर्थन करते हैं। शासन व्यवस्था बिना दंड के स्वयं निष्प्रभावी हो जाती है। यदि दंड देने में किसी प्रकार का पक्षपात किया जाता है तो लोगों में विद्रोह का भाव पैदा होता है। विदेशी आक्रमणकारियों के रूप में भारत पर शासन करने वाले मुगल या अंग्रेजों को भारत के लोगों ने अपना शासक इसीलिए नहीं माना कि वे लोगों के साथ न्याय करते समय पक्षपाती होते थे।
स्वामी दयानंद जी का मत है कि “जो उस दण्ड का चलाने वाला सत्यवादी, विचार के करनेहारा, बुद्धिमान्, धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि करने में पण्डित राजा है, उसी को उस दण्ड का चलानेहारा, विद्वान् लोग कहते हैं।”
राजा भी होना चाहिए पंडित
यहां पर सत्यवादी बुद्धिमान धर्म, अर्थ काम की सिद्धि करने वाले राजा को भी स्वामी दयानंद जी महाराज ‘पंडित’ कह रहे हैं। इसका अभिप्राय है कि राजा के भीतर जब यह गुण होते हैं तो वह चाहे जिस वर्ण से हो परंतु उसे पंडित ही माना जाना चाहिए। किसी राजा को पंडित लिखा मिलने पर हमारे आज के कई इतिहासकार इस भ्रांतिजनक अवधारणा को पोषित करते देखे जाते हैं कि अमुक राजा पंडित या ब्राह्मण था। ऐसा कहना या किसी राजा के बारे में ऐसे इतिहासकारों के द्वारा इस प्रकार लिखना पूर्णतया गलत है। ये लोग प्राचीन काल से भारत में आज के जैसी जाति व्यवस्था को देखने के अभ्यासी होते हैं। उन्हें नहीं पता कि सत्यवादी जैसे दिव्य गुण होने से राजा पंडित कहा जाता था। स्वामी दयानंद जी राजा को पंडित मानने के पक्षधर हैं। इसका अभिप्राय है कि राजा या प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बनाते समय हमें राजा के भीतर इन गुणों को अवश्य देखना चाहिए। यदि उसके भीतर ऐसे गुण नहीं हैं तो हमारा प्रतिनिधि या हमारा प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति नहीं हो सकता।
जो दण्ड को अच्छे प्रकार राजा चलाता है वह धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि को बढ़ाता है और जो विषय में लम्पट, टेढ़ा, ईर्ष्या करनेहारा, क्षुद्र नीचबुद्धि न्यायाधीश राजा होता है, वह दण्ड से हीे मारा जाता है।
यह दंड बड़ा तेजोमय है। इसकी तेजस्विता को धारण करना हर किसी के वश की बात नहीं है। दंड की तेजस्विता को धर्म और भी द्विगुणित कर देता है। यदि राजा धर्म का पालन करने वाला नहीं होता है तो ऐसा राजा विनाश को प्राप्त हो जाता है। मुगलों और अन्य विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत में शासन करते समय धर्म के अनुकूल तेजस्विता को धारण नहीं किया था। यही कारण है कि उनका राज्य मिट गया, उनका कुटुंब समाप्त हो गया और वे स्वयं भी अतीत के अंधकार के काल में समा गए।
राकेश कुमार आर्य
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
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मुख्य संपादक, उगता भारत