दंड, राजा और शासन व्यवस्था
तेजस्वी राष्ट्रवाद के निर्माण के लिए आवश्यक है कि राजा परम तेजस्वी हो। जो राजा या प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति तेजहीन होता है, वह देशविरोधी शक्तियों के समक्ष झुक जाया करता है। उसके भीतर साहस का अभाव होता है। जिसके कारण वह देशद्रोही शक्तियों का उचित समय पर शमन और दमन नहीं कर पाता है। जिससे देश में अराजकता फैलती है। शक्तिशाली लोग निर्बल लोगों को सताने लगते हैं। आतंकवाद जैसी बीमारी जन्म लेती है। जिससे अनेक लोग अकाल ही काल के मुंह में समा जाते हैं।
शत्रुओं के विनाश के लिए होता है राजा
ऐसे शासक का साहस नहीं होता कि वह आतंकवादियों का सामना कर सके या देश को तोड़ने वाली शक्तियों का विनाश कर सके। वह आतंकवादियों से ‘हाथ’ तो मिला सकता है पर उनसे दो-दो हाथ नहीं कर सकता। राजा केवल जनता के पैसे को लूटकर या उनसे कर आदि के माध्यम से अधिक धन लेकर अपने जीवन को ऐश्वर्यशाली बनाने के लिए नहीं होता है। इसके विपरीत वह अपने तप, तेज, त्याग और तपस्या के माध्यम से शत्रुओं का विनाश करने वाला होता है। जिसके भीतर राष्ट्रविरोधी शक्तियों से लड़ने की क्षमता ना हो वह राजा बनने के योग्य नहीं होता। हमारे ऋषियों ने ऐसे राजा की कल्पना की है जो सूर्य के समान प्रतापी हो। सूर्य के समान प्रतापी राजा के प्रताप के समक्ष शत्रु और देशद्रोही शक्तियां टिक नहीं पाती हैं। स्वामी दयानंद जी भी ऐसे राजा की ही कामना करते हुए सत्यार्थ प्रकाश के षष्ठम समुल्लास में लिखते हैं कि “जो सूर्यवत् प्रतापी सब के बाहर और भीतर मनों को अपने तेज से तपानेहारा, जिस को पृथिवी में कड़ी दृष्टि से देखने को कोई भी समर्थ न हो, और जो अपने प्रभाव से अग्नि, वायु, सूर्य्य, सोम, धर्मप्रकाशक, धनवर्द्धक, दुष्टों का बन्धनकर्त्ता, बड़े ऐश्वर्यवाला होवे, वही सभाध्यक्ष सभेश होने के योग्य होवे।”
इसका अभिप्राय है कि जिस राजा के भीतर उपरोक्त गुण नहीं हैं उसे राजा बनने का भी अधिकार नहीं है। प्राचीन काल में हमारे देश के लोग उपरोक्त गुणों से संपन्न व्यक्ति को ही अपना राजा नियुक्त करते थे।
जो व्यक्ति राजा बनने के लिए लोगों को आरक्षण या मुफ्त की रेवड़ी बांटने का लोभ या लालच प्रदान करता है, वह सत्ता-चोर अथवा सत्ता स्वार्थी तो हो सकता है, पर राजा नहीं हो सकता। उसकी ऐसी हरकतों से देश विरोधी और समाज विरोधी लोगों को प्रोत्साहन मिलता है। इसका एक कारण यह है कि मुफ्त की रेवड़ी बांटने में विश्वास करने वाला ऐसा शासक सत्ता स्वार्थ की पूर्ति के लिए देश विरोधी लोगों से भी हाथ मिला सकता है।
कौन है सच्चा राजा ?
सच्चा राजा कौन है ?- इसका उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं कि :-
स राजा पुरुषो दण्डः स नेता शासिता च सः।
चतुर्णामाश्रमाणां च धर्मस्य प्रतिभूः स्मृतः।।
अर्थात “जो दण्ड है वही पुरुष राजा, वही न्याय का प्रचारकर्त्ता और सब का शासनकर्त्ता, वही चार वर्ण और आश्रमों के धर्म का प्रतिभू अर्थात् जामिन है।”
यहां पर दंड का अभिप्राय शासक की कठोरता से है। इस कठोरता का अर्थ जनसाधारण के प्रति दिखाई गई निर्ममता से नहीं है। इसके विपरीत जो देश विरोधी शक्तियां हैं, उनके विरुद्ध दिखाई जाने वाली कठोरता से है।
जब तक समाज विरोधी, राष्ट्र विरोधी और व्यवस्था विरोधी लोगों के लिए कठोरता का दंड अथवा डंडा काम करता रहेगा तब तक न्याय की रक्षा अपने आप होती रहेगी। जैसे ही डंडा हल्का हो जाता है या उसमें शिथिलता आ जाती है, अर्थात राजा कठोर न रहकर सज्जनता की बातें करने लगता है तो देश विरोधी शक्तियां देश को तोड़ने की गतिविधियों में लग जाती हैं। शासन में अस्थिरता आती है और चारों ओर अराजकता फैल जाती है। चारों आश्रमों के लोग अपने अपने धर्म को भूल जाते हैं और एक दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण करने लगते हैं। शासक की कठोरता ही अथवा दंड का शासन ही चारों आश्रमों के धर्म का प्रतीक है अर्थात जमानती है। यही कारण है कि ऋषि दयानन्द जी महाराज शासक की कठोरता का समर्थन करते हैं। इसी संदर्भ में वह मनु महाराज के माध्यम से आगे लिखते हैं :-
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः।।
अर्थात “वही प्रजा का शासनकर्त्ता सब प्रजा का रक्षक, सोते हुए प्रजास्थ मनुष्यों में जागता है, इसीलिये बुद्धिमान् लोग दण्ड ही को धर्म कहते हैं।”
ऋषि दयानंद यहां भी बड़े पते की बात कह रहे हैं। यह सच है कि दंड अथवा शासक की कठोरता ही रात में जागती है। शासक का डंडा ही रात में पहरेदार बनता है। जिसकी पहरेदारी में सभी देशवासी चैन की नींद सोते हैं। वास्तव में चैन की नींद सोने के लिए ही लोग शासक का निर्वाचन करते हैं। जैसे धर्म हमारे जीवन को धारता है और हमें मर्यादित व संतुलित रहकर अपनी भूमिका निर्वाह करने के लिए प्रेरित करता है वैसे ही दंड दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों को सीधा चलने के लिए प्रेरित करता है। कहने का अभिप्राय है कि राजा का दंड किसी भी स्थिति परिस्थिति में दुर्बल नहीं पड़ना चाहिए। राजा को जनसाधारण के बीच अधिक ना तो रहना चाहिए और ना ही अधिक हंसी मजाक की बात करनी चाहिए। राजा जैसे ही हंसी मजाक की स्थिति में आता है वैसे ही उसकी गरिमा भंग हो जाती है। पद की गरिमा के अनुसार उसे गंभीरता धारण किए रखना आवश्यक है।
राकेश कुमार आर्य
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
प्रकाशक का दूरभाष नंबर : 011 – 407122000।