जनप्रतिनिधियों का सम्मान
यहां पर वेद ने राजा के प्रशंसनीय गुणों पर चर्चा की है। प्रशंसनीय गुण, कर्म, स्वभाव तभी कहे जा सकते हैं जब कोई व्यक्ति चरित्र बल में ऊंचा होता है। यदि कोई व्यक्ति चरित्र से गिरा हुआ है तो उसे प्रशंसनीय, गुण, कर्म ,स्वभाव युक्त सत्करणीय, माननीय नहीं कहा जा सकता।
आजकल हम अपने जनप्रतिनिधियों को माननीय शब्द बड़ी सहजता से और बड़ी शीघ्रता से प्रदान कर देते हैं। हत्यारे और बलात्कारी जनप्रतिनिधियों को भी जब हम इस प्रकार के संबोधन से पुकारते हैं तो यह माननीय शब्द अपने आप में बहुत ही अधिक लज्जित होता है। या तो हमको शब्दों की गरिमा का ध्यान नहीं है या फिर हम अपनी संस्कृति और संस्कृत से इतने दूर चले गए हैं कि हमें माननीय शब्द का अर्थ पता नहीं है।
यजुः० अ० 4। मन्त्र 40।। का उदाहरण देते हुए महर्षि दयानंद जी हमें बताते हैं कि प्रजाजन उसी को अपना राजा नियुक्त करें जो पक्षपातरहित, पूर्ण विद्या ,विनय युक्त हो। ऐसे दिव्य गुणों से भाषित व्यक्ति को ही माननीय कहा जा सकता है।”
जिन लोगों को देश की समस्याओं का बोध ना हो और जो प्रजा हित में निर्णय नहीं ले सकते हैं या जो देश के विधानमंडलों में बैठकर ऊंघते हों या देश के विधान मंडलों में बैठकर मोबाइल पर अश्लील पिक्चर देखते हों उन्हें भी यदि माननीय कहा जाएगा तो इसे किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता।
प्राचीन काल से ही सज्जन शक्ति को उत्पीड़ित करने के लिए दुर्जन शक्ति भी कार्य करती रही है। उस दुर्जन शक्ति का विनाश करना क्षत्रिय राजा का सर्वोपरि कर्तव्य माना गया है। इसके लिए वेद ने आदेश दिया है कि राजा को आधुनिकतम अस्त्र शस्त्रों से युक्त सेना रखने का अधिकार है। जिससे कि ईश्वर की न्याय व्यवस्था को भंग करने वाली शक्तियां उत्पन्न न हो सकें। प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध सृष्टि संचालन में बाधा डालने वाले उग्रवादी तत्वों के विनाश के लिए राजा के पास आधुनिकतम अस्त्र-शस्त्र और सशस्त्र सेना रहनी चाहिए। इसके लिए वेद ( ऋ० मं० 1। सू० 39। मं० 3।।) ने व्यवस्था की है ।
कैसे लोग अधिकारी बनें ?
जब तक मनुष्य धार्मिक रहते हैं तभी तक राज्य बढ़ता रहता है और जब दुष्टाचारी होते हैं तब नष्ट भ्रष्ट हो जाता है। स्वामी दयानंद जी व्यवस्था करते हैं कि “महाविद्वानों को विद्यासभाऽधिकारी; धार्मिक विद्वानों को धर्मसभाऽधिकारी, प्रशंसनीय धार्मिक पुरुषों को राजसभा के सभासद् और जो उन सब में सर्वोत्तम गुण, कर्म, स्वभावयुक्त महान् पुरुष हो उसको राजसभा का पतिरूप मान के सब प्रकार से उन्नति करें। तीनों सभाओं की सम्मति से राजनीति के उत्तम नियम और नियमों के आधीन सब लोग वर्तें, सब के हितकारक कामों में सम्मति करें। सर्वहित करने के लिये परतन्त्र और धर्मयुक्त कामों में अर्थात् जो-जो निज के काम हैं उन-उन में स्वतन्त्र रहें।”
स्वामी जी महाराज ने इस प्रकार की व्यवस्था करके आज की राजनीति और शासन व्यवस्था के लिए बहुत बड़ी चुनौती स्थापित कर दी है। क्योंकि आजकल सभा अधिकारियों की योग्यता निर्धारित करने पर संविधान पूर्णतया मौन है। जो देश अपने आपको विकसित राष्ट्र के रूप में देखते हैं या विकसित राष्ट्र कहलाए जाने पर गौरवान्वित होते हैं , उनके यहां भी ऐसी व्यवस्था नहीं है जो स्वामी दयानंद जी ने सभाधिकारियों की नियुक्ति के संबंध में यहां पर स्थापित की है। हम विदेशों की बात छोड़े हैं पर भारत को तो अपने प्राचीन आदर्शों के साथ जुड़ने में किसी प्रकार का संकोच नहीं होना चाहिए। यहां पर सभाधिकारियों की नियुक्ति के संबंध में ऋषि दयानंद जी की इस व्यवस्था को पूर्णतया लागू किया जाना चाहिए। जब हम स्वयं अपने गौरवपूर्ण अतीत से जुड़ेंगे तभी हम शेष विश्व के लिए कुछ आदर्श स्थापित करने में सफल हो पाएंगे।
पुनः उस सभापति के गुण कैसे होने चाहिये-
वह सभेश राजा इन्द्र अर्थात् विद्युत् के समान शीघ्र ऐश्वर्यकर्त्ता, वायु के समान सब के प्राणवत् प्रिय और हृदय की बात जाननेहारा, यम पक्षपातरहित न्याया- धीश के समान वर्त्तनेवाला, सूर्य्य के समान न्याय, धर्म, विद्या का प्रकाशक अन्धकार अर्थात् अविद्या अन्याय का निरोधक; अग्नि के समान दुष्टों को भस्म करनेहारा, वरुण अर्थात् बांधनेवाले के सदृश दुष्टों को अनेक प्रकार से बांधनेवाला, चन्द्र के तुल्य श्रेष्ठ पुरुषों को आनन्ददाता, धनाध्यक्ष के समान कोशों का पूर्ण करने वाला सभापति होवे।।1।।
इस प्रकार के गुणों को हमें अपने राजा, राज्याधिकारियों , सभाधिकारियों एवम जनप्रतिनिधियों की योग्यता के रूप में स्थापित करना चाहिए और उन्हें वैधानिक मान्यता प्रदान करनी चाहिए। इस प्रकार की दिव्यता पुणे योग्यताओं को रखने वाले जनप्रतिनिधि ही दलगत राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रहित की बात करने में सक्षम हो सकते हैं। यदि इस प्रकार की योग्यता निर्धारण की प्रक्रिया को अपने जनप्रतिनिधियों के संबंध में हम अपना लें तो आज की राजनीति का बहुत अधिक सीमा तक कीचड़ साफ हो सकता है। आज जब चुनाव सुधारों के साथ-साथ राजनीतिक आचार संहिता को लागू करने की बात की जा रही हैं और राजनीति में शुचिता पर बल दिया जा रहा है तब राजनीति को राष्ट्रनीति में परिवर्तित करने के लिए यह बहुत आवश्यक हो गया है कि स्वामी दयानंद जी महाराज के इस चिंतन को देश के संविधान का चिंतन घोषित किया जाए।
राकेश कुमार आर्य
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
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