धर्म के 10 लक्षण
ऐसे धर्म प्रेमी महात्मा धर्म के व्यवस्थापक और संचालक होते हैं। उनकी दिव्य दृष्टि यत्र तत्र सर्वत्र धर्म की निगरानी करती रहती है। यदि कहीं धर्म का उल्लंघन हो रहा होता है तो उसे व्यवस्थित करने में वे राजा तक को जागरूक करने का कार्य करते हैं।
मनु महाराज ने धर्म के संबंध में व्यवस्था दी है कि :-
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमत्रफ़ोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।
(सत्यार्थ प्रकाश पंचम समुल्लास)
स्वामी दयानन्द जी महाराज ने मनु महाराज के इस श्लोक की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया है कि "पहला लक्षण-(धृति) सदा धैर्य रखना। दूसरा-(क्षमा) जो कि निन्दा स्तुति मानापमान हानिलाभ आदि दुःखों में भी सहनशील रहना। तीसरा-(दम) मन को सदा धर्म में प्रवृत्त कर अधर्म से रोक देना अर्थात् अधर्म करने की इच्छा भी न उठे। चौथा-(अस्तेय) चोरी-त्याग अर्थात् विना आज्ञा वा छल कपट विश्वासघात वा किसी व्यवहार तथा वेदविरुद्ध उपदेश से परपदार्थ का ग्रहण करना चोरी और उस को छोड़ देना साहुकारी कहाती है। पांचवां-(शौच) राग-द्वेष पक्षपात छोड़ के भीतर और जल मृत्तिका मार्जन आदि से बाहर की पवित्रता रखनी। छठा-(इन्द्रियनिग्रह) अधर्माचरणों से रोक के इन्द्रियों को धर्म में ही सदा चलाना। सातवां-(धीः) मादकद्रव्य बुद्धिनाशक अन्य पदार्थ दुष्टों का संग आलस्य प्रमाद आदि को छोड़ के श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन सत्पुरुषों का संग योगाभ्यास धर्माचरण ब्रह्मचर्य आदि शुभकर्मों से बुद्धि का बढ़ाना। आठवां-(विद्या) पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त यथार्थज्ञान और उन से यथायोग्य उपकार लेना, सत्य जैसा आत्मा में वैसा मन में, जैसा मन में वैसा वाणी में, जैसा वाणी में वैसा कर्म में वर्त्तना विद्या, इससे विपरीत अविद्या है। नववां-(सत्य) जो पदार्थ जैसा हो उसको वैसा हीे समझना वैसा ही बोलना और वैसा ही करना भी। तथा दशवां-(अक्रोध) क्रोधादि दोषों को छोड़के शान्त्यादि गुणों का ग्रहण करना धर्म का लक्षण है। इस दश लक्षणयुक्त पक्षपातरहित न्यायाचरण धर्म का सेवन चारों आश्रम वाले करें और इसी वेदोक्त धर्म ही में आप चलना और दूसरों को समझा कर चलाना संन्यासियों का विशेष धर्म है।"
संन्यासियों की होती थी विशेष भूमिका
अधर्म को बढ़ावा देने वाली बातों से समाज को दूर करना और धर्म के पुण्य कार्य में लगाए रखना संन्यासी लोगों का विशेष कार्य होता था। इससे सामाजिक और वैश्विक शांति बनाए रखने में सहायता प्राप्त होती थी। यही कारण रहा कि भारत में करोड़ों वर्ष तक किसी प्रकार का सामाजिक उपद्रव या गृह युद्ध नहीं हुआ। जब संपूर्ण भूमंडल पर आर्यों का साम्राज्य था तब एक ही राजा एक स्थान से संपूर्ण पृथ्वी पर शासन कर लिया करता था। इसका कारण केवल एक होता था कि राजा चाहे किसी एक स्थान पर रहता हो पर उसके धर्माचार्य महात्माजन संसार में सर्वत्र विचरण करते रहते थे। वे शांति की चलती फिरती मशाल होते थे। उनकी दिव्यता के कारण राक्षस लोग किसी प्रकार से अशांति या उपद्रव फैलाने में सफल नहीं होते थे।
यदि कहीं पर ऐसी स्थिति आती भी थी तो राज्य शक्ति का संरक्षण उन धर्माचार्यों और महात्माओं को पूर्ण प्राप्त होता था। इनके एक संकेत पर ही राजा की सेना राक्षसों के संहार के लिए उपस्थित हो जाया करती थी। इस प्रकार उस समय का संन्यासी शक्ति संपन्न भी होता था। उसकी शक्ति दूसरे के अधिकारों का हनन करने के लिए नहीं होती थी बल्कि जनसाधारण के अधिकारों की रक्षा के लिए हुआ करती थी। जिसका वह पूर्ण विवेक से प्रयोग किया करते थे। यही कारण था कि राजा भी उन पर आंख मूंदकर भरोसा किया करता था। राजा और संन्यासी के इसी प्रकार के समन्वय से धर्म का शासन चला करता था।
संन्यासी के लिए यह आवश्यक था कि वह घूमते फिरते यदि प्रजा के लोगोंप्रजा के लोगों से अपने जीविकोपार्जन के लिए आवश्यक सामग्री लेता था या उसे गृहस्थी लोग स्वेच्छा से ऐसी सारी सुविधाएं उपलब्ध कराते थे ,जिससे उसकी जीविका आराम से चलती रहे तो उसका भी यह कर्तव्य बनता था कि वह प्रत्येक कार्य करते हुए गृहस्थियों का कल्याण करता रहे।
उसका यह कर्तव्य है कि वह प्रजाजनों को या देशवासियों को किसी भी प्रकार के पाखंड, अज्ञान, अविद्या आदि के अंधकार में फंसने न दे। यदि किसी प्रकार से भी सामाजिक कुरीतियां कहीं जन्म ले रही हैं तो उन्हें भी वह दूर करें। सामाजिक रूढ़िवादिता समाज को जकड़कर खड़ा कर देती है। उस जकड़न को आने देने से पहले ही समाप्त करना भी विद्वान संन्यासियों का ही काम होता था।
भारत के लिए यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि कालांतर में तथाकथित संन्यासियों तथाकथित व विद्वानों या पंडितों ने ही देश में रूढ़िवादिता की जकड़न को प्रोत्साहित किया। यह वह काल था जब तथाकथित पंडितों ने स्वयं ही अज्ञान और अविद्या को स्वीकार कर लिया था। भारत के इतिहास के लेखन के समय प्रत्येक जागरूक और विवेकशील इतिहासकार को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि रूढ़िवादिता, अज्ञान और अंधकार या किसी भी प्रकार का पाखंड भारत की सनातन वैदिक संस्कृति में रंचमात्र भी नहीं रहा है। इसका जन्म उस समय हुआ जब वैदिक विद्वानों का अभाव देश में हुआ । लोकशान्ति के संस्थापक, उन्नायक और प्रेरक ऐसे संन्यासियों का अभाव हो जाने पर ही भारत में रूढ़िवादिता की सामाजिक विकृति ने जन्म लिया। वास्तव में ऐसे महात्माजन राष्ट्र की अध्यात्म शक्ति अथवा सांस्कृतिक पक्ष के लोकपाल हुआ करते थे। इन लोकपालों की रक्षा व सुरक्षा के लिए राजकीय शक्ति पूर्ण सावधान व सजग रहती थी।
हमारे देश में प्राचीन काल से ही विद्वानों का सर्वत्र सत्कार होता आया है। इसका कारण केवल एक है कि वे नि:स्वार्थ भाव से लोक कल्याण के लिए समर्पित रहा करते हैं। स्वामी दयानंद जी महाराज भी इस संबंध में लिखते हैं कि जैसे ‘सम्राट्’ चक्रवर्ती राजा होता है वैसे ‘परिव्राट्’ संन्यासी होता है। प्रत्युत राजा अपने देश में वा स्वसम्बन्धियों में सत्कार पाता है और संन्यासी सर्वत्र पूजित होता है।
विद्वत्त्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।।( सत्यार्थ प्रकाश पंचम समुल्लास)
-यह चाणक्य-नीतिशास्त्र का श्लोक है।
विद्वान् और राजा की कभी तुल्यता नहीं हो सकती, क्योंकि राजा अपने राज्य ही में मान और सत्कार पाता है और विद्वान् सर्वत्र मान और प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है। इसलिये विद्या पढ़ने, सुशिक्षा लेने और बलवान् होने आदि के लिये ब्रह्मचर्य्य, सब प्रकार के उत्तम व्यवहार सिद्ध करने के अर्थ गृहस्थ; विचार ध्यान और विज्ञान बढ़ाने तपश्चर्या करने के लिये वानप्रस्थ; और वेदादि सत्यशास्त्रों का प्रचार, धर्म व्यवहार का ग्रहण और दुष्ट व्यवहार के त्याग, सत्योपदेश और सब को निःसन्देह करने आदि के लिये संन्यासाश्रम है। परन्तु जो इस संन्यास के मुख्य धर्म सत्योपदेशादि नहीं करते वे पतित और नरकगामी हैं इससे संन्यासियों को उचित है कि सदा सत्योपदेश शंकासमाधान, वेदादि सत्यशास्त्रों का अध्यापन और वेदोक्त धर्म की वृद्धि प्रयत्न से करके सब संसार की उन्नति किया करें।”
स्वामी दयानंद जी महाराज द्वारा किए गए इस अर्थ से यह स्पष्ट हो जाता है कि ढोंगी, पाखंडी या ऐसे किसी दम्भी व्यक्ति को विद्वान नहीं माना जा सकता जो संसार के लोगों को अंधविश्वासों में फंसाने वाला हो। विद्वान वही है जो लोगों को विद्या वृद्ध करने का काम करे । उन्हें पाखंड और अंधविश्वास से बचाकर सत्योपदेश करे। संसार के कल्याण के लिए प्रत्येक व्यक्ति को उसका कर्तव्य मार्ग बताए।
राकेश कुमार आर्य
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
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मुख्य संपादक, उगता भारत