वज्र जैसे शरीर वाले वो मनुष्य कहां चले गए?

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भोजन – श्रम -पाचन – ऊर्जा=यह शारीरिक बल का सामान्य सूत्र है।
एक 3 वर्षीय बैल पकड़ में नहीँ आ रहा था। पकड़ने वालों ने हाँक लगाई और बैल उधर चला गया जहाँ एक #विश्नोई महिला गाय दुह रही थी।
बैल ज्यों ही उस महिला के पास से निकला उसने बैठे बैठे ही पिछली टांग को घुटने के ऊपर कस कर पकड़ लिया…!

बैल चोँक कर अपनी पूरी ताकत से उछला..!
पर एक हाथ की उस पकड़ के सामने बिलकुल पस्त सा हो गया….!
यह होती है ताकत…!
40-40 किलो घी खाने का यह परिणाम होता है। उन्होंने न कभी फिगर की परवाह की न कैलोरी की।
मुझे याद है…..2004 के मरुमहोत्सव की घटना है।
मेले में भारतीय और विदेशी महिलाओं की #रस्साकस्सी प्रतियोगिता थी।
अनाउंसर ने घोषणा की। एक तरफ 20 विदेशी मेम थी। अनाउंसर ने ऊपर लिखी घटना का ब्यौरा देते हुए भारतीय महिलाओं का जोश बढ़ाया। इनका नेतृत्व खुद sp साहब की पत्नी कर रही थी। इनके दल में ज्यादातर बाबुओं की थुलथुल बेगमें और चन्द #कल्चरल_प्रोग्राम वाली भेंजियां थीं।
सीटी बजी….!
एसपी साहिबा की टीम पहला झटका भी सहन नहीँकर पाई और सर्रर्रर से खिसकती चली गईं….!
चूँकि ज्यादातर तमाशबीन भारतीय थे….सो मन मायूस सा हो गया…!
अंडे और चिकन की खुराक वाली फिट बॉडी की फिरँगनियो के सामने सोयातेल कहीँ नहीँ टिका…..!
कुपोषण केवल अल्प आहार को ही नहीँ कहते….!
गलत आहार भी कुपोषण है।
✍🏻केसरी सिंह सूर्यवंशी

वज्र जैसे शरीर वाले वो मनुष्य कहां चले गए? किसने तोड़ डाली सैकड़ों पीढ़ियों से 100-100 साल तक जीने वाली मानव-परंपरा की डोर? प्रो. वासुदेव शरण अग्रवाल ने 1953 में सरकार की नीति पर उठाए थे सवाल कि मिलावटी और घटिया सामग्री को बाजार में बढ़ावा देकर मनुष्य के शरीर की रक्षा कैसे कर सकेंगी सरकारें? स्मरण रहे कि प्रोफेसर वासुदेव शरण अग्रवाल भारतीय इतिहास और कला परंपरा के विश्वविख्यात आचार्य थे जिनके लेखन और शोध ने भारतीय विद्या परंपरा की कई पीढ़ियों को गहराई से प्रभावित किया था।

1953 में आचार्य वासुदेव शरण अग्रवाल ने एक आलेख लिखा था। नाम था क्षीर-गंगा। आचार्य ने एक सवाल देश के संविधानविदों और सरकारों से पूछा था कि सारे नियम-कानून तो आपने इस स्वतंत्र देश के लिए बना लिए लेकिन क्या कभी इस सवाल का उत्तर आपने खोजा और पाया है कि इस मनुष्य शरीर की रक्षा कैसे होगी?

आचार्य वासुदेव शरण अग्रवाल लिखते हैं कि-
भारत के स्वतंत्र आकाश के नीचे खड़े होकर कई बार हमने अपने मन से यह प्रश्न पूछा है कि इस देश में मनुष्य शरीर की रक्षा कैसे हो सकेगी? यह प्रश्न सब प्रकार की राजनीति के ऊपर है। सबसे अलग यह केवल मानवता का आकुल प्रश्न है। हमारे जीवन की नाव को सकुशल पार लगाने के लिए इसका उत्तर खोजा जाना परम आवश्यक है।

आलेख में आचार्य वासुदेव शरण अग्रवाल कहते हैं कि स्वतंत्र भारत में केंद्र सरकार होगी, राज्य सरकारें होंगी, न्यायपालिका और उसका कानून होगा, फौज भी होगी, पुलिस होगी, सब कुछ होगा, लेकिन फिर भी मेरा प्रश्न है कि मनुष्य शरीर को यहां कौन बचाएगा?

दरअसल प्रोफेसर वासुदेव शरण अग्रवाल की निगाहें भारतीय कृषि की बिगड़ती हालत, गौसंपदा के प्रति उपेक्षित दृष्टिकोण, मिलावटी सामानों की बढ़ती बिक्री, लोगों के स्वास्थ्य से इतर कंपनियों द्वारा घटिया माल बेच देने और बाजार में खपा देने के नित नए नुस्खों पर गड़ गई थीं। उन्होंने देख लिया कि आने वाला समय बेहद खतरनाक होगा यदि भारत ने मनुष्य के भोजन और पोषण के प्रति भारत की परंपरागत व्यवस्था की अनदेखी कर दी। वह देख रहे थे कि स्वतंत्र भारत की सरकार ग्रामों के प्रति हिकारत भरी निगाह भी ऱख रही है तो उन्होंने शासन और समाज दोनों को चेतावनी देना अपना कर्तव्य समझा। उन्होंने कहा कि सरकार अधिक अन्न उपजाओ की बात तो कह रही है लेकिन क्या केवल अन्न और वस्त्र से शरीर रूपी चोला काल के थपेड़ों के सामने ठहर सकेगा?

प्रो. अग्रवाल लिखते हैं-भारतीय जीवन में एक वस्तु थी जिसने अकेले विगत पांच हजार साल से इस देश के मानव की नस्लों को मजबूती से संभालकर रखा है। हमारे शरीर के रंग में जो चमक है, हड्डियों में जो तगड़ापन है, दिमाग के गूदे में जो चिन्तन की अपूर्व शक्ति है, तारों की तरह खिंची हुई नसों का जो लचीलापन जाल है, देरतक हल-कुदाल-फावड़ा भांजने पर भी न थकने को जो गुण है, आखिर उसका असल स्रोत क्या है? भारतीय आंखों में जो देखने की शक्ति है, नेत्रों की पुतलियों में जो तारों जैसा चमकीलापन है, दांतों में जो दृढ़ता है, कौन सा वह स्थूल पदार्थ है, जो इस शरीर में शक्ति भरता रहा है? करोड़ों स्त्री-पुरुषों के स्वस्थ शरीरों में युगों से ह्रष्ट-पुष्ट नस्ल उत्पन्न करने की जो रहस्यमयी शक्ति है, उन्हें निरंतर शक्ति से सिंचित करने वाला स्रोत कहां से आता है?
वह स्थान है-घी, दूध का अमृतकुंड। हमारे देसी गौवंश के नस्लों के थन से निरंतर बहने वाली क्षीर गंगा।

आचार्य वासुदेवश शरण लिखते हैं कि इसी क्षीर-मानसरोवर के तट पर भारतीय जीवन के महान हंसों ने मोती चुगे हैं। यदि वह सरोवर सूख गया तो प्राणों के हंसों को उड़ने में देर नहीं लगेगी। फिर लाख करने-धरने पर भी यह शरीर नहीं ठहर सकेगा। घी-दूध के अभाव में भारतीय जीवन का सारा ठाठ पड़ा रह जाएगा, यह जीवन फिर वह पुरातन निरोगी काया वाला जीवन न रह सकेगा। संभव है कि, समाज का अधिकांश भाग रोगों के थपेड़ों से जूझता हुआ ही अपना सर पटक पटक कर मरेगा और सारा तंत्र चकनाचूर हो जाएगा। स्मरण रखना कि जिन हड्डियों को तुम्हारे देश के गौवंश के दूध-घी से बचपन से नहीं सिंचा गया, वे वक्त आने पर शीघ्र गल जाएंगी। हजारों साल से भारतीय मनुष्य के शरीर में हड्डियों का मजबूत पंजर है, वह दधिचि के वज्र से बना था, तभी वह इतिहास के अति विघ्न भरे उतार-चढ़ाव में भी नहीं लड़खड़ाया और बड़े बड़े धक्कों को झेलकर बचा रह गया। कितने ही बवंडर आए लेकिन समाज को हरियाली देने वाला घी-दूध का स्रोत कभी नहीं सूखा। किन्तु आज स्वतंत्र भारत में सब चीजों पर तो ध्यान है, किन्तु शुद्ध घी-दूध-मक्खन के ही लाले पड़ गए हैं।

दूध-घी देहाती जीवन का सबसे बड़ा घरेलू धंधा था।…आज देहात है, और घी भी बनता है, पर इस आधुनिक वनस्पति घी के दावानल ने देसी घी के घरेलू धंधे को झुलसाकर चौपट कर डाला है। आज तो सच्चे भोले-भाले ग्रामीण जन को नीयत डोल गई है। हमारे देसी शुद्ध घी के अमृत घट में इस नए वनस्पति घी का विष घोला जा रहा है। सत्य के साथ अनृत अर्थात पाप का मेल हो रहा है। क्या ही अच्छा होता कि यदि किसी प्रकार हम शुद्ध देसी घी की रक्षा कर पाते, यदि जीवन और मृत्यु के इस संकट को हम रोक सकते? यदि समय रहते इसकी चिंता न की गई तो बाजारों में शुद्ध देसी घी की जगह यही वनस्पति घी मिलेगा, पर उसमें वह जीवन दायिनी शक्ति नहीं होगी, हमारे नेत्र रहेंगे पर उनमें देखने की वह शक्ति नहीं होगी और स्त्री-पुरुषों के शरीर-पिंड रहेंगे, पर उनमें प्रचंड शक्ति का अभाव सा होता जाएगा, जो उन्हें सदैव स्वस्थ और शतायु करेगा। इस देश में विधाता ने इतने प्रकार के रंग बनाए हैं, क्या कोई ऐसी युक्ति नहीं है जिससे सच्चा घी, इस नामधारी घी से अलग पहिचाना जा सके?

भारतीय जनपदों में गर्वीले जवान थे, जिनके सजीले शरीरों में बसे हुए रूप को देखकर आंखें भी अपने को धन्य मानती थीं। उन कांतिमान शरीरों को हम खोते जा रहे हैं। हमने साठा-पाठा बुजुर्गों को देखा है और उनकी मुख तक सराबोर तर घी पीने की कितनी ही कहानियां सुनी और देखी हैं। लेकिन आज मुंहछुट्ठ यानी केवल मुंह को छुने भर का घी कौन करे, देवता की ज्योति के लिए भी असली घी नहीं मिल रहा है। बाजार से गायब हो गया दिखता है। हमें बचपन का स्मरण है कि जब जाड़ों में रवेदार बर्फी की तरह जमे हुए अत्यंत स्वादिष्ट घी के पीपे जब खुलते थे, उनकी महक सूंघकर, उन्हें देखकर चित्त प्रसन्न हो जाता था। आज हतभाग्य हैं हम कि उसे देखने भर के लिए तरस गए हैं। क्या इसी दिन के लिए स्वतंत्रता मिली है?

प्रो.अग्रवाल 1953 में दिल्ली में देसी गाय के दूध के मुद्दे पर लिखते हैं कि बहुत प्रयत्न और परेशानी के बाद भी यह संभव नहीं हो पा रहा है कि दिल्ली जैसे बड़े शहर में शुद्ध घी मिल जाए। पास में पैसा है लेकिन बाजार में शुद्ध घी ही नहीं है। मनुष्य क्या करेगा, ये पैसा चबाया और खाया तो नहीं जा सकता। दिल्ली नगरी की जो अधिष्ठात्री देवी हैं, उसे अपने लाखों नर-नारियों की चिंता रहती है। जबतक घी-दूध की धारा उसकी यमुना के साथ बहती रही, तब तक वह निश्चिंत थी। लेकिन आज दिल्ली की देवी के भाल पर चिंता की गहरी लकीरें हैं। उसकी समझ में नहीं आ रहा है कि वह क्या करे? कैसे इस इलाके में अपने लोगों की प्राणशक्ति की ढीली पड़ती हुई कीली को फिर से दृढ़ करे? आज जो दिल्ली की चिंता है, वह सभी नगरों और जनपदों की अधिष्ठात्री देवियों की व्याकुलता का कारण है। यदि दिल्ली समेत भारत के ग्राम-नगरों के समीप शुद्ध घी-दूध का भंडार टूट गया तो निश्चित है कि भविष्य में भारत के नर-देह की टूटती हुई रीढ़ को फिर कोई भी नहीं बचा सकेगा।

इस विशाल देश में प्राचीन काल से घी-दूध की महान क्षीर-गंगा बहती रही है। करोड़ों मन दूध नित्य देश के संपूर्ण मानस को तृप्त करता था। वही श्वेत अमृत मनुष्यों और पशुओं तक की देह को नई प्राणशक्ति प्रदान करता था। बच्चों के लिए तो वह जीवन का महान वरदान था। भारतीय मनुष्य की नस्ल वहीं से जीवन-रस चूसती थी। वह कौन सा भारतीय है-जिसने इस महान क्षीर-गंगा में गोता नहीं लगाया। बीते पांच हजार साल में ढाई सौ से अधिक पीढ़ियों के भारतीय बच्चे इसी दूध-गंगा के तट पर हंसते हुए बड़े हुए। इस क्षीर-गंगा को अमर रखने वाली महान दुधारु नस्ल वाली गौएं अर्थात पयस्विनी कामधेनुएं हमारे पास थीं।…इस देश में जीवन पद्धति का जो रूप विकसित हुआ, जिसे हम संस्कृति कहते हैं, उसका झंडा सदा के लिए क्षीर सागर के तट पर फहराया गया। यह इस देश के जीवन का तथ्य है, कोरी कल्पना नहीं। किन्तु आज उस भारतीय क्षीर-गंगा में उस दूध का मंगल दिखाई नहीं देता। पांच हजार सालों से जिस दूध में श्री-लक्ष्मी का वास था, दुर्भाग्य से उसका दर्शन अब दूध से ओझल हो रहा है।

स्थूल मनुष्य शरीर को न दर्शन के मतवाद चाहिए, न राजनीति के नारे और वाद, उसे टिकाऊ तर माल चाहिए जो उसके शरीर को सभी रोगों से लड़ने की मजबूत क्षमता प्रदान करें। बिना घी-दूध के स्नेह के यह पिंड नहीं टिक सकेगा, घी-दूध के अभाव में यह नर चोला एक दिन असमय ही साथ छोड़ जाएगा। जिस दिन भारत के हरे-भरे मैदानों में ब्रह्मा जी ने नर-देह रचकर तैयार की थी, उसी समय बैरी यक्ष्मा( कीटाणु) ने इस नर-देह को समाप्त करना चाहा था। लेकिन जब इस यक्ष्मा(कीटाणु) ने भारत के घरों में घी-दूध के भरे कुंडों को देखा तो फिर उसने अपना रास्ता बदल लिया, हमारे घरों के पास वह कभी फटक भी नहीं पाया। तभी हमारे गौ-नस्लों के दूध को देखकर यक्ष्मा के यक्ष छूमंतर हो गए थे।

घी-दूध की मधुर लय भारतीय सुर-ताल की लय बन गई। भारत के खुले आकाश के नीचे सर्दी-गर्मी सहते जिन घास-फूस के छप्परों में पांच हजार साल से ढाई सौ पीढ़ियां सौ-सौ बरस तक जीवित रहीं हैं, वे शरीर इसी गौ रूपी क्षीर-गंगा के तट पर निर्मित हुए थे। उनके घरों में दूध-घी का पूर्ण कुंभ पधराया हुआ था और उनमें मनुष्यों के तरुण कुमारों के साथ गायों के कलोर बछड़े भी जीवन के नवमंगल के पूर्ण साझीदार थे। फेनिल दूध के मटके और चक्का दही के हंडे गृहस्थी की गाड़ी में एक साथ लदे रहते थे। पुर और जनपदों में पनपने वाले भारतीय जीवन के ये सच्चे चित्र हैं, जिनके रंग अभी कल तक चटकीले थे, पर आज स्वतंत्रता के पर्व पर देखते-देखते फीके पड़ते जा रहे हैं। क्या इनकी रक्षा का कोई उपाय नहीं है। किं करोमि क्व गच्छामि, क्या करूं, किससे कहूं और कहां जाऊं, कहने वाली उस दुखिया कन्या का स्वर जैसे आज मेरा स्वर है।

ईश्वर की कृपा से देश का चिरसंचित पुण्य-काल स्वराज्य के रूप में सामने आया है। गोधन के विषय में भी जनता का दृष्टिकोण व्यापक हुआ है। देसी गौवंश की रक्षा, उसकी नस्ल का सुधार, चारागाह भूमि का विकास, पोषणयुक्त गौचारे की व्यवस्था और घी-दूध समेत सभी खाने-पीने की चीजों में मिलावट का अभाव-इस चतुर्विध कार्यक्रम से इस राष्ट्र के समस्त जनों के स्थूल शरीर की रक्षा का उपाय हो सकता है।
डूबती हुई नाव को उबारने में जितना परिश्रम करना पड़ता है, उससे कहीं अधिक परिश्रम और बुद्धि का सदुपयोग दूध की गंगा को फिर से भारतीय भूतल पर लाने के लिए करना पड़ेगा। ग्राम के बुजुर्गों से यह सुना जाता है कि इंद्र के यज्ञ का उत्सव मनाते समय सारे ग्राम जन को दूध की धार से सींचने की आवश्यकता होती है। गो-रस ही भारतीय भोजन का सार-तत्व है। गो-रस के बिना इस देश का जीवन ठठरी हुआ जा रहा है। गो-रस मिलेगा तभी जीवन भारत में पनपता रहेगा। नहीं तो एक य़क्ष्म (कीटाणु) हम सबकी ओर सदैव टकटकी लगाए है। उसी टेढ़ी-मेढ़ी खतरनाक आंखों से बचने का एकमात्र उपाय यही है कि दूध की धार से हम अपनी बस्तियों, मोहल्लों को सीचें, घी के पूर्ण कुंभ को अपने घरों में पधरावें और जीवन की कल्याणमयी गौ-देवी का दुग्धाधारिणी मुद्रा में फिर से दर्शन करें।
✍🏻आदरणीय प्रो. राकेश उपाध्याय जी।।

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