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कविता

मौत झोली लिए घूम रही है….

मौत झोली लिए घूम रही है

मृत्यु उस बंदर की तरह है
जो एक मक्के के खेत में घुस जाने पर
नए-नए भुट्टे तोड़ता जाता है,
और बगल में लगाता जाता है।
अफसोस कि
बंदर जैसे ही दूसरा भुट्टा
अपनी बगल में लगाता है,
पहला बगल से गिरता जाता है,
बंदर सारा खेत समाप्त कर डालता है।
सारे खेत में तांडव मचा कर भी
उसे कुछ नहीं मिलता
उसकी भूख यथावत बनी रह जाती है।
मौत भी इसी तरह धरती रूपी खेत पर
मानव रूपी भुट्टे तोड़ती जाती है
और बगल में देती जाती है ,
पहले वाला भुट्टा गिरता जाता है
दूसरा नया स्थान लेता जाता है ।
बचपन में कभी मां कहा करती थी
कि मौत झोली लिए घूम रही है,
बहुतों को उठा ले गई
तब तो विश्वास नहीं होता था
कि मौत भी झोली लिए कैसे घूम सकती है ?
पर अब
जब अपने आसपास के
अनेक चेहरों को याद करते हैं
तो पता चलता है कि वह सब
मौत की झोली में ही तो चले गए
मां सही कहती थी,
मौत कब आई कहां से ले गई
कुछ पता ही नहीं चला।
सावधान ,!
हम सब की ओर मौत नहीं आ रही है
बल्कि हम ही मौत की ओर जा रहे हैं,
हम सब एक पंक्ति बनाए खड़े हैं
समय आने पर हम गाड़ी के अंदर होंगे
और ले लेंगे सबसे विदा
दु:ख इस बात का है कि
गाड़ी में बैठकर जाएंगे कहां?
इसका हमको नहीं पता ।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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