सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विर्मश ( एक से सातवें समुल्लास के आधार पर) अध्याय – 11 क वानप्रस्थी, संन्यासी और भारतीय समाज
वानप्रस्थी, संन्यासी और भारतीय समाज
भारत की प्राचीन सामाजिक व्यवस्था इतनी सुदृढ़, सुंदर और सुव्यवस्थित थी कि उसके आधार पर आज तक संसार की गाड़ी चल रही है, अर्थात समस्त संसार का सामाजिक ढांचा यदि आज भी काम कर रहा है तो समझिए कि वैदिक संस्कृति द्वारा रखी गई आधारशिला पर ही यह ढांचा खड़ा रहकर अपना काम कर रहा है। यद्यपि आज की वैश्विक सामाजिक व्यवस्था बहुत अधिक अस्त व्यस्त हो चुकी है। भारत ने ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और उसके पश्चात सन्यास आश्रम की व्यवस्था को सामाजिक व्यवस्था की रीढ़ माना। इस आश्रम व्यवस्था को यद्यपि भारत के बाहर के लगभग सभी देशों ने पूर्णतया विस्मृत कर दिया है परंतु इसके उपरांत भी जीर्ण शीर्ण अवस्था में यही व्यवस्था समस्त संसार में कार्य कर रही है। इसके लिए हमें बिल्कुल वैसे ही सोचना समझना चाहिए जैसे कोई मानचित्र छोटे-छोटे टुकड़ों में फाड़ कर फेंक दिया जाए और फिर उसे जोड़कर देखने का प्रयास किया जाए। बहुत अधिक प्रयास के पश्चात जैसे उस मानचित्र को जोड़कर उसको पुनर्जीवन दिया जा सकता है वैसे ही यत्र तत्र बिखरे अवशेषों को जोड़कर भारतीय संस्कृति की वैश्विक मान्यता को पुनः स्थापित किया जा सकता है।
यह व्यवस्था आश्रम व्यवस्था के अतिरिक्त ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की वर्ण व्यवस्था के आधार पर आधारित रही है। इस व्यवस्था से अलग कोई ऐसी विषम व्यवस्था आज के तथाकथित वैदिक विद्वान भी नहीं स्थापित कर पाए हैं, जो इससे उत्कृष्ट हो। आश्रम व्यवस्था में ब्रह्मचर्य से सन्यास आश्रम पर्यंत श्रम ही श्रम का विधान किया गया था। जैसी जिसकी अवस्था थी वैसा वैसा ही श्रम उसके लिए अनिवार्य किया गया। जैसे ब्रह्मचर्य आश्रम में शक्ति संचय और विद्याध्ययन का श्रम था। इसके बाद गृहस्थाश्रम के अंतर्गत आने वाले श्रम के विषय में लिखने की तो आवश्यकता ही नहीं। तत्पश्चात वानप्रस्थ आश्रम में व्यक्ति गुणात्मक रूप से अपने भीतर परिवर्तन करता था, फिर से ज्ञान और शक्ति का संचय कर समाज के लिए तैयार होता था। उसके उपरांत संन्यास आश्रम में अपने ज्ञान और अनुभव को समाज के लिए बांटता था। जिससे आने वाली पीढ़ियों को लाभ मिलता था।
आश्रम व्यवस्था पर स्वामी जी के विचार
महर्षि दयानंद जी महाराज इस संबंध में सत्यार्थ प्रकाश के पंचम समुल्लास में सप्रमाण लिखते हैं कि :-
ब्रह्मचर्याश्रमं समाप्य गृही भवेत् गृही भूत्वा वनी भवेद्वनी भूत्वा प्रव्रजेत्।। -शत० कां०। 14।।
मनुष्यों को उचित है कि ब्रह्मचर्य्याश्रम को समाप्त करके गृहस्थ होकर वानप्रस्थ और वानप्रस्थ होके संन्यासी होवें अर्थात् अनुक्रम से आश्रम का विधान है।
हमारे ऋषियों की यह व्यवस्था रही कि पहले तीन आश्रम भोगकर चौथे संन्यास आश्रम के लिए व्यक्ति को वनों में वास करना चाहिए । वनों में वास करने के कई लाभ हैं । एक तो यह कि व्यक्ति घरेलू वाद-विवाद कलह व क्लेश से अपने आपको बचा लेता है। चौबीसों घंटे के तनाव और आस-पड़ोस के लोगों की चुगलियां या सामाजिक संबंधों में उतार-चढ़ाव के कारण बढ़े ईर्ष्या, घृणा और द्वेष के भाव – यह सब ऐसी चीजें हैं जो व्यक्ति को गृहस्थ में रहकर प्रभु से प्रीति नहीं करने देती। वह चाहता तो है कि उसका संबंध अब केवल और केवल परमपिता परमेश्वर के साथ ही रहे, अन्य लोगों से उसकी दूरी बन जाए परंतु यथार्थ में वह ऐसा कर नहीं पाता।
इसका कारण केवल एक है कि संसार से वह अपने आपको दूर नहीं कर पाता और संसार उसे दूर नहीं होने देता। वन में जाकर व्यक्ति प्रकृति के सानिध्य में रहकर निश्छल भाव को प्राप्त होता है। क्योंकि पेड़, पौधे, वनस्पति, फूल ,जल, नदी की कलकल, चिड़ियों की चहचाहट आदि सब में ही निश्छलता होती है। उस निश्छलता को व्यक्ति संसार के कोलाहल की अपेक्षा अपने ह्रदय की प्रभु मिलन की चाह के बहुत अधिक अनुकूल पाता है। जिससे वह वन में रहकर अपने लक्ष्य की यथाशीघ्र सिद्धि कर पाने में सफल होता है। बहुत पहले एक महात्मा ( फरीदाबाद निवासी श्री शांतानंद जी महाराज ) मुझसे कह रहे थे कि बेटा जो बन में गया सो बन गया और जो घर में गया सो घिर गया।
आज के समाज की सच्चाई
अपने – अपने लिए करना स्वार्थ की पराकाष्ठा है। संसार में मनुष्य अपने लिए ही सब कुछ करने के लिए नहीं आया, वरन संसार के लिए भी वह उपयोगी हो सके, इसका भी उसे प्रयास करना चाहिए। वास्तव में जीवन की सार्थकता संसार के लिए उपयोगी बन जाने में ही है। आज संसार में संबंधों में बढ़ते तनाव और हर व्यक्ति के द्वारा अपने आप को अकेला अनुभव करने का एकमात्र कारण यही है कि वह संसार के लिए नहीं जीता। वह तथाकथित अपनों के लिए जीता रहता है। यह तथाकथित अपने जब अंत में जूते मारते हैं तो जिनको कभी अपना समझा नहीं उनके पास जा नहीं सकता और अपने गले लगाते नहीं तो व्यक्ति घुट – घुटकर मरने के लिए अभिशप्त हो जाता है। आज के तथाकथित सभ्य समाज की यही सच्चाई है।
आज के पतन के गर्त में पड़े मानव की इस अथमावस्था का एक ही कारण है कि वह वन की ओर जाना नहीं चाहता और गृहस्थ की दलदल से निकलना नहीं चाहता। यदि निकलने का प्रयास भी करता है तो इसमें और नीचे को धंसता चला जाता है।
राकेश कुमार आर्य
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
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मुख्य संपादक, उगता भारत