सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विर्मश ( एक से सातवें समुल्लास के आधार पर) अध्याय – 10 क धर्म अधर्म और नियोग


धर्म अधर्म और नियोग

संसार में एक से बढ़कर एक अत्याचारी शासक हुआ है। यदि बात इस्लाम के मानने वाले शासकों की करें तो वह तो भारत पर लुटेरे बनकर गिद्धों के दल के रूप में टूटे थे। जिन्होंने भारत के धन के साथ साथ उसकी अस्मिता को भी लूटा था। उनकी इस लूट के पीछे दीन की सेवा करना तो एक उद्देश्य था ही, साथ ही उनकी यह अज्ञानता भी एक प्रमुख कारण थी कि ऐसा करने से वे पीढ़ियों तक सुख समृद्धि से अपना जीवन यापन कर सकेंगे। इसे अज्ञान की पराकाष्ठा ही कहेंगे कि उन्होंने अपनी आने वाली अनेक पीढियों को मालामाल करने के लिए अपने आप को लुटेरा कहलवाना पसंद किया । अपने आप को पाप में डुबाया।उनके इस पापपूर्ण कृत्य को इतिहास ने वंदनीय कहकर उसका अभिनंदन किया ।

जन्नत का आकर्षण और मुस्लिम समाज

इस्लाम को मानने वाले लोगों ने हिंदुओं को मारकर गाजी पद प्राप्त करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर भी हिंदुस्तान में आकर हिंदुओं पर अनेक प्रकार के अत्याचार किए। उनकी मान्यता थी कि यदि गाजी पद प्राप्त करके संसार से जाएंगे तो खुदा के यहां जन्नत में 72 – 72 हूरें मिलेंगी। इस प्रकार दुनिया में रहकर तो मौजमस्ती करेंगे ही दुनिया से जाने के बाद खुदा के यहां भी मौजमस्ती का ही आलम होगा। वास्तव में सांसारिक मौज-मस्ती संसार के लोगों का बहुत बड़ा आकर्षण होती है। यदि किसी कार्य से इस संसार की और मृत्यु के पश्चात के संसार की मौज मस्ती मिलना निश्चित हो जाए तो उसे करने के लिए मनुष्य बहुत अधिक शीघ्रता से दौड़ता है। मनुष्य की ऐसी दुर्बलता का लाभ उठाते हुए इस्लाम में यह व्यवस्था कर दी गई कि यदि वे मौज मस्ती की दुनिया को पाना चाहते हैं तो इसके लिए बस एक ही काम पर्याप्त है कि वे गाजी बन जाएं।
भारत के इतिहास की यह विडंबना ही है कि उसने दंडनीय को अभिनंदनीय मान लिया। इतिहास के इस विपरीत आचरण के कारण संसार में लूटमार की प्रवृत्ति बढ़ी । लोगों ने जब देखा कि लुटेरे गिद्धों को भी संसार के लोग पूजनीय कहकर उनका सम्मान करते हैं और इतिहास में उनका वंदन होता है तो लूटमार ,हत्या, डकैती और बलात्कार की मानवीय दुष्प्रवृत्तियों में वृद्धि होती चली गई। आज संसार में यदि दुष्प्रवृतियों के चलते सर्वत्र कोलाहल और अशांति व्याप्त दिखाई दे रही है तो यह इतिहास के उस विपरीत आचरण का फल है जिसके चलते उसने पापियों का वंदन करना अपना धर्म स्वीकार किया। जब धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म मान लिया जाता है तो ऐसी ही स्थिति उत्पन्न होती है। वास्तव में ऐसी अवस्था मनुष्य के घोर पतन की सूचक होती है।
महर्षि दयानंद जी महाराज अपने इतिहास दर्शन के माध्यम से सत्यार्थ प्रकाश के पंचम समुल्लास में हमें बताते हैं कि :-

एकः पापानि कुरुते फलं भुङ्क्ते महाजनः।
भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्त्ता दोषेण लिप्यते।।४।।

अर्थात “कुटुम्ब में एक पुरुष पाप करके पदार्थ लाता है और महाजन अर्थात् कुटुम्ब उस को भोक्ता है। भोगनेवाले दोषभागी नहीं होते किन्तु अधर्म का कर्त्ता ही दोष का भागी होता है।”

वैदिक धर्म की श्रेष्ठता

सत्यार्थ प्रकाश के चौथे समुल्लास में महर्षि दयानंद जी इस व्यवस्था के माध्यम से हमारी आंखें खोलते हैं कि – ऐ संसार के लोगो ! कभी दूसरों को इसलिए कष्ट मत देना कि उसके कष्ट तुम्हें पार उतार देंगे , किसी के धन संपत्ति पर इसलिए लूटने की दृष्टि मत रखना कि ऐसी लूट से तुम्हारा बेड़ा पार हो जाएगा और तुम्हारे ऊपर सुखों की वर्षा होने लगेगी। इसके विपरीत याद रखना कि यदि ऐसे धन को लाकर तुमने सुखों की कामना की तो इससे तुम स्वयं भी डूबोगे और तुम्हारा वंश भी डूबेगा। क्योंकि ऐसी कमाई के साथ लोगों की तुम्हारे अनिष्ट होने की अशुभकामनाएं भी तुम्हारे घर में प्रवेश करती हैं।
वैदिक हिंदू धर्म से इतर संसार के जितने भर भी मत, पंथ या संप्रदाय हैं उन्होंने एक दूसरे को नीचा दिखाने और एक दूसरे का धनमाल लूटने में विश्वास किया। जिससे संसार की मर्यादा छिन्न भिन्न हो गई। बड़ी कठिनाई और त्याग तपस्या के पश्चात संसार को सुव्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए वैदिक धर्मावलंबी ऋषियों ने जिन मर्यादाओं को बड़े जतन से स्थापित किया था उन्हें ईसाई मत के मानने वाले और इस्लाम के मानने वाले लोगों ने अपनी निर्मम तलवारों के बल से समाप्त करने का हर संभव प्रयास किया।
इतिहास के इस दर्शन को समझकर कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे के धन को लूटने या किसी के साथ लूटमार, हत्या, डकैती या बलात्कार की अमानवीय भावनाओं को अपना ही नहीं सकता। जब ऐसी पवित्र भावना मनुष्य के हृदय में वास करने लगती है तो संसार में सर्वत्र शांति ,सहयोग और सद्भाव का सृजन होता है। सब सबके अधिकारों का सम्मान करने के अभ्यासी हो जाते हैं। यही आर्यों की परंपरा है। यही आर्यों का इतिहास दर्शन है कि कोई भी किसी के भी अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करेगा। हमारे पूर्वज धर्म को साक्षी मानकर धर्म के अनुकूल जीवन यापन करते थे। वह धर्म में जन्मते थे, धर्म में ही उनका पालन पोषण होता था और धर्म में ही उनकी मृत्यु होती थी। कहने का अभिप्राय है कि हमारे ऋषि पूर्वजों का संपूर्ण जीवन धर्म से शासित होता था।
जब समाज और राष्ट्र धर्म से शासित अनुशासित होने लगता है तो सब पाप से भी डरहैं और उसके फल से भी डरते हैं। पाप से और उसके फल से डरकर जब कार्य किया जाता है तो मनुष्य पुण्य कार्य में अपने आपको लगाए रखता है।

इस संदर्भ में महर्षि दयानंद आगे कहते हैं कि :-

तस्माद्धर्मं सहायार्थं नित्यं सञ्चिनुयाच्छनैः।
धर्म्मेण ही सहायेन तमस्तरति दुस्तरम्।।
धर्मप्रधानं पुरुषं तपसा हतकिल्विषम्।
परलोकं नयत्याशु भास्वतं खशरीरिणम्।। मनु०।।

“उस हेतु से परलोक अर्थात् परजन्म में सुख और इस जन्म के सहायतार्थ नित्य धर्म का सञ्चय धीरे-धीरे करता जाय क्योंकि धर्म ही के सहाय से बड़े-बड़े  दुस्तर दुःखसागर को जीव तर सकता है।”
किसी कवि ने कहा है कि :-

अगर भवबंधन मुक्ति चाहता
जोड़ प्रभु भक्ति भलाई से नाता।

ऊपर दिए गए दूसरे से श्लोक का अर्थ करते हुए स्वामी जी लिखते हैं कि “किन्तु जो पुरुष धर्म ही को प्रधान समझता है जिस का धर्म के अनुष्ठान से कर्त्तव्य पाप दूर हो गया उस को प्रकाशस्वरूप और आकाश जिस का शरीरवत् है उस परलोक अर्थात् परमदर्शनीय परमात्मा को धर्म ही शीघ्र प्राप्त कराता है।”

हुआ है धर्म के साथ अन्याय

धर्म भवबंधन से तारता है और जीवन को साधता है। धर्म की पवित्रता को भंग करना समझो अपने आपको भवबंधन के गर्त में धकेलना है। जिन लोगों ने इतिहास में मजहबपरस्ती अथवा सांप्रदायिकता को धर्म के अनुकूल समझा या बताया है, उन्होंने धर्म जैसे पवित्र शब्द के साथ बहुत अन्याय किया है। भारत में विदेशी शासकों ने सांप्रदायिक दृष्टिकोण के आधार पर शासन किया। उनके संप्रदाय को लोगों ने भारत के धर्म शब्द के अनुकूल समझा और स्थापित किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि लोगों ने धर्म को ही अफीम कहना आरंभ कर दिया।
कम्युनिस्टों की ओर से आई इस प्रकार की विचारधारा के चलते संप्रदाय जैसे भेड़िया के कारण धर्म को अपयश का भागी बनना पड़ा। यदि राजनीति में भी धर्म और भारतीय ऋषियों के चिंतन के अनुकूल धर्म राजनीति का मार्गदर्शन कर रहा होता तो संसार में मजहब के नाम पर किए गए अत्याचारों से विश्व इतिहास भरा न होता।
स्वामी दयानंद जी महाराज धर्म को मानवता की धुरी मानते थे। वे इस धुरी के इर्द-गिर्द सारी व्यवस्था को चलाने के समर्थक थे अर्थात धर्म सारी व्यवस्था का केंद्र बने और उस केंद्र
से सारी व्यवस्था ऊर्जा प्राप्त करे, यह उनका सपना था।

राकेश कुमार आर्य

मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
प्रकाशक का दूरभाष नंबर : 011 – 407122000।

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