सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विर्मश ( एक से सातवें समुल्लास के आधार पर) अध्याय 9 ख , हमारा क्रोध होता था सात्विक
हमारा क्रोध होता था सात्विक
हमें यह भी समझना चाहिए कि हमारे क्षत्रिय लोग अज्ञानी या अशिक्षित नहीं होते थे। वेदादि शास्त्रें का पढ़ना तथा पढ़ाना और विषयों में न फंस कर जितेन्द्रिय रह के सदा शरीर और आत्मा से बलवान् रहना उनके स्वभाव में सम्मिलित था । यही उनका धर्म था। अपने धर्म के निर्वाह में वह तनिक भी प्रमाद नहीं करते थे। इसलिए शत्रु उनके सामने आने से पहले एक बार नहीं दस बार सोचता था। हमारे वीर क्षत्रिय योद्धा सैकड़ों सहस्रों से भी युद्ध करने में अकेले को भय का अनुभव नहीं होने देते थे । उनके भीतर सात्विकता का भाव भरा होता था। इसलिए उनका क्रोध भी सात्विक होता था। जो उनके शरीर को कांपने नहीं देता था। वे निश्चिंत मना रहकर युद्ध के क्षेत्र में भी निर्णय लेने की क्षमता रखते थे। इसका कारण केवल एक था कि उन्हें क्रोध अंधा करके पागल नहीं करता था।
हमारे क्षत्रिय योद्धा जितेंद्रिय होते थे ,इसलिए उनके क्रोध में किसी असहाय, अबला, वृद्ध या किसी बालक के प्रति क्रूरता दिखाने का भाव दूर-दूर तक भी नहीं होता था। जबकि विदेशी आक्रमणकारियों के भीतर ऐसे दुष्टता के भाव भरे होते थे, जिन्हें देखकर राक्षस भी लज्जित हो सकते हैं। सदा तेजस्वी अर्थात् दीनतारहित प्रगल्भ दृढ़ रहना, धैर्यवान् होना, राजा और प्रजासम्बन्धी व्यवहार और सब शास्त्रों में अति चतुर होना – अपने इन दिव्य गुणों से हमारे क्षत्रिय योद्धा दिव्य राष्ट्र का निर्माण करते थे।
शत्रु को धोखा देकर भी विजय प्राप्त करो
हमने अपने इतिहास नायकों को अक्सर देखा है कि वह विदेशी शत्रुओं को धोखा देकर युद्ध जीतने में विश्वास नहीं करते थे । सावरकर जी ने हमारे राजाओं के इस गुण को उनकी सद्गुण विकृति कहा है । महर्षि दयानंद सत्यार्थ प्रकाश में इस सद्गुण विकृति का भी निराकरण करते हैं। वे कहते हैं कि दुष्ट प्रवृत्ति के शत्रु के साथ यदि धोखा देकर भी विजय प्राप्त की जा सकती है तो उसे प्राप्त करने में कोई बुराई नहीं है। इसका कारण केवल एक है कि दुष्ट शत्रु को धोखा देकर विजय प्राप्त करने में तो थोड़ी देर का कष्ट है, पर यदि वह किसी प्रकार युद्ध में सफल हो गया और विजय श्री उसको प्राप्त हो गई तो उसके पश्चात वह हमको जो कष्ट देगा वह अत्यंत कष्टकर होगा। इसी प्रकार के कष्ट हमको विदेशी आक्रमणकारियों के शासनकाल में मिलते रहे हैं । महर्षि दयानंद जी महाराज ने इतिहास के इस भयंकर रोग को समझा और आर्य जाति को सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से समझाया कि वह किसी प्रकार की सद्गुण विकृति का शिकार ना हो । शत्रु को शत्रु समझ कर येन केन प्रकारेण उसे पराजित करना ही अपना धर्म समझे। अपनी किसी सद्गुण विकृति के कारण शत्रु को विजयी होने का अवसर देना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के समान है। शत्रु के समक्ष किसी भी प्रकार का प्रमाण बरतना आत्मघाती होता है।
सामाजिक व्यवस्था और स्वामी दयानंद
स्वामी ज्ञानानंद जी महाराज ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा को बहुमुखी चिंतन से अत्यधिक पैना कर लिया था। अनेक प्रकार के सद ग्रंथों का अध्ययन करने के उपरांत उनकी बुद्धि बहुत ही पवित्र हो चुकी थी । यही कारण था कि उन्होंने प्रत्येक क्षेत्र में हुई भारत की पतितावस्था को गहराई से समझा और उन पर अपने ग्रंथों के माध्यम से महान चिंतन प्रस्तुत किया। यही कारण है कि महर्षि दयानंद जी महाराज सामाजिक व्यवस्था को सुव्यवस्थित बनाए रखने के लिए वैश्यों के भी कर्म निश्चित करते हैं। मनु महाराज के माध्यम से स्वामी जी महाराज लिखते हैं कि
“(पशुरक्षा) गाय आदि पशुओं का पालन-वर्द्धन करना (दान) विद्या धर्म की वृद्धि करने कराने के लिये धनादि का व्यय करना (इज्या) अग्निहोत्रदि यज्ञों का करना (अध्ययन) वेदादि शास्त्रें का पढ़ना (वणिक्पथ) सब प्रकार के व्यापार करना (कुसीद) एक सैकड़े में चार, छः, आठ, बारह, सोलह, वा बीस आनों से अधिक ब्याज और मूल से दूना अर्थात् एक रुपया दिया तो सौ वर्ष में भी दो रुपये से अधिक न लेना और न देना (कृषि) खेती करना। ये वैश्य के गुण कर्म हैं।”
हमारे प्राचीन भारतीय समाज में कई प्रकार के विवाहों का प्रचलन था। जिनका वर्णन करते हुए महर्षि दयानंद ने लिखा है कि इन विवाहों की यह व्यवस्था है कि-वर कन्या दोनों यथावत् ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्वान्, धार्मिक और सुशील हों । उन का परस्पर प्रसन्नता से विवाह होना ‘ब्राह्म’ कहाता है। विस्तृतयज्ञ करने में ऋत्विक् कर्म करते हुए जामाता को अलंकारयुक्त कन्या का देना ‘दैव’। वर से कुछ लेके विवाह होना ‘आर्ष’। दोनों का विवाह धर्म की वृद्धि के अर्थ होना ‘प्राजापत्य’ । वर और कन्या को कुछ देके विवाह ‘आसुर’। अनियम, असमय किसी कारण से वर-कन्या का इच्छापूर्वक परस्पर संयोग होना ‘गान्धर्व’। लड़ाई करके बलात्कार अर्थात् छीन, झपट वा कपट से कन्या का ग्रहण करना ‘राक्षस’। शयन वा मद्यादि पी हुई पागल कन्या से बलात्कार संयोग करना ‘पैशाच’।”
भारत की विवाह प्रणाली बनाम मुगलों की विवाह प्रणाली
विवाहों की इस परंपरा से हमें पता चलता है कि मुगलों के समय में जिस प्रकार मुगल शासक अपने विवाह करते रहे वे विवाह की परिभाषा में नहीं आते। इसके उपरांत भी इतिहास में उनके अनेक विवाहों को विवाह के रूप में महिमामंडित किया गया है। जबकि वह सारे विवाह विवाह न होकर गांधर्व ,राक्षस या पैशाच विवाह की श्रेणी में आते हैं।
वर्तमान इतिहासकारों को भारत के प्राचीन आर्यों की इस विवाह परंपरा और महर्षि दयानंद जी के सत्यार्थ प्रकाश से प्रेरणा लेनी चाहिए । मुगलों या किसी भी व्यभिचारी शासक के द्वारा एक से अधिक किए गए विवाहों को वह निश्चित करें कि वह विवाह कौन सी श्रेणी का था ? यदि इस दृष्टिकोण से देखा जाएगा तो पृथ्वीराज चौहान जैसे शासक भी आलोचना के पात्र बनेंगे। क्योंकि उसने एक से अधिक राक्षस विवाह किए थे। पृथ्वीराज चौहान को उसके द्वारा किए गए एक से अधिक विवाहों के लिए इसलिए छूट नहीं दी जा सकती कि वह हिंदू शासक था।
उसके बारे में भी सच लिखना पड़ेगा कि उसने एक से अधिक विवाह करके अपने व्यभिचारी होने का प्रमाण दिया। जिसके कारण उसके ब्रह्मचर्य का नाश हुआ और इसके साथ-साथ उस समय भारत की क्षत्रिय शक्ति का भी भयंकर विनाश हुआ। क्योंकि उसके एक से अधिक किए गए विवाहों के कारण उसे अनेक युद्ध लड़ने पड़े जिसमें बड़ी संख्या में हमारे वीर योद्धा मारे गए । यदि नियमों को तोड़कर नई परंपराएं बनाने का प्रयास किया जाएगा तो उसका परिणाम यही होता है। स्पष्ट शब्दों में कहना चाहिए कि पृथ्वीराज चौहान के इस प्रकार के आचरण के कारण भारत में विदेशी शक्तियों को पैर जमाने का अवसर उपलब्ध हुआ। महर्षि दयानंद जी के चिंतन को यदि उस समय का शासक वर्ग स्वीकार किए होता और अपने इतिहास की वैदिक परंपराओं का निर्वाह कर रहा होता तो एक भी विदेशी शक्ति को यहां पर पैर जमाने का अवसर उपलब्ध ना होता। इतिहास के इस गंभीर दर्शन को हमें समझने की आवश्यकता है।
जब हम वर्तमान इतिहास को पढ़ें तो उसमें जिन जिन शासकों ने भी एक से अधिक विवाह किए उनके राक्षस विवाह को इसी दृष्टिकोण से हमें देखना चाहिए और समझना चाहिए कि यदि उन्होंने एक से अधिक विवाह किए हैं तो निश्चय ही उससे देश की क्षति हुई।
विदेशी राक्षस प्रवृत्ति के शासकों से भारत के लोगों ने दीर्घकाल तक संघर्ष किया । इसका कारण केवल एक था कि भारत के सांस्कृतिक मूल्यों के समक्ष विदेशी आक्रमणकारियों या शासकों के अपने सांस्कृतिक मूल्य कहीं टिकते नहीं थे । वास्तव में उनके पास संस्कृति नाम की कोई चीज ही नहीं थी । वह अपसंस्कृति को लेकर आए थे और भारत की देव संस्कृति को मिटाना उनका लक्ष्य था। भारत की संस्कृति के मूल्य इतने पवित्र थे कि उन्हें जब परिवार अपनाता था तो वह परिवार राष्ट्र की एक इकाई बन जाता था। इन सांस्कृतिक मूल्यों पर विचार करते हुए स्वामी दयानंद जी कहते हैं :-
ऋतुकालाभिगामी स्यात्स्वदारनिरतः सदा।
ब्रह्मचार्य्येव भवति यत्र तत्रश्रमे वसन्।। मनु०।।
जो अपनी ही स्त्री से प्रसन्न और ऋतुगामी होता है वह गृहस्थ भी ब्रह्मचारी के सदृश है।
सन्तुष्टो भार्यया भर्त्ता भर्त्र भार्या तथैव च।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम्।।
अध्याय 9 का शेष
जिस कुल में भार्य्या से भर्त्ता और पति से पत्नी अच्छे प्रकार प्रसन्न रहती है उसी कुल में सब सौभाग्य और ऐश्वर्य निवास करते हैं। जहां कलह होता है वहां दौर्भाग्य और दारिद्र्य स्थिर होता है।
यत्र नार्य्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रऽफलाः क्रियाः।।
जिस घर में स्त्रियों का सत्कार होता है उस में विद्यायुक्त पुरुष होके देवसंज्ञा धरा के आनन्द से क्रीड़ा करते हैं और जिस घर में स्त्रियों का सत्कार नहीं होता वहां सब क्रिया निष्फल हो जाती हैं।”
भारत के इन सांस्कृतिक मूल्यों ने भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को जन्म दिया। भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पवित्रता के संदर्भ में आज का पश्चिमी जगत का या कम्युनिस्ट विचारधारा का कोई भी इतिहास लेखक रंचमात्र भी जानकारी नहीं रखता। यही कारण है कि वह भारत के इतिहास के लेखन के समय आर्यों पर भांति भांति के आरोप लगाते हैं। उनके चरित्र को पतित करने का भी प्रयास करते हैं।
राजा के किसी भी दरबारी को सत्य से मुंह नहीं फेरना चाहिए। उसे विद्वत्तापूर्ण ढंग से शांतभाव के साथ राजा के समक्ष भी सच को प्रकट करना चाहिए । यदि राजा की बुद्धि में भी कहीं दोष है तो उसे भी वह बताए।
पुरुषा बहवो राजन् सततं प्रियवादिनः।
अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः।।
-उद्योगपर्व-विदुरनीति०।।
“हे धृतराष्ट्र ! इस संसार में दूसरे को निरन्तर प्रसन्न करने के लिये प्रिय बोलने वाले प्रशंसक लोग बहुत हैं परन्तु सुनने में अप्रिय विदित हो और वह कल्याण करनेवाला वचन हो उस का कहने और सुननेवाला पुरुष दुर्लभ है।”
स्वामी दयानंद जी का मत है कि केवल चाटुकारिता के लिए दरबार में नहीं जाना चाहिए। समझना चाहिए कि वहां जाकर राष्ट्र चिंतन होता है। यदि राष्ट्र चिंतन के समय चाटुकारिता हावी हो गई तो राष्ट्र का भारी अहित होना संभव है।
वेदनिंदकों से दूरी बनाएं आर्य
आर्यों ने दीर्घकाल तक विदेशी शक्तियों से संघर्ष किया। इसका कारण यह था कि वह वेदनिंदक लोगों का विरोध करना अपना जन्मजात अधिकार मानते थे। मनु महाराज ने ऐसी व्यवस्था प्राचीन काल में ही दे दी थी। आज वेदनिंदक लोगों का आर्य समाजी भी जब राजनीति में समर्थन करते देखे जाते हैं तो बड़ा दु:ख होता है । जिस बात को पराधीनता के पराभव- काल में हमारे तत्कालीन कम पढ़े लिखे लोगों ने भी स्वीकार नहीं किया ,उसे आज का आर्य समाजी स्वीकार कर रहा है।
हमारे यहां विधानसभा उत्तर प्रदेश की नोएडा की दादरी सीट पर एक स्थानीय नेता को 2022 की फरवरी-मार्च में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में सपा ने अपना टिकट दिया तो उसे कई आर्य जनों ने भी अपना समर्थन दिया। जबकि उनको पता था कि यह व्यक्ति वेदनिंदक है। चुनाव में तो वह नेता हार गया पर उसने चुनाव के कुछ समय पश्चात सोशल मीडिया पर जारी की गई अपनी एक पोस्ट में आर्य जनों को हुड़क- चुल्लू कहा। जो लोग उस समय इस नेता का समर्थन कर रहे थे, उनसे मैंने कहा था कि यह वेदों का विरोधी है, संस्कृत भाषा का विरोधी है, यज्ञ का विरोधी है ,इसलिए ऐसे लोगों के साथ आर्यजनों को अपनी सम्मति नहीं देनी चाहिए। परंतु उस समय किसी ने नहीं माना।
महर्षि दयानंद जी ऐसे लोगों के बारे में कहते हैं कि:-
“(पाषण्डी) अर्थात् वेदनिन्दक, वेदविरुद्ध आचरण करनेहारे (विकर्मस्थ) जो वेदविरुद्ध कर्म का कर्त्ता मिथ्याभाषणादि युक्त, वैडालवृत्तिक जैसे विड़ाला छिप और स्थिर होकर ताकता-ताकता झपट से मूषे आदि प्राणियों को मार अपना पेट भरता है वैसे जनों का नाम वैडालवृत्ति, (शठ) अर्थात् हठी, दुराग्रही, अभिमानी, आप जानें नहीं, औरों का कहा मानें नहीं, (हैतुक) कुतर्की व्यर्थ बकने वाले …. ऐसों का सत्कार वाणीमात्र से भी न करना चाहिये। क्योंकि इनका सत्कार करने से ये वृद्धि को पाकर संसार को अधर्मयुक्त करते हैं। आप तो अवनति के काम करते ही हैं परन्तु साथ में सेवक को भी अविद्यारूपी महासागर में डुबा देते हैं।”
महर्षि दयानंद जी की इस बात को भी इतिहास दर्शन के एक प्रमुख बिंदु के रूप में हमें स्वीकार करना चाहिए।
राकेश कुमार आर्य
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
प्रकाशक का दूरभाष नंबर : 011 – 407122000।