गतांक से आगे …
होमयस्त – 1/24 में लिखा है कि –
हओमो तेम् चित् यिम् केरेसानीम् अप-क्षथ्रेम् निषधयत्, योरओस्ते क्षथ्रो काम्य यो दवत् नोइत में अपाम् आथ्रव अइविशतीश वेरेध्ये दंध्रदूव चरात्: होवीस्पे वरेधनाम् वगात् नी वीस्पे वरेधनाम् जनात्। होनयस्त 1 । 24 ।
अर्थात् जो केरेसेती बादशाही के कारण बड़ा ही मगरूर हो गया था और बोलता था कि मेरे राज्य में तमाम वृद्धि के नाश करनेवाले अथर्वा के ‘अविशतिश अपाम्’ का फैलाव न फैले उसको होम ने बादशाही से दूर करके नीचे बैठा दिया इस श्लोक में प्राये हुए ‘अइविशतिश अपाम्’ पद अथर्वसंहिता का ‘अभिष्ट आपो’ ही है । परन्तु स्मरण रखना चाहिए कि ‘शन्नो देवीरभिष्टय आपो’ मन्त्र से, जैसा कि हम गोपथब्राह्मण के प्रमाण से लिख चुके हैं, पैप्पलादसंहिता ही का आरम्भ होता है, शौनकसहिता का नहीं। इसलिए पैप्पलादसंहिता का सम्बन्ध विदेशियों से – आर्यविरोधियों से रहा है, इसमें सन्देह करने की आवश्यकता नहीं है। वर्तमान पैप्पलादसंहिता में गोपथ के विरुद्ध बीस काण्ड के स्थान में उन्नीस ही काण्ड रह गये हैं । इसके फेरफार में ईरान देश के पारसियों का हाथ रहा है, इसलिए उसका अब शुद्ध रूप नहीं रह गया। पं० जयदेव विद्यालङ्कार अपने अथर्ववेदभाष्य की भूमिका में कहते है कि ‘पैप्पलादसंहिता के बहुत से स्थल इतने विकृत और व्याकरण के नियमों के विपरीत हैं कि उनको मूल वेद मानना ही असम्भव है’। इसलिए पैप्पलादशाखा मूल संहिता का स्थान नहीं प्राप्त कर सकती। मूल आर्य और अपौरुषेय संहिता तो शौनकसंहिता ही है। वहीं ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के साथ सनातन से पठन पाठन में चली आ रही है, उसीपर भाष्यकारों ने भाष्य किया है और उसी में वेद के सब लक्षण पाये जाते हैं, इसलिए शौनकसंहिता ही सनातन ईश्वरप्रदत्त है. इसमें सन्देह नही ।
इन चारों ईश्वरप्रदत्त शुद्ध संहिताओं में न तो एक अक्षर की कमी हुई है और न अधिकता । इनमें शाखाप्रचारकों की ओर से जो परिवर्तन हुआ है, वह इतना ही है कि प्रकरणों की सुविधा के लिए आदिम शाखाप्रचारकों ने मण्डल, अष्टक, काण्ड, अध्याय और सूक्तों की रचना करके मन्त्रों का ग्रन्थन कर दिया है और यज्ञों में सुविधा उत्पन्न करने के लिए इस वेद के मन्त्र उस वेद में, इस अध्याय या सूक्त के मंत्र उस अध्याय या सूक्त में तथा ऋग्वेद के कुछ सूक्तों को छोड़कर शेष समस्त काण्डों, आर्चिकों, अध्यायों और सूक्तों में मन्त्रों को आगे पीछे रख दिया है । बस, इसके सिवा उन्होंने और कुछ नहीं किया। यह सब कुछ भी उन्होंने अपनी मर्जी से केवल सुविधा के लिए ही किया है। इसलिए यह शाखासम्पादन पौरुषेय ही है। किन्तु इस सम्पादन से न तो किसी मंत्र में एक मात्रा की न्यूनता हुई है न अधिकता, प्रत्युत समस्त मंत्रसमूह आदिम काल से लेकर आजपर्यंत विना किसी भूल के ज्यों का त्यों चारों संहिताओं में सुरक्षित है। इस प्रकार से हमने यहाँ तक चारों वेदों के शाखाप्रकरण की आलोचना करके देखा तो मालूम हुआ कि वेद के किसी भी भाग, अंश या अक्षर की कमी नहीं हुई । हाँ, उनमें फेरफार हुमा है-मन्त्रों की उलट पलट हुई है। इसीलिए महाभाष्यकार कहते हैं कि वेदों के छन्द और अर्थ नित्य हैं, परन्तु उनमें जो वर्णों की आनुपूर्वीयता है, वह शाखा भेद के कारण अनित्य है। किन्तु इस उलट पलट से वेदों में कुछ भी कमी नहीं आई। वे ज्यों के त्यों उतने ही अब भी प्रस्तुत हैं , जितने सृष्टि के आदि में थे। पर स्वामी हरिप्रसाद ने लिखा है कि वर्तमान संहिता में बहुत सा भाग प्रक्षिप्त है और बहुत सा भाग पुनरुक्त है, इसलिए हम यहां इन दोनों विषयों की भी आलोचना करके देखते हैं कि इस आरोप में कहां तक सत्यांश है?
क्रमशः
प्रस्तुति देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन उगता भारत