उपासना का आधार अष्टांगयोग और इसके द्वारा ही परमानन्द की प्राप्ति —-आचार्य योगेश भारद्वाज कुलपति आर्ष विद्याकुलम्

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महरौनी (ललितपुर)। महर्षि दयानंद सरस्वती योग संस्थान हरीश महारानी के तत्वावधान में विगत 2 वर्षों से वैदिक धर्म के मर्म से युवा पीढ़ी को परिचित कराने के उद्देश्य से प्रतिदिन मंत्री आर्य रत्न शिक्षक लखन लाल आर्य द्वारा आयोजित “आर्यों का महाकुंभ “में दिनांक 28 अक्टूबर 2022 शुक्रवार को ” उपासना” विषय पर प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् मुख्य वक्ता आचार्य योगेश भारद्वाज कुलपति, आर्षविद्याकुलम् ने कहा कि उपासना शब्द उप और आसाना इन दो शब्दों से मिलकर बना है जिसका अर्थ है – समीप बैठना । ईश्वर जब कण -कण में व्याप्त है, फिर समीपता किस प्रकार की।जब कोई।वस्तु दूर होती है तो समीपता चाहिए।दूरी तीन प्रकार की होती है — समय की दूरी, स्थान की दूरी और ज्ञान की दूरी। ईश्वर से केवल ज्ञान की दूरी संभव है।अज्ञानी के लिए ईश्वर दूर से दूर है और ज्ञानी के लिए निकट से निकट । ईश्वरीय समीपता के ज्ञान के लिए लिए उपासना की आवश्यकता होती है। और उपासना के लिए योग की जरूरत। महर्षि पतंजलि ने अपने योग दर्शन योग के आठ अंगों का वर्णन किया है –यम, नियम, आसन ,प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा,ध्यान और समाधि । यम पांच प्रकार के हें -अहिंसा ,सत्य ,अस्तेय ,ब्रह्मचर्य अपरिग्रह। अहिंसा में प्रायः भ्रान्ति होती रही है।। महात्मा बुद्ध व महात्मा गांधी की अहिंसा कायरता से युक्त है और महर्षि दयानंद की अहिंसा पुरुषार्थ युक्त । अहिंसा का अर्थ निरर्वैता है। इसलिए मन,वचन और कर्म से किसी को बेवजह कष्ट नहीं देना। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम और महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने शत्रुओं व कातिलों के प्रति वैर नहीं रखा। सत्य का पालन, अस्तेय अर्थात् मन,वचन और कर्म से चोरी का त्याग यानी बिना स्वामी की आज्ञा से वस्तु का न लेना। ब्रह्मचर्य अर्थात् वीर्य का रक्षण। ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और‌ संन्यास इन तीन आश्रमों में ब्रह्मचर्य का पालन होता है और संयमित गृहस्थ भी ब्रम्हचारी ही होता है। इस प्रकार चारों आश्रमों में ब्रह्मचर्य पालन की महत्ता है्। और, अपरिग्रह में आवश्यकता से अधिक कोई भी नहीं रखना ।नियम भी पाच हैं– शौच,संतोष,तप,, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान । शौच में शरीर और मन की स्वच्छता मुख्य है।शरीर की शुद्धता जल से और मन की सत्य से होती है। संतोष से तात्पर्य है – पूर्ण पुरुषार्थ से प्राप्त वस्तु से ही सन्तुष्ट रहना।तप का अर्थ है —।द्वन्द्वसहनं तप: अर्थात् सुख- दु:ख,हानि – लाभ,मान- अपमान आदि को सहन करना , एक समान बना रहना। तप का अर्ध शरीर को पीड़ा देना नहीं होता। स्वाध्याय का अर्ध ऋषि
कृत ग्रन्थों का पढ़ना। ईश्वर प्राणिधान अर्थात् ईश्वर के प्रति श्रद्धा और विश्वास।आसन का अर्थ है — स्थिरं सुखम् आसनम्। सुखासन,सिद्धासन पद्मासन और वज्रासन उपासना में लाभकर है। प्राणायाम में महर्षि दयानंद व वेदव्यास के अनुसार बाह्य, आभ्यन्तर और स्तम्भन वृत्ति मुख्य हैं। प्रत्याहार में मन को एक समय में एक ही ज्ञानेन्द्रिय पर टिकाने का अभ्यास करना। आचार्य श्री ने प्रत्याहार का क्रियात्मक प्रयोग सिखाया और सभी श्रोताओं को प्रत्याहार का प्रत्यक्ष लाभ बताया। धारणा, ध्यान और समाधि में उपासक को अकेला ही सफर करना पड़ता है।समाधि में उपासक ईश्वर का आत्मा में साक्षात्कार कर अत्यन्त सुख की अनुभूति कर मोक्षानन्द की प्राप्ति कर लेता है।
अन्य वक्ताओं ने अन्तर्राष्ट्रीय वैदिक प्रवक्ता आचार्य आनन्द पुरुषार्थी होशंगाबाद, प्रो. डॉ. व्यास नन्दन शास्त्री वैदिक बिहार, डॉ. कपिल देव शर्मा दिल्ली, प्रधान प्रेम सचदेवा दिल्ली,चंद्रशेखर शर्मा जयपुर ने भी उपासना विषय पर सारगर्भित विचार रखे।
कार्यक्रम में प्रो. डॉ. वेद प्रकाश शर्मा बरेली, अनिल कुमार नरूला दिल्ली,आर्या चन्द्रकान्ता ” क्रांति” हरियाणा, युद्धवीर सिंह हरियाणा
हरियाणा, हरियाणा, “परमानंद सोनी भोपाल, भोगी प्रसाद म्यांमार, देवी सिंह आर्य दुबई, सिंह शिक्षिका, सुमन लता सेन आर्य शिक्षिका, अवधेश प्रताप सिंह बैंस, आदि सैकड़ों लोग आर्यों का महाकुंभ से जोड़कर लाभ उठा रहे हैं।
कार्यक्रम में कमला हंस,दया आर्या हरियाणा ,अदिति आर्या ,ईश्वर देवी ,संतोष सचान, ने भी अपने भजनों से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया।
कार्यक्रम का संचालन मंत्री आर्य रत्न शिक्षक लखनलाल आर्य तथा प्रधान मुनि पुरुषोत्तम वानप्रस्थ ने सब के प्रति आभार जताया।

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