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ईसाई स्कूल शैक्षिक विद्यालय नहीं,मतांतरण के अड्डे हैं-
ईसाई स्कूल शिक्षा ग्रहण के विद्यालय नहीं,बल्कि मजहब प्रचार के लिये खोली गई दुकानें हैं।आज अंग्रेजी पद्धति हर क्षेत्र में लागू होने के कारण ये इसी पद्धति की आड़ में मतांतरण करने में लगे हैं।अंग्रेजी दवा से लेकर अंग्रेजी शराब तक सब अंग्रेजी है।इस सेकुलर संविधान वाले देश भारत में रोजगार भी अंग्रेजी शिक्षा पर आधारित है।इसलिए अभिभावकों के सामने समस्या खड़ी हो जाती है कि बच्चों को अगर अंग्रेजी नहीं सिखायेंगे,तो वो बेरोजगार रहेंगे।सरकार को चहिये कि वो संस्कृत भाषा को रोजगार के साथ जोडे,जिससे हिन्दुओं के सेकुलर व मतांतरित होने पर रोक लग सके।
ईसाईयों के स्कूलों में वैदिक(हिन्दू) धर्म के बारे में (वैदिक)हिन्दू बच्चों के मन में धीरे-धीरे नफरत के बीज बोये जाते हैं।
ईसाई कान्वेंट स्कूलों का मुख्य काम मतांतरण कराना है,इनका यहाँ इस देश में रहने,खाने पीने का जो खर्च होता है,वो अभिभावकों से भारी फीस के रूप में वसूल लिया जाता है।
वैदिक(हिन्दुओं) की अज्ञानता देखिये,अपने बच्चों का मतांतरण अपने ही पैसों से कराते हैं।फिर वृद्धाश्रम में चले जाते हैं।इसे कहते हैं जिस डाल पे बैठना उसी को काटना,
अर्थात् जो सहारा है पहले उसे ही काट देना,फिर नीचे तो गिरना तय है ही।
देश के अधिकतर अभिभावक अपने बच्चों को ईसाई कॅान्वेंट स्कूलों में पढाकर सेक्युलर तत्वों की फौज खडी करके धर्म की नींव खोद रहे हैं।
ईसाई कांवेंट में सिखाया जाता है कि यज्ञोपवीत,जनेऊ ख़राब है,वैदिक(हिन्दू) अन्धवश्वासी हैं,होली ख़राब है,तुम मेहँदी नहीं लगा लगाओगी,दीपावली ख़राब है,
क्रिसमस अच्छा है,राम ख़राब है,जीजस अच्छा है,रक्षाबंधन ख़राब है आदि-आदि बातें बच्चों के सामने बड़ी चतुराई से शेयर की जाती हैं।ये बातें इस तरह से कही जाती हैं जिससे बच्चे अपने घर न बतायें।ये बातें बातों-बातों में कही जाती हैं,प्रत्यक्ष रूप से नहीं।इस प्रकार बचपन से ही जो बच्चे लगातार ऐसी बातें सीखेंगे,उनके मन में हिन्दुओं से दूरी के बीज बोये जायेंगे,तो सेकुलर तो बनेंगे ही।यही कारण है कि सेकुलर वैदिक(हिन्दू) उत्सवों,परम्पराओं से नफरत करने लगते हैं।इस वजह से न तो वो वैदिक(हिन्दू)रह जाते,न ईसाई,मुल्ले।वो एकदम हिजडों जैसे हो जाते हैं।न इधर के,न उधर के रहने के कारण उनका मतांतरण करना चुटकियों का काम होता है।
संत स्टीफन,ब्रेन जॅान,सेंट फ्रांसिस,सेंट जॉर्ज,सेंट पॉल,सेंट जेम्स,सेंट निकोलस,सेंट मेरी,सेंट मार्टिन आदि।इस तरह के ईसाईयों के स्कूलों के नाम होते हैं।इन स्कूलों में फादर भी होते हैं।ये जॅार्ज,फ्रांसिस आदि मरे हुये फादर के नाम ही तो हैं।इतिहास में इन्होंने बहुत अधिक मतांतरण किये।ईसाईयत को बढाने में इनका विशेष योगदान है।इसलिए इनके नाम पर ही स्कूल खोले जाते हैं।
अब सोचिये कि फादर का स्कूलों में क्या काम है?ये वो बहुरूपिया,अर्थात् भेड़िया होता है,जैसा लॅार्ड मैकाले था।आज वैदिक(हिन्दू) अपने बच्चों को भेड़ियों के पास भेजकर अपने बच्चों को अपना दुश्मन बना रहे हैं,भविष्य में वृद्धाश्रम में जाने की तैयारी करते हैं।
सेंट संस्कृत शब्द संत का अपभ्रंश(बिगड़ा हुआ रूप) है।ये सन्त नहीं,बल्कि शराबी,कबाबी,जुआरी,व्यसनी होते हैं।
सेंट उर्फ संत के साथ जो जॅार्ज आदि नाम लिखे हैं,इनका कोई अर्थ नहीं होता।मालूम हो कि अंग्रेजों के नाम के कोई अर्थ नहीं होते।कहने का अर्थ ये है कि हमारी संस्कृत भाषा से एक भ्रष्ट अंग्रेजी भाषा बनाकर कुछ लोग कहते हैं कि हम आधुनिक हैं और बाकि सब पिछड़े हैं।ये वो लोग हैं,जिनके अपने नाम भी अर्थहीन हैं।
-अरविन्द मलिक
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