विवाह और परिवार रूपी संस्था
वास्तव में विवाह परिवार रूपी संस्था को चलाए रखने के लिए एक बहुत ही पवित्र और उत्तम संस्कार है। जिसकी तैयारी में किसी भी प्रकार का प्रमाद नहीं करना चाहिए। बहुत सोच समझ कर विवाह के संबंध स्थापित करने चाहिए । कुल, गोत्र आदि के साथ-साथ दोनों परिवारों के सामाजिक स्तर, चाल – चलन, व्यवहार और संस्कारों पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए। हमारे समाज में इस प्रकार के मेल मिलाप के कार्य को बड़े बुजुर्ग ही करते आए हैं। इसका कारण यह है कि वह कोई भी निर्णय भावुकता में या शीघ्रता में नहीं लेंगे, ऐसी उनसे अपेक्षा की जाती है ।जबकि लड़के लड़कियां कई बार शारीरिक आकर्षण में फंसकर शीघ्रता या भावुकता का प्रदर्शन कर सकते हैं। जिसका परिणाम अच्छा नहीं होता है ।
आजकल हम देख भी रहे हैं कि लड़के लड़कियां शारीरिक आकर्षण में एक दूसरे की ओर पहले तो चले जाते हैं बाद में पछताते हैं और विवाह तोड़ने की स्थिति में पहुंच जाते हैं। इसके उपरांत भी लड़का और लड़की की स्वतंत्र सहमति बहुत आवश्यक है। इसके संबंध में महर्षि दयानंद जी की अपनी ऐसी ही सम्मति देते हैं। विवाह के संबंध में खींचतान उचित नहीं है। ना तो युवा पीढ़ी को ही अपनी मनमर्जी चलानी चाहिए और ना ही बड़ों को अनुचित हस्तक्षेप की सीमा तक अपनी मनमानी करनी चाहिए।
परिवार के दोनों वर्ग के लोग मिल बैठकर समझदारी के साथ निर्णय लें तो ही अच्छा है। ना तो युवा घर के बुजुर्गों की उपेक्षा करें और ना ही बुजुर्ग युवाओं को उपेक्षित करें। विवाह को लेकर किसी भी प्रकार का तनाव पैदा करना उचित नहीं है। यदि किसी विवाह को लेकर घर में तनाव की स्थिति बन रही है तो ऐसे विवाह को ना करने में ही लाभ है।
काममामरणात्तिष्ठेद् गृहे कन्यर्तुमत्यपि।
न चैवैनां प्रयच्छेत्तु गुणहीनाय कर्हिचित्।। मनु०।।
महर्षि मनु महाराज की इस व्यवस्था का अनुवाद करते हुए महर्षि दयानंद जी महाराज कहते हैं कि चाहे लड़का लड़की जीवन भर कुंवारे रह जाएं पर असदृश अर्थात् परस्पर विरुद्ध गुण, कर्म, स्वभाव वालों का विवाह कभी न होना चाहिये।
…क्योंकि जो उनमें परस्पर प्रसन्नता रहे तो उन्हीं को सुख और विरोध में उन्हीं को दुःख होता। और-
सन्तुष्टो भार्यया भर्त्ता भर्त्र भार्य्या तथैव च।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम्।। मनु०।।
जिस कुल में स्त्री से पुरुष और पुरुष से स्त्री सदा प्रसन्न रहती है उसी कुल में आनन्द लक्ष्मी और कीर्ति निवास करती है और जहाँ विरोध, कलह होता है वहाँ दुःख, दारिद्र्य और निन्दा निवास करती है। इसलिये जैसी स्वयंवर की रीति आर्य्यावर्त्त में परम्परा से चली आती है वही विवाह उत्तम है।
अपनी इस बात को कहने के पश्चात महर्षि दयानंद इतिहास दर्शन पर अपना दृष्टिपात करते हुए कहते हैं कि जब तक इसी प्रकार सब ऋषि-मुनि, राजा ,महाराजा, आर्य्य लोग ब्रह्मचर्य्य से विद्या पढ़ ही के स्वयंवर विवाह करते थे तब तक इस देश की सदा उन्नति होती थी।
इस का अभिप्राय है कि भारत में प्राचीन काल में विवाह संबंधी इसी प्रकार का प्रावधान था। जिन लोगों ने और जब तक इस प्रकार की वैदिक व्यवस्था का पालन अनुपालन किया तब तक भारत में सर्वत्र संपन्नता का वास रहा, परंतु जब इसके विपरीत आचरण होने लगा तो आर्यों की वैदिक व्यवस्था भंग हो गई।उसका अभिप्राय था कि लोगों पर वासना हावी हो गई । यह एक सर्वमान्य सत्य है कि वासना का भूत व्यक्ति का शारीरिक, आत्मिक,मानसिक और बौद्धिक पतन करता है।
वासना और रसना
हमें इस बात पर गर्व होना चाहिए कि हमारे ऋषि पूर्वज वासना और रसना दोनों से ही अपेक्षित दूरी बनाकर रहते थे। वह भोगों में नहीं होते थे, इसलिए भोग उन पर हावी नहीं होते थे। आर्यों की इस उत्कृष्ट वैदिक संस्कृति के समक्ष उस समय का सारा संसार पानी भरता था । आज की पश्चिमी अपसंस्कृति की सबसे बड़ी बुराई यह है कि इसमें वासना और रसना दोनों को ही खुला छोड़ दिया जाता है। जिससे मनुष्य जाति का सार्वत्रिक पतन हो रहा है। आज की इस पतन की अवस्था को देखकर पश्चिमी जगत को ही नहीं बल्कि संपूर्ण मानवता को इस बात पर विचार करना चाहिए कि वह भारत के ऋषि पूर्वजों की उत्कृष्ट वैदिक संस्कृति का अनुगमन करे।
इतिहास में भारत की पतन की कहानी को स्पष्ट करते हुए महर्षि दयानंद जी कहते हैं कि जब से यह ब्रह्मचर्य्य से विद्या का न पढ़ना, बाल्यावस्था में पराधीन अर्थात् माता पिता के आधीन विवाह होने लगा, तब से क्रमशः आर्य्यावर्त्त देश की हानि होती चली आई है। इसी प्रसंग में महर्षि दयानंद जी यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि सनातन पांच सात पीढ़ियों से चली आई किसी परंपरा का नाम नहीं है बल्कि यह सृष्टि सृष्टि संस्कृति की एक शाश्वत परंपरा है। किसी के पिता – पितामह आदि यदि दुष्ट आचरण करने वाले रहे हैं तो उनका ऐसा दुष्ट आचरण सर्वथा त्याज्य होता है। यह नहीं समझना चाहिए कि हमारे पूर्वज जो कुछ करते चले आए हैं हम उसी को करते रहेंगे। पूर्वजों के भी सतकर्मों का ही हमें अनुकरण करना चाहिए।
इसके उपरांत भी हमारे पास अपने ऋषि पूर्वजों का एक बहुत ही गौरवशाली इतिहास है ।उनकी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक मान्यताओं विचारों और धारणाओं का हमें अनुकरण करना चाहिए। पौराणिक काल में इन मान्यताओं में यदि कहीं घुन लगा है तो घुन लगने की इस प्रक्रिया से जन्मी विकृतावस्था का हमें त्याग करना चाहिए।
मनु महाराज ने क्या कहा है-
येनास्य पितरो याता येन याता पितामहाः।
तेन यायात्सतां मार्गं तेन गच्छन्न रिष्यते।। मनु०।।
जिस मार्ग से इसके पिता, पितामह चले हों उस मार्ग में सन्तान भी चलें परन्तु (सताम्) जो सत्पुरुष पिता पितामह हों उन्हीं के मार्ग में चलें और जो पिता, पितामह दुष्ट हों तो उन के मार्ग में कभी न चलें। क्योंकि उत्तम धर्मात्मा पुरुषों के मार्ग में चलने से दुःख कभी नहीं होता।
इस व्यवस्था से स्पष्ट हो जाता है कि हम अपने माता-पिता या पूर्वजों के सत कर्मों के अनुगामी हों। किसी परिस्थिति के वशीभूत होकर या अज्ञानता के कारण या किसी भी सामाजिक दबाव के कारण यदि उनसे अतीत में कहीं कोई गलती हुई है तो उसका अनुकरण हम ना करें। अतीत में की गई गलतियों का भी अनुकरण करना लकीर का फकीर हो जाना है। गतानुगतिक लोके वाली स्थिति को हमें अपने जीवन में स्थान नहीं देना चाहिए।
महर्षि दयानंद भारत के इतिहास की उस परंपरा में विश्वास रखते थे जिसमें शूद्र के घर में उत्पन्न हुआ बच्चा अपने गुण, कर्म, स्वभाव से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य बन जाता था और ब्राह्मण क्षत्रिय या वैश्य के घर में पैदा हुआ बच्चा अपने गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार शूद्र बन जाता था । भारत की इस वर्ण व्यवस्था का भारत के इतिहास पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ा है।
स्वामी जी महाराज ने सत्यार्थ प्रकाश के चौथे समुल्लास में इस विषय पर व्यापक प्रकाश डाला है और इसी प्रकार की अपनी सम्मति व्यक्त की है । उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि :-
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्या शूद्रो अजायत ।।
यह यजुर्वेद के ३१वें अध्याय का ११वां मन्त्र है। इसका यह अर्थ है कि ब्राह्मण ईश्वर के मुख, क्षत्रिय बाहू, वैश्य ऊरू और शूद्र पगों से उत्पन्न हुआ है। इसलिये जैसे मुख न बाहू आदि और बाहू आदि न मुख होते हैं, इसी प्रकार ब्राह्मण न क्षत्रियादि और क्षत्रियादि न ब्राह्मण हो सकते हैं।
भारत की एक जाति विशेष के लोगों ने अपने आपको श्रेष्ठ दिखाने के लिए और अपने जातीय अभिमान के कारण ब्रह्मा के मुख से अपनी उत्पत्ति मानने का पाखंड फैलाया। महर्षि दयानंद जी ने इस बात को भी स्पष्ट किया कि जो मुखवत कार्य करे, वह ब्राह्मण होता है। मुखवत कार्य करने का अभिप्राय है कि जो सभी ज्ञानेंद्रियों का प्रवक्ता बन जाए और बहुत संतुलित व मर्यादित होकर अपनी बात को रखे, वह ब्राह्मण होता है। इसीलिए ब्राह्मण की उत्पत्ति मुख से मानी गई है। इसी प्रकार अन्य वर्णों के लोगों के बारे में भी बहुत तार्किक समाधान महर्षि दयानंद जी ने प्रस्तुत किया है। स्वामी जी महाराज जी के इस प्रकार के चिंतन में भारतीय इतिहास की पवित्र वर्ण परंपरा की उत्कृष्टता के दर्शन होते हैं। जिसने हमारे समाज को सुव्यवस्थित रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
डॉ राकेश कुमार आर्य
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
प्रकाशक का दूरभाष नंबर : 011 – 407122000।
मुख्य संपादक, उगता भारत