विदेश नीति और रक्षा नीति का राजनीति में गहरा संबंध होता है। यह दोनों अन्योन्याश्रित होते हैं। इन दोनों को लेकर ही राजनीति में कूटनीति का खेल चलता है। जो देश कूटनीति के माध्यम से अपनी राजनीति को सही दिशा देने में सफल होता है वही अपनी विदेश नीति और रक्षा नीति को सबल बनाने में भी सफल होता है। कूटनीति एक बीजक होता है। एक सूत्र होता है। जिसमें बीज और सूत्र को पकड़कर संकेतों से बात की जाती है। जो लोग बीज और सूत्र को नहीं पकड़ सकते वे कूटनीति को नहीं समझ सकते।
भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने पाकिस्तान के प्रति कठोरता की नीति अपनाते हुए स्पष्ट शब्दों में पड़ोसी देश को चेतावनी दी है कि उसने पाक अधिकृत जम्मू कश्मीर में अभी तक जितने भी अत्याचार किए हैं उन सबका परिणाम उसे भुगतना पड़ेगा। हमारे रक्षा मंत्री के ये कठोर शब्द अपने पड़ोसी को केवल चेतावनी मात्र नहीं हैं। इन शब्दों को यदि भारत ने यथार्थ के धरातल पर खरा उतार दिया तो इन्हीं शब्दों में पाकिस्तान के अंत की कहानी भी छुपी हो सकती है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कूटनीति को गहराई से समझ कर सही समय पर सही शब्दों का चयन किया है।
हम यहां पर यह भी स्पष्ट करना चाहेंगे कि पाकिस्तान के प्रति जिस प्रकार की कठोरता इस समय दिखाई जा रही है यदि ऐसी ही कठोरता नेहरू के समय से दिखाई गई होती तो भारत निश्चित रूप से अभी तक विश्व राजनीति में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लेता। हमें दबंगपन की नीति अपनानी चाहिए थी, पर हम दब्बूपन की नीति का शिकार हो गए। संसार के देशों ने जब देखा कि जब पड़ोसी देश पाकिस्तान ही भारत को आंख दिखा सकता है तो यह दूसरों की रक्षा नहीं कर सकता। नेहरू की अनुचित एवं ढुलमुल विदेश नीति लोगों को जल्द ही समझ आ गई थी। देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू यदि पाकिस्तान को यह एहसास कराते रहते कि वह भारत के दिए हुए टुकड़ों पर ही पल रहा है अर्थात भारत भूमि को लेकर ही उसका अस्तित्व संसार के मानचित्र पर स्थापित हुआ है तो पाकिस्तान समझता रहता कि उसका बाप कौन है ? उन्होंने भारत भूमि को सोने की थाली में रखकर पाकिस्तान को देने की बड़ी भारी भूल की थी। सत्ता की जल्दबाजी में नेहरू देश भक्ति भूल गए थे। राष्ट्र के हितों की उपेक्षा कर गए थे।
आज का भारत अपने तेजस्वी राष्ट्रवाद की अवधारणा को मजबूत करते हुए आगे बढ़ रहा है। आज वह अपने स्पष्टतावादी राष्ट्रवादी चिंतन को लेकर अपने हितों के लिए लड़ना जान गया है। इसी से आज के भारत की विदेश नीति का सारा लचीलापन , नम्र एवं उदार दृष्टिकोण समाप्त होकर उसमें सर्वस्व कड़ाई और मजबूती का स्पष्ट संकेत परिलक्षित हो रहा है। भारत की इस नई विदेश नीति का परिचय देते हुए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने शौर्य दिवस के अवसर पर स्पष्ट किया है कि भारत अब अपने गिलगित और बालटिस्तान को लेकर ही रहेगा। उन्होंने कहा है कि “हमने जम्मू कश्मीर और लद्दाख में विकास की अपनी यात्रा अभी शुरू की है। जब हम गिलगित -बालटिस्तान तक पहुंच जाएंगे तो हमारा लक्ष्य पूरा हो जाएगा।” इसके लिए भारत को पाकिस्तान के भीतर बैठे अपने शुभचिंतकों की पीठ थपथपानी होगी। उन लोगों को भी प्रोत्साहन देना होगा जो पाकिस्तान के नेतृत्व से किसी भी प्रकार से खिन्न हैं और अपने लिए अलग देश की मांग कर रहे हैं।
यदि नेहरू 1947 में देश के बंटवारे के समय अपने राजनीतिक गुरु महात्मा गांधी के माध्यम से भी पाकिस्तान के तत्कालीन नेतृत्व को यह संकेत दिलवा देते कि किसी विदेशी मजहब को अपनी भारत भूमि का भाग देना हमारे लिए कतई स्वीकार नहीं है और जो लोग यहां पर विदेशी अतिथि के रुप में आए थे वह आज किसी भी आधार पर हमारी भारत भूमि के किसी भाग को हम से ले नहीं सकते तो उसी समय देश एक मजबूत विदेश नीति के राजमार्ग पर अपने आपको ढाल लेता। परंतु नेहरू और उनकी सरकार ने धारा 370 और 35a(संसद से बिना अनुमोदन प्राप्त किए) जैसे लोकतंत्र विरोधी और देशविरोधी प्रावधानों को देश के संविधान में स्थान देकर यह स्पष्ट कर दिया कि वह अपनी लचीली और उदार नीतियों के आधार पर देश हितों की उपेक्षा करते हुए आगे बढ़ेंगे । तब उसी समय यह स्पष्ट हो गया था कि उनकी सरकार बहुसंख्यकों और देश के हितों की उपेक्षा करते हुए अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण की दिशा में अपना रास्ता तय करेगी। (यह तो नहीं कहा जा सकता कि नेहरू ऐसा क्यों करते थे परंतु यदि अरविंद घोष एवं अन्य लेखकों की पुस्तक के अनुसार उनका कथन सत्य है कि नेहरू मुगलों के वंशज थे, तो नेहरू ने कोई गलती नहीं की थी उसको ऐसा करना चाहिए था क्योंकि उनके पूर्वजों से शासन भारत के लोगों द्वारा जो छीना गया था)
यह एक अच्छी बात है कि वर्तमान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद उन्होंने नेहरू की भूलों को सुधारने की दिशा में कदम उठाए और अपने दूसरे कार्यकाल में प्रवेश करते ही उन्होंने 5 अगस्त 2019 को संविधान विरोधी और देश विरोधी उपरोक्त धाराओं को हटाने का साहसिक निर्णय लिया।
इस संदर्भ में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का यह कथन पूर्णतया सही है कि 5 अगस्त 2019 को लिए गए साहसिक निर्णय के पश्चात जम्मू कश्मीर के लोगों के खिलाफ सरकारी भेदभाव समाप्त हो गया।
यह एक सुखद और शुभ संयोग है कि जब हमारे रक्षा मंत्री पाकिस्तान को अपनी कड़ी भाषा में स्पष्ट संदेश दे रहे हैं तभी संसार की एक बड़ी शक्ति अर्थात ब्रिटेन में भी एक हिंदू प्रधानमंत्री पहली बार सत्ता संभाल रहा है। यदि ऋषि सुनक सही दिशा में आगे बढ़े और उन्होंने बेहिचक निर्णय लेते हुए कार्य किया तो निश्चय ही उनका आगमन संसार के लिए विस्मयकारी होगा। हम नहीं कहते कि वह भारत के प्रति किसी सहानुभूति के साथ कार्य करते हुए पाकिस्तान के प्रति पूर्वाग्रही हों,हम तो केवल इतना कहना चाहते हैं कि वह न्यायशील प्रवृत्ति अपनाते हुए बस सही को सही कहने का साहस दिखा दें। इतने से ही गिलगित और बाल्टिस्तान भारत के हो जाएंगे।
पाकिस्तान जानता है कि यदि ऋषि सुनक ने सही को सही कहने का साहस दिखा दिया तो गिलगित बालटिस्तान तो उसके हाथ से जाएगा ही उसके अस्तित्व पर भी संकट के बादल छा जाएंगे। क्योंकि पाकिस्तान भी अपनी धरती को कहीं बाहर से लेकर नहीं आया था। अब पाकिस्तान के लोग ऋषि सुनक का मूल खोज रहे हैं और इस बात पर प्रसन्नता व्यक्त कर रहे हैं कि वह मूल रूप से पाकिस्तान के ही हैं। 1947 में बंटवारे के दौरान गुजरांवाला पाकिस्तान में चला गया था। वर्तमान समय में गुजरांवाला पाकिस्तान के पंजाब प्रांत का एक शहर है। इसके चलते पाकिस्तान के लोग ऋषि सुनक का पाकिस्तानी संबंध बता रहे हैं। मशहूर लेखक तारिक फतेह ने ट्वीट कर सुनक के मूल को लेकर एक खास जानकारी दी है। उन्होंने ट्वीट करते हुए लिखा है कि “क्या आप जानते हैं कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक के दादा दादी पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गुजरांवाला शहर के निवासी थे? पाकिस्तान का यह शहर महाराजा रणजीत सिंह के जन्म स्थान के रूप में भी संसार में जाना जाता है।”
ब्रिटेन में ऋषि सुनक का आगमन और इधर धारा 370 के बाद के कश्मीर की स्थितियों को लेकर पाकिस्तानी खासे चिंतित हैं।
पाकिस्तान का नेतृत्व इस बात को लेकर बहुत ही असहज है कि भारत का वर्तमान नेहरु की विदेश नीति से हटकर कहीं दूसरे रास्ते पर जा रहा है । पाकिस्तान को वही भारत चाहिए जो भारत नेहरु के जमाने में कश्मीर घाटी की बराबर के क्षेत्रफल के अक्साई चिन पर चीन का कब्जा करवाने के समय चुप रहा था।
क्योंकि उस समय का भारतीय नेतृत्व शांति के कबूतर उड़ा रहा था। भारत का नेतृत्व शांति का दूत बनना चाहता था, शांति का नोबेल पुरस्कार लेना चाहता था। क्योंकि नेहरू की यह प्रबल इच्छा थी। इसीलिए 1962 में चीन के हाथों के तिब्बत को देने के पश्चात भी नेहरू ने अपने आप को भारत- रत्न के पुरस्कार से स्वयं ही नवाज लिया था। इससे अधिक और कोई शर्मनाक बात नहीं हो सकती।
शांति के कबूतरों के उड़ाने का ही परिणाम है कि पिछले 6 दशक से चीन हमारे 37244 वर्ग किलोमीटर के भूभाग पर कब्जा किए हुए है। लगभग इतना ही क्षेत्रफल हमारी कश्मीर घाटी का है। यदि बात नेहरू के संबंध में की गई गलतियों प्रस्तुत करने के विषय में की जाए तो उनके शासनकाल के संबंध में दिल्ली के सुप्रसिद्ध प्रभात प्रकाशन के द्वारा श्री रजनीकांत पुराणिक की छापी गई पुस्तक का शीर्षक ही “जवाहरलाल नेहरू की 127 गलतियां” है। जिनमें उनकी एक एक गलती पर विस्तृत एवं विशेष प्रकाश डाला गया है। यदि नेहरू देश के प्रधानमंत्री नहीं होते तो लगभग सवा सौ गलतियों का इतना बड़ा पुलिंदा भारत के सिर पर नहीं रखा होता। तथा नेहरू के स्थान पर यदि भारत के जनमानस के अनुसार और बहुमत के अनुसार कांग्रेस वर्किंग कमिटिओ द्वारा पारित किए गए प्रस्तावों को दृष्टिगत रखते हुए सरदार बल्लभ भाई पटेल को प्रधानमंत्री बना दिया गया होता तो भारत का नक्शा ही कुछ और होता। इस प्रकार गांधी ने नेहरू को प्रधानमंत्री बना कर ही सबसे बड़ी गलती और देश के साथ छलावा किया था और अपने प्रभाव का दुरुपयोग किया था।
चीन के हाथों जब भारत को नेहरू के नेतृत्व में 1962 में पराजय मिली तो अपने जन्म दिवस 14 नवंबर 1963 को नेहरू संसद में युद्ध के बाद की स्थिति पर चर्चा कर रहे थे। नेहरू ने प्रस्ताव पर अपनी बात रखते हुए कहा था कि “मुझे दुख और हैरानी होती है कि अपने को विस्तारवादी शक्तियों से लड़ने का दावा करने वाला चीन स्वयं विस्तारवादी शक्तियों के पद चिन्हों पर चलने लगा है।”
उस समय नेहरू यह बात स्पष्ट कर रहे थे कि चीन ने किस प्रकार भारत की पीठ में छुरा घोंप दिया है ? अभी वे अपनी बात को स्पष्ट भी नहीं कर पाए थे कि उस समय करनाल से सांसद रहे स्वामी रामेश्वरानंद जी ने व्यंग्य भरे अंदाज में उन्हें टोकते हुए कहा कि ‘चलो अब तो आपको चीन का असली चेहरा दिखने लगा।’ जिस नेहरू को उनकी पार्टी के लोग आज भी लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति समर्पित व्यक्तित्व के रूप में प्रदर्शित करते हैं और यह कहते नहीं थकते कि भारत में लोकतंत्र की बुनियाद को और लोकतांत्रिक मूल्यों को नेहरू ने ही स्थापित किया है, यदि वह नहीं होते तो निश्चय ही भारत लोकतंत्र के मार्ग से भटक गया होता। ऐसा कहने वाले लोगों का संकेत सरदार पटेल की ओर होता है जो नेहरू की अपेक्षा कहीं अधिक कठोर और स्पष्टवादी थे। ऐसा कहकर वे यह बताना चाहते हैं कि यदि भारत की बागडोर पंडित नेहरू के स्थान पर सरदार पटेल के हाथों में आ गई होती तो वह तानाशाही प्रवृत्ति दिखाकर भारत को लोकतंत्र के मार्ग से भटका देते।
हम यह बताना चाहते हैं कि लोकतंत्र के प्रति नेहरू गंभीर नहीं थे। वह अपनी आलोचना सहन नहीं कर सकते थे। स्वामी रामेश्वरानंद जी महाराज के उपरोक्त एक वाक्य से ही नेहरू को गुस्सा आ गया था। तब नेहरू ने स्वामी रामेश्वरानंद जी महाराज को निशाने पर लेते हुए कहा था कि “अगर माननीय सदस्य चाहें तो उन्हें सरहद पर भेजा जा सकता है।” नेहरू के इस प्रकार के आचरण को सदन के अन्य सदस्यों ने भी अच्छा नहीं माना था।
निरंतर बोलते जा रहे नेहरू को तब एच वी कामथ ने भी बीच में टोका और कहा कि ‘आप बोलते रहिए । हम बीच में व्यवधान नहीं डालेंगे।’ इसके पश्चात नेहरु जी विस्तार से बताने लगे कि चीन पर हमला करने से पहले उसने किस प्रकार अपनी तैयारी की थी? इसी बीच स्वामी रामेश्वरानंद जी ने फिर तेज आवाज में कहा “मैं तो यह जानने के लिए ही उत्सुक हूं कि जब चीन तैयारी कर रहा था तब आप क्या कर रहे थे?” इस बात पर नेहरू झल्ला गए थे। उन्होंने अपनी गुस्से भरी आवाज में कहा था कि “मुझे लगता है कि स्वामी जी को कुछ समझ नहीं आ रहा। मुझे अफसोस है कि सदन में इतने सारे सदस्यों को रक्षा मामलों की पर्याप्त समझ नहीं है।”
नेहरू नहीं चाहते थे कि उनकी ढुलमुल नीति पर कोई चर्चा हो या कोई सदस्य उन्हें इस बात के लिए लज्जित करे कि उन्होंने सही समय पर सही निर्णय नहीं लिया। नेहरू की सोच थी कि उन्होंने जो कुछ कर दिया उसे सारी संसद आंख मूंदकर स्वीकार कर ले। इसी प्रकार की प्रवृत्ति को ही तानाशाही कहा जाता है। भारत में लोकतांत्रिक तानाशाही की इसी प्रवृत्ति के कारण सारी संसद को नेहरू और उनके बाद उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने बंधक समझकर प्रयोग करने का प्रयास किया। नेहरू और इंदिरा गांधी की ऐसी प्रवृत्ति के चलते उनकी पार्टी के लोगों ने तो उनका आंख मूंदकर समर्थन किया पर विपक्ष के नेताओं ने अपना धर्म निर्वाह करते हुए भी यदि कहीं सरकार को टोका तो दोनो पिता एवं पुत्री को ही यह अच्छा नहीं लगा। इसका लाभ विदेश नीति के माध्यम से पाकिस्तान जैसे देशों को मिलता रहा। इसका कारण केवल एक था कि संसद में हमारे तत्कालीन विपक्ष के नेता सरकार की नीतियों को लेकर जब आलोचना करते थे तो उन्हीं नीतियों को जबरन तानाशाही पूर्ण ढंग से लागू कराने के लिए नेहरू और उनकी बेटी जिद पर अड़ जाते थे। अंततः राष्ट्र को ही उसका नुकसान होता था।
प्रधानमंत्री मोदी के शासनकाल में चीन ने डोकलाम में जिस प्रकार पीछे हटना स्वीकार किया वह उसने तभी स्वीकार किया था जब उसको यह आभास हो गया था कि भारत 1962 की स्थिति परिस्थितियों से बहुत आगे निकल चुका है।
आज जब देश नेहरूवादी नीतियों से बहुत आगे निकल चुका है तब ऐसी व्यवस्था सुनिश्चित होनी चाहिए कि फिसलन की संभावना कहीं से भी न रह जाए। अब देश को इस बात की प्रतीक्षा रहेगी कि नेहरूवाद को एक ओर धकेल कर काम कर रही मोदी सरकार उस काम को करके दिखाएगी जो शौर्य दिवस के अवसर पर देश के रक्षा मंत्री ने अपने भाषण के माध्यम से देश के लिए एक प्रमुख उद्देश्य के रूप में स्थापित किया है। न पीछे हटना है, न झुकना है, न रुकना है, न थकना है। लक्ष्य निर्धारित करके केवल उसकी प्राप्ति के लिए संघर्ष करना है और आगे बढ़ना है। कुछ भी हो इस समय यह बात तो सच है कि देश के रक्षा मंत्री ने नेहरू के मिथक को तोड़ कर नया इतिहास रचने की ओर संकेत किया है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत