परित्याग के योग्य ग्रंथों की सूची
परित्याग के योग्य ग्रंथों की सूची भी महर्षि ने हमारे समक्ष प्रस्तुत की है। उनके प्रमुख नाम उन्होंने इस प्रकार दिए हैं :-
व्याकरण में कातन्त्र, सारस्वत, चन्द्रिका, मुग्धबोध, कौमुदी, शेखर, मनोरमा आदि। कोश में अमरकोशादि। छन्दोग्रन्थ में वृत्तरत्नाकरादि। शिक्षा में ‘अथ शिक्षां प्रवक्ष्यामि पाणिनीयं मतं यथा’ इत्यादि। ज्यौतिष में शीघ्रबोध, मुहूर्त्तचिन्तामणि आदि। काव्य में नायिकाभेद, कुवलयानन्द, रघुवंश, माघ, किरातार्जुनीयादि। मीमांसा में धर्मसिन्धु, व्रतार्कादि। वैशेषिक में तर्कसंग्रहादि। न्याय में जागदीशी आदि। योग में हठप्रदीपिकादि। सांख्य में सांख्यतत्त्वकौमुद्यादि। वेदान्त में योगवासिष्ठ पञ्चदश्यादि। वैद्यक में शांर्गधरादि। स्मृतियों में मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोक और अन्य सब स्मृति, सब तन्त्र ग्रन्थ, सब पुराण, सब उपपुराण, तुलसीदासकृत भाषारामायण, रुक्मिणीमंगलादि और सर्वभाषाग्रन्थ ये सब कपोलकल्पित मिथ्या ग्रन्थ हैं।
दयानंद जी महाराज ने पुराणों के पढ़ने का निषेध उन लोगों के लिए किया है जो उनमें आध्यात्मिक या ब्रह्मविद्या खोजते हैं। यद्यपि जो व्यक्ति उनके प्रसंगों को आधार बनाकर इतिहास पर अनुसंधान करना चाहता है, उसके लिए वह कहते हैं कि पुराणों में इतिहास है और इतिहास के सत्य अंश को पुराणों से ग्रहण किया जा सकता है।
महर्षि दयानंद जी के द्वारा उल्लिखित इस प्रसंग से यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारत में किस प्रकार शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम निश्चित किया जाता था ? हमारे आचार्य लोग गुरुकुल में कौन सी और किस प्रकार की शिक्षा दिया करते थे? जब संसार विद्यालयों के पाठ्यक्रम निर्धारित करने की कला का तनिक सा भी ज्ञान नहीं रखता था, उस समय भी हमारे ऋषि छात्र छात्राओं के निर्माण के लिए उत्कृष्ट पाठ्यक्रम निर्धारित करने का ज्ञान रखते थे। उसी को अपने शब्दों में और आज के प्रसंग में ऋषि दयानंद जी ने हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है। पाठ्यक्रम की यह विधि वास्तव में हमारे इतिहास की एक अनमोल निधि है। इस पर हमको विचार करना चाहिए और अपने पूर्वजों के द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम को आज भी लागू करना चाहिए। इतिहास केवल भूल जाने की चीज नहीं है बल्कि इतिहास निरंतर प्रवाहित होने वाली एक सरिता है जो प्राचीन काल से लेकर अद्यतन प्रवाहित हो रही है और आगे भी होती रहेगी। इसे अतीत के संदर्भ में समझना और वहीं तक सीमित कर देना हमारी भूल होती है।
स्त्रियों को मिलता था वेद पढ़ने का अधिकार
ऋषि दयानंद ने यह भी सिद्ध किया कि प्राचीन भारत में स्त्रियों को वेद पढ़ने का अर्थात शिक्षा ग्रहण करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त था। स्त्रीशूद्रौ नाधीयातामिति श्रुतेः अर्थात स्त्री और शूद्र न पढ़ें , इसे श्रुति वाक्य मानकर लोग नारी शिक्षा का विरोध करते थे । तब महर्षि दयानंद ने कहा कि नारी को शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार है।इसका प्रमाण यजुर्वेद के छब्बीसवें अध्याय में दूसरा मन्त्र है-
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः ।
ब्रह्मराजन्याभ्या शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय ।।
परमेश्वर कहता है कि (यथा) जैसे मैं (जनेभ्यः) सब मनुष्यों के लिये (इमाम्) इस (कल्याणीम्) कल्याण अर्थात् संसार और मुक्ति के सुख देनेहारी (वाचम्) ऋग्वेदादि चारों वेदों की वाणी का (आ वदानि) उपदेश करता हूं वैसे तुम भी किया करो।
यहां पर प्रयुक्त किए गए जन शब्द का अर्थ महर्षि दयानंद ने चारों वर्णों के सभी लोगों के लिए लगाया है। वेद की इस व्यवस्था को परमेश्वर की व्यवस्था बताकर उन्होंने नारी शिक्षा के पक्ष में ठोस तर्क प्रस्तुत किया है। अतः नारी शिक्षा भारतीय इतिहास दर्शन की परंपरा है।
प्राचीन काल से ही भारत में युवा जोड़ों के विवाह संस्कार करने की परंपरा रही है। बालक बालिकाओं के विवाह भारत में पूरी तरह निषेध थे। मुसलमानों के आने के पश्चात भारत में यह कुरीति फैली। क्योंकि उस समय मुगल हमारी कन्याओं का जबरन हरण कर लिया करते थे। उससे बचने के लिए पर्दा प्रथा जैसी निंदनीय प्रथा को भी आर्य हिंदू समाज ने अपना लिया।
वेद में कन्याओं के पढ़ने का प्रमाण-
ब्रह्मचर्य्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम् ।।
-अथर्व० अ० ३। प्र० २४। कां० ११। मं० १८।।
जैसे लड़के ब्रह्मचर्य सेवन से पूर्ण विद्या और सुशिक्षा को प्राप्त होके युवती, विदुषी, अपने अनुकूल प्रिय सदृश स्त्रियों के साथ विवाह करते हैं वैसे (कन्या) कुमारी (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य सेवन से वेदादि शास्त्रें को पढ़ पूर्ण विद्या और उत्तम शिक्षा को प्राप्त युवती होके पूर्ण युवावस्था में अपने सदृश प्रिय विद्वान् (युवानम्) और पूर्ण युवावस्थायुक्त पुरुष को (विन्दते) प्राप्त होवे।
महर्षि के इस प्रमाण से जहां नारियों की शिक्षा के संबंध में वेद का समर्थन प्राप्त होता है, वहीं युवाओं के परस्पर विवाह होने से भारत में बाल विवाह की पोल भी खुल जाती है।
प्राचीन भारत में ज्ञान-विज्ञान की रक्षा करने के लिए उत्तम नागरिकों का निर्माण करना राजधर्म में सम्मिलित था। राजा की ओर से यह व्यवस्था की जाती थी कि कोई भी बालक बालिका शिक्षा से वंचित न रह जाए। भारत में अज्ञान को मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु माना गया है। इसलिए विद्या को बेचा नहीं जाता था अर्थात महंगी शिक्षा की व्यवस्था प्राचीन भारत में नहीं थी। शिक्षा को महंगा अंग्रेजों के शासन काल में किया गया है।
महंगी शिक्षा बना रही है शूद्र
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी महंगी शिक्षा की इस बुराई को यथावत अपनाए रखा गया है। भारतवर्ष में तो विद्या का दान किया जाता था। आज शिक्षा बेची जा रही है। बेची जाने वाली इस शिक्षा को प्राप्त करना हर किसी के बस की बात नहीं है। यही कारण है कि अनेक प्रतिभाएं शिक्षा से इसलिए वंचित रह जाती हैं कि उनके पास उसे खरीदने के साधन नहीं होते। हमारे ऋषियों के इस चिंतन के प्रति हमें कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्होंने शिक्षा की अनिवार्यता को सर्व सुलभ कराने के लिए इसके दान करने की व्यवस्था बनाई। आज अधिकांश लोग शिक्षा से वंचित होकर शूद्र रह जाते हैं। यह महंगी शिक्षा आज के अनेक युवाओं को या बालकों को शुद्र बना रही है।
कहने का अभिप्राय है कि ना तो उस समय का शासन प्रशासन ही शिक्षा के नाम पर पैसे वसूलता था और ना ही अध्यापक अध्यापिकाएं पैसे वसूलते थे।आचार्य के लिए वेतन नहीं होता था अपितु उनकी सारी जिम्मेदारियों को राजा के लोग स्वयं वहन किया करते थे। राजा द्वारा शिक्षा देने की इस व्यवस्था की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए ऋषि दयानंद जी ने सप्रमाण लिखा है कि :-
कन्यानां सम्प्रदानं च कुमाराणां च रक्षणम्।। मनु०।।
राजा को योग्य है कि सब कन्या और लड़कों को उक्त समय तक ब्रह्मचर्य में रखके विद्वान् कराना। जो कोई इस आज्ञा को न माने तो उस के माता पिता को दण्ड देना अर्थात् राजा की आज्ञा से आठ वर्ष के पश्चात् लड़का वा लड़की किसी के घर में न रहने पावें किन्तु आचार्य्यकुल में रहैं। जब तक समावर्त्तन का समय न आवे तब तक विवाह न होने पावे।
स्वामी दयानंद जी महाराज के इस चिंतन से स्पष्ट है कि वह बालक बालिकाओं को शिक्षित कर संस्कारवान बनाने पर बल देते थे। इसके लिए वह इस प्रकार की विधि बनाने के लिए समर्थक थे कि जो माता-पिता अपने बच्चों को अर्थात बालक बालिकाओं को शिक्षा देने के उनके मौलिक अधिकार से वंचित करते हैं वह भी दंडनीय है। विद्यादान को सबसे बड़ा दान भारत में माना जाता था। इसके समर्थन में स्वामी जी महाराज ने महर्षि मनु को उद्धृत किया है।
सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते ।। मनु०।।
संसार में जितने दान हैं अर्थात् जल, अन्न, गौ, पृथिवी, वस्त्र, तिल, सुवर्ण और घृतादि इन सब दानों से वेदविद्या का दान अतिश्रेष्ठ है। इसलिये जितना बन सके उतना प्रयत्न तन, मन, धन से विद्या की वृद्धि में किया करें। जिस देश में यथायोग्य ब्रह्मचर्य विद्या और वेदोक्त धर्म का प्रचार होता है वही देश सौभाग्यवान् होता है।
आज हम कथाकारों को देखते हैं कि वह अपने प्रवचनों को भी बेचते हैं। लाखों लाखों रुपए का दान अर्थात प्रवचन की कीमत लेकर वह अपने ज्ञान को लोगों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। उनके विषय में यह बात तो और भी अधिक दुखदायी है कि अपने प्रवचनों में वह लोगों के भीतर पाखंड और अंधविश्वासों को अधिक परोस जाते हैं। कहने का अभिप्राय है कि प्रवचन या ज्ञान को बेचने की बात को भी यदि स्वीकार कर लिया जाए तो वह प्रवचन ज्ञान या विद्या दान कम से कम शुद्ध और पवित्र तो होना ही चाहिए। पर वे इसकी शुद्धता और पवित्रता का भी ध्यान नहीं रखते हैं। अब आर्य समाज के भीतर भी ऐसे विद्वान पैदा होने लगे हैं जो अपने प्रवचनों की कीमत लेते हैं। इस पर निश्चय ही आर्य समाज को भी सोचना चाहिए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
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मुख्य संपादक, उगता भारत