क्या है गोवर्धन? गौ का क्या तात्पर्य है? इन सभी प्रश्नों का शास्त्रोक्त उत्तर देने से पूर्व एक असत्य घटना को उद्धृत करना आवश्यक समझता हूं, क्योंकि इसी घटना से अथवा कथानक से गोवर्धन पूजा का आरंभ होना माना जाता है।
एक बार मथुरा गोवर्धन अर्थात ब्रजभूमि में 7 दिन तक लगातार वर्षा होती रही, जब लोग परेशान हो गए तो कृष्ण जी ने सभी की रक्षा करने के लिए सभी लोगों को गोवर्धन पहाड़ पर बैठाकर अपनी छोटी अंगुली (कनिष्ठा) पर पहाड़ को उठा लिया था और फिर वर्षा समाप्त होने के पश्चात पहाड़ को नीचे रख दिया था।
अब यहीं से विचार करना और तर्क बुद्धि से सोचना आवश्यक हो गया कि क्या ऐसा संभव हो सकता है?
इस प्रकार की असंभव और असत्य घटनाओं को लेकर उन लोगों को विश्वास हो सकता है जो विचार नहीं करते या जो लोग तर्कों में विश्वास नहीं करते या जो लोग अपने बुद्धि और विवेक का उपयोग नहीं करते, जो परंपरा, रूढ़ि और पीढ़ी की बातों को मानते हैं। उनका उत्तर निश्चित रूप से यह होगा कि हां कृष्ण जी भगवान थे, वह सब कुछ कर सकते हैं।
वेद की शैली में यदि विचार किया जाए तो यह भी सत्य है कि कृष्ण जी भगवान नहीं थे बल्कि श्री कृष्ण महाराज एक कर्मयोगी थे। एक परम विद्वान थे। श्री कृष्ण जी महाराज एक विवेकी पुरुष थे। वह एक आप्तपुरुष थे।
श्री कृष्ण जी महाराज स्थितप्रज्ञ थे। श्री कृष्ण जी महाराज ईश्वर के अवतार नहीं थे, क्योंकि ईश्वर को कभी भी अवतार रूप धारण करके पृथ्वी पर सशरीर आने की आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि ईश्वर सर्वशक्तिमान है। क्योंकि ईश्वर सब कुछ करने में समर्थ है। उसने बिना शरीर के सारी सृष्टि का निर्माण किया है और प्रलय भी करता है। ईश्वर का किसी विशेष कार्य को करने के लिए सशरीर पृथ्वी पर आना वेद की विद्या के विरुद्ध है।
लेकिन फिर भी गोवर्धन नाम के कस्बे में ब्रज भूमि मथुरा के आसपास में गोवर्धन परिक्रमा के भिन्न भिन्न प्रकार प्रारंभ हो गए हैं।
पद परिक्रमा, दुग्ध परिक्रमा, सोहनी सेवा परिक्रमा, दंडवत परिक्रमा, पति-पत्नी दंडवत परिक्रमा ,108 दंडवत परिक्रमा, 21 किलोमीटर की लंबाई की गोलाकार पथ पर होती है जो गोवर्धन पर्वत के चारों ओर संपन्न की जाती है।
इसके अलावा यहां पर संकर्षण कुंड, गौरी कुंड ,नीप कुंड, गोविंद कुंड ,गंधर्व कुंड, अप्सरा कुंड, नवल कुंड, सुरभी कुंड, इंद्र कुंड, एरावत कुंड, रूद्र कुंड, मांड कुंड, अथवा उदर कुंड, सूरजकुंड, विष्णु कुंड, उद्धव कुंड, ललिता कुंड ,राधा कुंड ,श्याम कुंड, कुसुम सरोवर ,चंद्र सरोवर आदि भी दर्शनीय एवं पूजनीय स्थल बताए जाते हैं।
उपरोक्त स्थान केवल कल्पित हैं। उनका वास्तविक गोवर्धन से कोई संबंध दूर-दूर तक नहीं है। केवल कुछ लोगों को मूर्ख बना कर टका बटोरने के लिए तथा अपनी जठराग्नि शांत करने के लिए कुछ लोगों के द्वारा पाखंडियों के द्वारा बना लिए गए हैं। बौद्धिक स्तर पर इनका कोई वैज्ञानिक उद्देश्य महत्व नहीं है।
अब आते हैं कि गौ क्या है ? वास्तव में गौ का तात्पर्य इंद्रियों से है। गौ का तात्पर्य गौ माता से है। गौ का तात्पर्य चंद्रमा से है।
गोवर्धन का तात्पर्य गौ माता के गोबर से है। गौ माता का गोबर एवं मूत्र भी बहुत ही मूल्यवान होता है। गौ माता आनंद की देने वाली होती है। गौमाता दूध भी देती है, जिसका दुग्ध अमृत के समान होता है। गौ माता का दूध निरोग बनाता है। गौमाता का घृत पुष्ट एवं बलवान बनाता है। गौमाता को धेनु भी कहा जाता है। धेनु अर्थात धन की वर्षा करने वाली। गौ माता के गोबर से, मूत्र से, घी से, तथा बछड़े पैदा करके फसल उत्पन्न करने से देश की संपदा तथा उन्नति में वृद्धि करने में सहायता मिलती है। गोबर जो गाय से प्राप्त होता है वह एक प्रकार का धन है। जो फसल और वनस्पति को उत्पन्न करने में, फल फूल प्रदान करने में अति सहायक है।
इसलिए गायों का पालन ,पोषण, परिवर्धन, संवर्धन करना हमारा प्रथम पावन, राष्ट्रीय उत्तरदायित्व है। गायों का भिन्न भिन्न प्रकार से संवर्धन, परिवर्धन करना ही गोवर्धन है। अर्थात गाय की वृद्धि करनी चाहिए। यही वास्तव में यज्ञ हवन है।
कृष्ण जी का पालन पोषण जिस घर में है नंद के यहां हुआ था नंद को नंद की उपाधि मिली थी और नंद उसे कहते हैं जिसके पास कम से कम 9 लाख गाय होती हो।
श्री कृष्ण जी गौ भक्त थे। महाराजा जनक के राष्ट्र में गोमेध याग अनेक बार आयोजित किए गए थे। राजा जनक को देव पूजन की प्रेरणा गोमेध याग से ही प्राप्त हुई थी। महर्षि पिप्पलाद आश्रम में गोमेध याग अनेक बार संपन्न किया गया था।
इसी प्रकार महाराजा वशिष्ठ मुनि महाराज और माता अरुंधति के द्वार पर भी कामधेनु थी।
ऋषि वशिष्ठ मुनि महाराज के द्वार पर भी कामधेनु गौ थी। जिसके दुग्ध का वे आहार करते थे। कामधेनु का अभिप्राय यह है कि जो मानव की कामनाओं की पूर्ति कर दे ।
वह कैसी गौ थी ? गौ नाम विद्या का भी है। गौ नाम पशुओं का भी होता है। परंतु यह जो गौ कामधेनु है ,वह तो इंद्र से प्राप्त हुई है। परमात्मा की उपासना से जो उन्हें कामधेनु प्राप्त हुई थी, वह मन की कामनाओं की पूर्ति करने वाली थी। वह विद्या योग विद्या कहलाती है। उसको कामधेनु कहते हैं। पुरातन काल में हम वशिष्ठ जी के आश्रम में कामधेनु गाय की चर्चा खूब सुनते आए हैं।
एक आध्यात्मिक कथा सुनो। महर्षि वाल्मीकि के द्वार पर एक ऋषि आए। महर्षि बाल्मीकि ने उनका स्वागत गांव के बछड़े को मारकर किया। अब यह एक अलंकारिक भाषा है। ऐसी अलंकारिक भाषा को जो नहीं समझते हैं जो अज्ञानी होते हैं।
जनसाधारण तो यही मानेंगे कि गाय का बछड़ा मारकर वाल्मीकि ऋषि ने आए हुए मेहमान ऋषि को स्वागत में खिलाया था। जबकि ऐसी अलंकारिक भाषाएं बहुत मिल जाती हैं, जिनके आध्यात्मिक अर्थ कुछ अलग ही होते हैं। जैसे वेदों में कितनी जगह पर आया है कि आकाश में समुद्र है। जिसका तात्पर्य है कि आकाश में बादल होते हैं. जिनमें पानी होता है उसको भी समुद्र कहा जाता है। ऐसे ही दार्शनिक रूप को जान लेना चाहिए। मन बछड़े की तरह चंचल होता है। गौ नाम आत्मा का है और जो उसका पुत्रवत बछड़ा है ।वह मन अर्थात वाल्मीकि ऋषि ने मन रूपी बछड़े को मार कर अर्थात उस पर नियंत्रण करके आगंतुक ऋषि का स्वागत किया।
इसलिए गोवर्धन के साथ उसका वास्तविक स्वरूप और उसका वास्तविक अर्थ जानते हुए सही संदर्भ में लेने का प्रयास करें। अन्याय एवं अनर्थ न करें। गोवर्धन का दार्शनिक रूप, आध्यात्मिक रूप ग्रहण करें।
अब गौ का तीसरा अर्थ देखते हैं। गौ चंद्रमा को भी कहते हैं। चंद्रमा की आभा, चंद्रमा की कांति और चंद्रमा की शीतलता बहुत ही शुद्ध होती है।
चंद्रमा की इसी कांति में लगभग 101 व्याहृतियां होती हैं ,और यह जहां जहां जाती हैं जिस जिस तत्व पर जिस धातु पर पड़ती हैं, उन्हीं धातुओं को वह कांति दायक बनाती है। इसी से विष, स्वर्ण आदि बनते हैं। चंद्रमा को गौतम भी कहते हैं।
क्योंकि इसकी करना कम अर्थात अंधकार को शीतलता पूर्वक हरने वाली होती हैं,या दूर करने वाली होती हैं। क्योंकि वह शीतलता देता है और अमृत देता है। माता के गर्भ स्थल में जब हम प्रविष्ट होते हैं तो उस समय माता के निचले विभाग में एक त्रिधित नाम की नाडी होती है, उसके द्वारा चंद्रमा की कांति नाडियों में रमण करती हुई प्राणोमय कोष में जाती हैं। माता के द्वारा जो प्राण सत्ता बालक को मिलती है उसमें मिश्रित हो करके उस बालक को अमृत प्रदान करती है ।
शिव नाम परमात्मा का है और पार्वती नाम प्रकृति का है। सृष्टि के प्रारंभ में जब संसार का प्रादुर्भाव हुआ, सृष्टि संरचना हुई, उस समय परमपिता परमात्मा अर्थात शिव ने इस महतत्व रूपी डमरु( बुद्धि) को बजाया या बनाया और (बुद्धि) डमरु के बजने से यह माता पार्वती रूपी प्रकृति साकार होकर नृत्य करने लगी अर्थात यह नाना रूपों में रची गई।
महर्षि पाणिनि ने इसी से व्याकरण के 14 सूत्रों को जाना और योगाभ्यास किया। शिवजी और पार्वती दोनों जो मनुष्य थे उनका इस गोवर्धन से कोई संबंध किसी प्रकार का नहीं है। शिवजी एक योगी थे और पार्वती उनकी पत्नी थी। वह योगी शिव जी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय तीनों को प्राप्त हुए इस प्रकार वह ईश्वर नहीं हो सकते और यह ऊपर बताया जा चुका है कि ईश्वर का कोई अवतार भी नहीं होता। अतः शिवजी ईश्वर के अवतार भी नहीं थे। कहने का अभिप्राय है कि शिवलिंग के वास्तविक अर्थ को समझो।
गोबर से शिव के लिंग का निर्माण करके और पूजा करना केवल उन्हीं का काम है जिनके बुद्धि अथवा दिमाग में गोबर भरा हुआ है। सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए यह महर्षि दयानंद का कथन है। इसलिए गोबर के शिवलिंग की पूजा की भ्रांति से ऊपर उठकर वास्तविक शिव ईश्वर की उपासना करें। क्योंकि ईश्वर की कोई प्रतिमा नहीं, कोई मूर्ति नहीं तो गोबर का शिवलिंग बनाकर उसकी कोई पूजा नहीं होनी चाहिए।यह सभी वैदिक शिक्षा, वैदिक पद्धति, वैदिक नीति और रीति के विपरीत है।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन : उगता भारत समाचार पत्र
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।