दिल्ली में दिवाली की आतिशबाजी का इतिहास
पूनम गौड़
लगभग 2200 साल पहले चीन में बांस के डंडों को पटाखे के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। इन डंडों को आग में डालने से आवाज निकलती थी। माना जाता है कि चीन में एक रसोइये ने गलती से सॉल्टपीटर (पोटैशियम नाइट्रेट) आग में डाल दिया था। इससे आग का रंग बदला और लोगों में उत्सुकता पैदा हुई। इसके बाद रसोइए ने आग में कोयले और सल्फर का मिश्रण डाला। इससे रंग बदलने के साथ तेज आवाज भी हुई। इसके बाद चीन में यह चलन परंपरा बन गई और बांस को आग में डालकर उसके फटने की आवाज सुनना शुभ माना जाने लगा।
भारत में आतिशबाजी : 13वीं और 15वीं शताब्दी में चीन से निकलकर पटाखे यूरोप और अरब समेत दुनिया के कई हिस्सों में आए। यूरोप के शासक तो जश्न मनाने के लिए आतिशबाजी ही करने लगे। बात भारत की करें तो 1526 में मुगलों के आने के साथ ही देश में पटाखों का इस्तेमाल बढ़ा। पानीपत का पहला युद्ध था, जिसमें बारूद और तोप का इस्तेमाल हुआ। 17वीं और 18वीं शताब्दी में दिल्ली और आगरा में आतिशबाजी की परंपरा बढ़ी। इतिहासकारों के अनुसार दिवाली पर आतिशबाजी की परंपरा कोटा से शुरू हुई थी, जहां चार दिनों तक दिवाली मनाई जाती है। कहते हैं कि यहां के राजा ने 4 दिनों तक आतिशबाजी करवाई थी। 20वीं शताब्दी में भारत में पटाखे का चलन बढ़ा और त्योहार और जश्न के माहौल में इसका खूब इस्तेमाल होने लगा।
19वीं सदी में एक मिट्टी की छोटी मटकी में बारूद को भरकर पटाखा बनाया जाता था। इसे जमीन में पटकने से रोशनी के साथ आवाज होती थी। माना जाता है पटकने से ही पटाखा शब्द आया है। इसे तब भक्कापू या बंगाल लाइट्स कहा जाता था-
– स्कंदपुराण के खंड 2 में एक श्लोक में पटाखों का जिक्र है। यह श्लोक है- तुलासंस्थे सहस्रांशी प्रदोषे भूतदर्शयो: ।
उल्काहस्ता नरा: नरा: कुर्पु: पितृणां मार्गदर्शनम्। यहां उल्काहस्ता से मतलब हाथ से अग्नि की बारिश यानी फुलझड़ी से है।
– त्रेता और द्वापर युग की कथाओं में आग्नेय अस्त्र का जिक्र है। यह अस्त्र आग बरसाता था। हालांकि इतिहासकारों को इनके पक्के सबूत नहीं मिले हैं।
– संत एकनाथ की कविता रुक्मणी स्वयंवर में भी कृष्ण रुक्मणी के विवाह में आतिशबाजी का जिक्र है।
शिवकाशी के पटाखे : अब भारत में तमिलनाडु का शिवकाशी पटाखा बनाने का सबसे बड़ा केंद्र है। लेकिन अंग्रेजों के समय में पटाखे बनाने का काम कलकत्ता में हुआ करता था। उस समय बंगाल उद्योग का केंद्र था। वहां पर माचिस की फैक्ट्री थी, जिसमें बारूद का इस्तेमाल होता था। यहीं पर आधुनिक भारत की पहली पटाखा फैक्ट्री लगी। दरअसल, पी अय्या नादर और उनके भाई शांमुगा 1923 में नौकरी के लिए बंगाल की माचिस फैक्ट्री पहुंचे। यहां उन्होंने माचिस बनाने का कौशल सीखा। कलकत्ता से आठ महीने बाद जब नादर बंधु शिवकाशी लौटे तो जर्मनी से मशीनें मंगाकर माचिस बनाने का काम शुरू किया। आइए जानते हैं पटाखों से जुड़े कुछ तथ्य-
– दुनिया में पटाखों का सबसे बड़ा उत्पादक चीन है। दूसरे नंबर पर भारत है।
– भारत में पटाखों का व्यापार 2600 करोड़ रुपये से ज्यादा का है।
– 1940 में अंग्रेज सरकार ने इंडियन एक्सप्लोसिव एक्ट बनाया। इसके बाद आतिशबाजी बनाने से लेकर रखने तक के लिए लाइसेंस की जरूरत पड़ने लगी। आतिशबाजी की पहली आधिकारिक फैक्ट्री भी 1940 में ही बनी।
– पटाखों से होने वाला प्रदूषण भी कम नहीं है। एक फुलझड़ी जलने से 74 सिगरेट के बराबर धुआं निकलता है। सांप को जलाने से 462 सिगरेट जितना धुंआ और अनार को जलाने से 34 सिगरेट पीने जितना धुआं निकलता है।
कब लगी रोक : सबसे पहले सुप्रीम कोर्ट ने साल 2017 में राजधानी दिल्ली में पटाखों पर बैन लगाया। इसके बाद 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने पटाखों पर पूरे देश में बैन लगाया। सिर्फ ग्रीन पटाखों को मंजूरी दी गई। 2019 में रात आठ से 10 बजे के बीच दिल्ली में ग्रीन पटाखों को जलाने की छूट दी गई। लेकिन 2020, 2021 और अब 2022 में राजधानी में पटाखे पूरी तरह बैन रहे।