क्षत्रिय भी वेदाध्ययन करने वाले हों
वेद मनुष्य के मनुष्यत्व को देवत्व में परिवर्तित करने की शक्ति और सामर्थ्य रखते हैं। इनके अध्ययन से मनुष्य देवत्व की अपनी साधना को प्राप्त करता है। उसी से वह मोक्ष की प्राप्ति करने में सफल होता है। इस प्रकार वेदाध्ययन मनुष्य को मोक्ष दिलाता है । जबकि अन्य सांसारिक पुस्तकें मनुष्य को अपने इस ध्येय से भटकाती हैं। महर्षि दयानंद की मान्यता है कि जो वेद आदि को छोड़कर अन्य पुस्तकों का अध्ययन करता है ,वह शीघ्र ही शूद्रपन को प्राप्त हो जाता है। इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि जो लोग अश्लील उपन्यास पढ़ने में अपने समय को नष्ट करते रहते हैं उनकी स्थिति क्या होती है ? वे पढ़े लिखे होकर भी शूद्र ही होते हैं।
इतना ही नहीं आजकल की स्कूली और अंग्रेजी मीडियम की शिक्षा पद्धति भी देश के लोगों का तेजी से शूद्रीकरण कर रही है। उनके भीतर आत्मतत्व को खोजने और अंत में मोक्ष की प्राप्ति की तनिक सी भी भावना नहीं मिलती। वेद वेदांग, उपनिषद् आदि आर्ष ग्रंथों के प्रति उनकी नीरसता और उपेक्षा भाव के चलते इनका वही हाल हो चुका है जो कभी भारतवर्ष में शूद्रों का हुआ करता था। अंतर केवल इतना है कि आज के यह शूद्र पढ़ लिख कर भी शूद्र ही रह जाते हैं जबकि प्राचीन काल में शुद्र वही होता था जो पर्याप्त समय, साधन और सहयोग मिलने के उपरांत भी पढ़ लिख नहीं पाते थे और अपने आपको संस्कारित करने से अछूता बना लेते थे। हमारे यहां से शिक्षा का अभिप्राय आत्मा का परिष्कार करना था। शिक्षा देश में आज भी दी जा रही है, परंतु इस शिक्षा का आत्मा का परिष्कार करने से कोई संबंध नहीं है। यह धन कमाने के लिए दी जा रही शिक्षा है और यह धन ही हमारे निधन का कारण बन रहा है।
दुर्गुणों से होता है जीवन का नाश
महर्षि दयानंद लिखते हैं कि ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी मद्य, मांस, गन्ध, माला, रस, स्त्री और पुरुष का संग, सब खटाई, प्राणियों की हिसा,अंगों का मर्दन, विना निमित्त उपस्थेन्द्रिय का स्पर्श, आंखों में अञ्जन, जूते और छत्र का धारण, काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोक, ईर्ष्या, द्वेष और नाच गान, बाजा बजाना,द्यूत, जिस किसी की कथा, निन्दा, मिथ्याभाषण, स्त्रियों का दर्शन, आश्रय, दूसरे की हानि आदि कुकर्मों को सदा छोड़ देवें।सर्वत्र एकाकी सोवे, वीर्य्य स्खलित कभी न करें, जो कामना से वीर्यस्खलित कर दे तो जानो कि अपने ब्रह्मचर्य्यव्रत का नाश कर दिया।
वास्तव में दुर्गुणों को अपनाने से जीवन का ही नाश होता है। सद्विद्या के ग्रहण करने से दुर्गुणों का नाश होता है और सद्गुणों का विकास होता है। सद्गुण जीवन को उत्कृष्टता में ढालते हैं और मनुष्य संसार के लिए उपयोगी जीवन को जीने का अभ्यासी हो जाता है।राष्ट्र के लिए एक सुयोग्य नागरिक देने की अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए हमारे आचार्य लोग प्राचीन काल में अपने शिष्य और शिष्याओं को ऐसी शिक्षा दिया करते थे जिससे वह समाज रूपी गाड़ी के एक महत्वपूर्ण पुर्जा बनकर आचार्य के गुरुकुल से बाहर आया करते थे।
तैत्तिरीय उपनिषद की तत्संबंधी व्यवस्था का उल्लेख करते हुए महर्षि लिखते हैं कि प्रत्येक आचार्य को अपने शिष्य और शिष्याओं को यही शिक्षा देनी चाहिए कि तू सदा सत्य बोल, धर्माचार कर, प्रमादरहित होके पढ़ पढ़ा, पूर्ण ब्रह्मचर्य्य से समस्त विद्याओं को ग्रहण कर और आचार्य्य के लिये प्रिय धन देकर विवाह करके सन्तानोत्पत्ति कर ।”
वास्तव में उस समय शिक्षा का उद्देश्य राष्ट्र समाज और प्राणी मात्र के लिए उत्तम से उत्तम नागरिक का निर्माण करना होता था। यह नागरिक परस्पर समन्वय का भाव विकसित करने के लिए लोगों को एक दूसरे के साथ जोड़ने का काम करते थे। उनके ऐसे प्रयासों से समाज में समरसता का भाव बनता था। आज की शिक्षा कंपीटीशन को बढ़ाने वाली शिक्षा है। जिसने समाज के भीतर समरसता को मारकर सबको एक दूसरे से आगे निकल जाने के मूर्खतापूर्ण कंपीटीशन में ढाल दिया है।
सत्य बोलो और धर्म पर चलो
सत्य बोलना और धर्म पर चलना यह जीवन की एक ऐसी पगडंडी है जिसे पकड़ कर मनुष्य आत्मोन्नति कर सकता है। यदि इस पगडंडी को पकड़ लिया जाए तो संसार के अनेक उपद्रवों को हमारे सामने आने का साहस तक नहीं हो सकता या तो वह स्वयं ही निपट जाएंगे और यदि किसी कारणवश आ भी गए तो हम उन्हें अपने आत्मिक बल से परास्त कर देंगे। ईश्वर भक्त और धर्म का अनुयायी व्यक्ति बड़ी से बड़ी बाधा से घबराता नहीं है। उसके भीतर आत्मविश्वास भरा होता है। वह बड़ी भारी भीड़ से भी भिड़ जाने का साहस रखता है। इसके विपरीत बड़ी भारी भीड़ ऐसे बलवान, सभ्य। योद्धा को देखकर स्वयं मैदान खाली कर देती है।
धर्म के मार्ग पर चलना बड़ा कठिन है ,परंतु यहां पर महर्षि दयानंद जी ने हमें इस रास्ते पर चलने का ढंग बता दिया है। उन्होंने कहा है कि सत्य बोल और धर्म आचरण कर। प्रमाद से सत्य को कभी मत छोड़। प्रमाद से धर्म का त्याग मत कर, प्रमाद से आरोग्य और चतुराई को मत छोड़, प्रमाद से पढ़ने और पढ़ाने को कभी मत छोड़। देव विद्वान् और माता पितादि की सेवा में प्रमाद मत कर।
जैसे विद्वान् का सत्कार करे उसी प्रकार माता, पिता, आचार्य्य और अतिथि की सेवा सदा किया कर। जो अनिन्दित धर्मयुक्त कर्म हैं, उन सत्यभाषणादि को किया कर, उन से भिन्न मिथ्याभाषणादि कभी मत कर।
जो हमारे सुचरित्र अर्थात् धर्मयुक्त कर्म हों उनको ग्रहण कर और जो हमारे पापाचारण हों उन को कभी मत कर। जो कोई हमारे मध्य में उत्तम विद्वान् धर्मात्मा ब्राह्मण हैं उन्हीं के समीप बैठ और उन्हीं का विश्वास किया कर, श्रद्धा से देना, अश्रद्धा से देना, शोभा से देना, लज्जा से देना, भय से देना और प्रतिज्ञा से भी देना चाहिए। जब कभी तुझ को कर्म वा शील तथा उपासना ज्ञान में किसी प्रकार का संशय उत्पन्न हो तो जो वे समदर्शी पक्षपातरहित योगी अयोगी आर्द्रचित्त धर्म की कामना करने वाले धर्मात्मा जन हों जैसे वे धर्ममार्ग में वर्तें वैसे तू भी उसमें वर्त्ता कर। यही आदेश आज्ञा, यही उपदेश, यही वेद की उपनिषत् और यही शिक्षा है। इसी प्रकार वर्त्तना और अपना चाल चलन सुधारना चाहिए।
महर्षि दयानंद जी ने धर्म के विषय में यह भी स्पष्ट किया है कि :-
श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।
एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्।। मनु०।।
श्रुति वेद, स्मृति वेदानुकूल आप्तोक्त मनुस्मृत्यादि शास्त्र, सत्पुरुषों का आचार जो सनातन अर्थात् वेदद्वारा परमेश्वरप्रतिपादित कर्म्म और अपने आत्मा में प्रिय अर्थात् जिस को आत्मा चाहता है जैसे कि सत्यभाषण ये चार धर्म के लक्षण अर्थात् इन्हीं में धर्माधर्म का निश्चय होता है। जो पक्षपातरहित न्याय, सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्यागरूप आचार है उसी का नाम धर्म और इस से विपरीत जो पक्षपात सहित अन्यायाचरण सत्य का त्याग और असत्य का ग्रहण रूप कर्म है उसी को अधर्म कहते हैं।
जिन लोगों ने धर्म स्थलों पर अर्थात मंदिर ,मस्जिद ,चर्च, गुरुद्वारे आदि में किसी संप्रदाय विशेष के लोगों को ही आने की अनुमति देने का विधान किया है उनके ऐसे विधान और उनकी ऐसी सोच अधर्म को प्रोत्साहित करने वाली होती है। यदि ऐसे तथाकथित धर्म स्थल पर किसी संप्रदाय विशेष के अतिरिक्त अन्य लोगों का आना निषिद्ध है तो समझिए कि वह धर्मस्थल नहीं है। क्योंकि उसकी व्यवस्थाओं में अपने आप ही पक्षपात, अन्याय और किसी वर्ग विशेष पर अत्याचार की गंध आती है।
धर्म स्थल बनाम संप्रदाय स्थल
धर्म स्थल उसी को मानना चाहिए जो मनुष्य मात्र से भी ऊपर प्राणी मात्र का चिंतन प्रस्तुत करता हो और ऐसे ही उत्कृष्ट चिंतन के मनुष्यों का निर्माण करना अपना उद्देश्य मानता हो।
जिन तथाकथित धर्म स्थलों में मानव को मानव न बनाकर किसी संप्रदाय विशेष के साथ जोड़ा जाता है और उसी के लिए मर मिटने की सौगंध उठाई जाती है, ऐसा धर्म स्थल संप्रदाय स्थल बन जाता है। इस प्रकार के संप्रदाय स्थलों से कवि शांति की फुआरा नहीं आ सकती। इसके विपरीत इन संप्रदाय स्थलों से विषैला धुआं ही निकलेगा।
इसके विपरीत यदि उसकी आज्ञाओं या व्यवस्थाओं में पक्षपात आदि झलकता है तो यह धर्म स्थल न होकर संप्रदाय- स्थल कहा जाना चाहिए । क्योंकि ऐसा करके वह सांप्रदायिकता को फैलाकर मनुष्य धर्म के विपरीत संदेश देता है। जिन लोगों ने वैदिक धर्म की मान्यता को न मानकर पूजा स्थलों पर किसी वर्ग विशेष के लोगों को आने से प्रतिबंधित किया। उन्होंने भी अपने अधर्म आचरण का प्रतिपादन किया। प्राचीन काल के आर्य लोग इस प्रकार की व्यवस्था के विरोधी थे। यही कारण था कि उस समय समाज में सर्वत्र शांति, समरसता और सम्मैत्री का भाव व्याप्त था। जहां यह तीनों चीजें होती हैं , वहीं धर्म का प्राबल्य होता है। ऐसे समाज और राष्ट्र में ही धर्म कर राज्य स्थापित होता है। इस प्रकार के धर्म के राज्य में सब एक दूसरे का हाथ पकड़कर चलते हैं।
आज जिस प्रकार समाज में अशांति व्याप्त दिखाई देती है, उसके पीछे ‘असत्य का ग्रहण रूप कर्म’ ही महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। समाज की इस प्रकार की अशांति को समाप्त करने के लिए हमें भारत के प्राचीन आर्यों के इतिहास से शिक्षा ग्रहण करनी होगी। उनका आचरण और व्यवहार हमें अपनाना होगा।
वेद से उत्तम कोई समाधान नहीं
महर्षि दयानंद की इस व्यवस्था पर भी हम ध्यान दें :-
अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते।
धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः।। मनु०।।
“जो पुरुष (अर्थ) सुवर्णादि रत्न और (काम) स्त्रीसेवनादि में नहीं फंसते हैं उन्हीं को धर्म का ज्ञान प्राप्त होता है जो धर्म के ज्ञान की इच्छा करें वे वेद द्वारा धर्म का निश्चय करें क्योंकि धर्माऽधर्म का निश्चय विना वेद के ठीक-ठीक नहीं होता।”
हमारे पूर्वज धर्म आदि के संबंध में या राजकाज की व्यवस्थाओं को लागू करने के लिए वेद को अपने लिए एक संविधान मानते थे। वेद से उत्तम कोई भी संविधान नहीं हो सकता । वेद अपौरुषेय होने के कारण ईश्वर प्रदत्त है। ईश्वर ने अपनी सृष्टि को सुव्यवस्थित ढंग से चलाए रखने के लिए सृष्टि के प्रारंभ में ही मनुष्य को यह वेदरूप संविधान दिया।
जैसे हम अपने राजकाज को चलाने के लिए आजकल संविधान के अनुच्छेदों का हवाला देते हैं या जहां भी कोई जटिलता आकर हमारे समक्ष खड़ी होती है तो हम संविधान से उसका निराकरण पूछते हैं, वैसे ही प्राचीन काल में हमारे आर्य लोग राजा, महाराजा या सम्राट आदि प्रत्येक प्रकार की जटिलता के समाधान के लिए वेद की शरण में जाते थे। इसके लिए उनके राज दरबार में मुगलों के काल जैसे नशेड़ी भंगेड़ी लोग नहीं बैठे होते थे, अपितु उस समय बहुत ही उत्कृष्टतम श्रेणी के विद्वान लोग वहां बैठे होते थे। जो पूर्णतया पक्षपातरहित होकर न्याय पूर्ण समाधान राजा को दिया करते थे। इतना ही नहीं, उस समय के राजा स्वयं भी बहुत अधिक विद्वान होते थे। वह स्वयं भी पंडितों से कई बार शास्त्रार्थ कर लिया करते थे और जो उचित होता था उसी को प्रजाहित में लागू करते थे। वेद की शिक्षाओं और वेद की व्यवस्थाओं से राजकाज चलता था तो राजा पूर्णतया पक्षपातरहित व्यवहार प्रजा के साथ करने में समर्थ होता था।
जब राजा स्वयं दार्शनिक होता है या ज्ञानी ,महात्मा, विद्वान होता है तो ऐसे राजा के राजदरबार में आने वाले विद्वान भी बहुत सावधान होकर और विषय की पूर्ण तैयारी के साथ उपस्थित होते हैं। उन्हें डर रहता है कि न जाने राजा किस विषय पर कैसी चर्चा आरंभ कर दें। यदि उस चर्चा में वह सम्मिलित नहीं हो पाये या अपना उचित संबोधन या मार्गदर्शन नहीं दे पाए तो वे उसे अपना अपमान समझते थे।
विद्या का अभ्यास आवश्यक
इस प्रसंग में महर्षि आगे लिखते हैं कि “इस प्रकार आचार्य्य अपने शिष्य को उपदेश करे और विशेषकर राजा इतर क्षत्रिय, वैश्य और उत्तम शूद्रजनों को भी विद्या का अभ्यास अवश्य करावें, क्योंकि जो ब्राह्मण हैं वे ही केवल विद्याभ्यास करें और क्षत्रियादि न करें तो विद्या, धर्म, राज्य और धनादि की वृद्धि कभी नहीं हो सकती।”
जब केवल ब्राह्मण ही विद्याध्ययन करने वाला होगा या वेदाभ्यास करने वाला होगा तो वह अपनी विद्या का दुरुपयोग कर सकता है। जैसा कि पौराणिक काल में हमने देखा भी। उस समय ब्राह्मणों ने क्षत्रियों को वेद आदि सदग्रंथों के अध्ययन से वंचित कर दिया । उन्हें केवल देश सेवा के कार्यों तक सीमित कर दिया। उसका परिणाम यह हुआ कि क्षत्रिय लोगों ने अंधे होकर ब्राह्मण के ब्रह्मवाक्यों को स्वीकार करना आरंभ कर दिया। जब क्षत्रियों का वेदाध्ययन लुप्त हुआ तो ब्राह्मणों में भी वेदाध्ययन के प्रति प्रमाद बढ़ा। क्योंकि उनसे प्रतिप्रश्न करने वाला कोई विद्वान क्षत्रिय नहीं रहा।
जब ब्राह्मणों को क्षत्रिय लोग अपने विद्वत्तापूर्ण तर्कों से घेरा करते थे, वह जमाना धीरे धीरे समाप्त हो गया। क्योंकि कई अहंकारी ब्राह्मणों को क्षत्रियों द्वारा इस प्रकार से ब्राह्मणों को घेरना अच्छा नहीं लगा तो उन्होंने षड्यंत्र के अंतर्गत क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तीनों को ही और इनके साथ साथ बाद में महिलाओं को भी वेद के अध्ययन से वंचित कर दिया। इससे आर्य संस्कृति का पतन हुआ। सनातन को इससे गंभीर खतरों का सामना करना गंभीर खतरों का सामना करना पड़ा। सनातन की इसी पतितावस्था का लाभ उठाकर संसार में अनेक प्रकार के संप्रदाय या मजहब आदि पैदा हुए।
कहने का अभिप्राय है कि आर्यों ने जब तक ब्राह्मणों के साथ साथ क्षत्रिय आदि को भी वेदाध्ययन करने का अवसर उपलब्ध कराया तब तक भारतीय संस्कृति फूलती फलती रही । कालांतर में जब इस व्यवस्था के विपरीत आचरण करना आरंभ किया तो व्यवस्था भंग हो गई।
संविधान में अपेक्षित संशोधन होना चाहिए
आज हमें इतिहास की इस गलती से शिक्षा लेनी चाहिए और अपने संविधान में राजाओं के वैदिक विद्वान, जितेंद्रिय आदि होने की अनिवार्यता स्थापित करनी चाहिए। वर्तमान में भारत की दुर्गति का कारण केवल यही है कि इसके संविधान में राजाओं के वैदिक विद्वान और जितेंद्रीय आदि होने की व्यवस्था नहीं की गई है। कोई भी मूर्ख व्यक्ति सत्ता के शीर्ष तक पहुंच सकता है । इतनी सुविधा देश के संविधान ने मूर्खों को प्रदान कर दी है। भारत का लोकतंत्र मूर्खों का ,मूर्खों के द्वारा, मूर्खों के लिए शासन नहीं है बल्कि यह विद्वानों का, विद्वानों के द्वारा, विद्वानों के लिए शासन है। इससे हमारा अभिप्राय है कि भारत की शासन व्यवस्था विद्वानों को पोषित करने वाली हो, विद्वानों का निर्माण करने वाली हो, जितेंद्रिय समाज बनाने वाली हो और जितेंद्रिय विद्वान लोगों को संरक्षण देकर उनके जीवन व्यवहार में बाधा डालने वालों लोगों का विनाश करने वाली हो। किसी आरक्षण या किसी और प्रकार की तुष्टिकरण की नीति के माध्यम से मूर्खों को प्रोत्साहन नहीं दिया जाना चाहिए। आरक्षण और तुष्टीकरण की नीति से लोकतंत्र मूर्खों का मूर्खों के द्वारा मूर्तियों के लिए शासन बन जाता है।
प्राचीन भारतीय इतिहास वेद की इसी व्यवस्था के अनुसार शासन चलता था। वही वास्तविक लोकतंत्र था। महर्षि दयानंद जी महाराज भारत की इसी उत्कृष्ट शासन व्यवस्था की ओर संकेत करते हैं। उनका यह चिंतन हमें अपने इतिहास की ओर लौटने के लिए प्रेरित करता है। स्वामी दयानंद जी महाराज के इस प्रकार के सदचिंतन से हमें अपने इतिहास के स्वर्णिम दौर की झलकी का आभास होता है।
महर्षि दयानंद जी महाराज अपनी बात को स्पष्ट करते हुए आगे लिखते हैं कि ब्राह्मण तो केवल पढ़ने पढ़ाने और क्षत्रियादि से जीविका को प्राप्त होके जीवन धारण कर सकते हैं। जीविका के आधीन और क्षत्रियादि के आज्ञादाता और यथावत् परीक्षक दण्डदाता न होने से ब्राह्मणादि सब वर्ण पाखण्ड ही में फंस जाते हैं और जब क्षत्रियादि विद्वान् होते हैं तब ब्राह्मण भी अधिक विद्याभ्यास और धर्मपथ में चलते हैं और उन क्षत्रियादि विद्वानों के सामने पाखण्ड, झूठा व्यवहार भी नहीं कर सकते और जब क्षत्रियादि अविद्वान् होते हैं तो वे जैसा अपने मन में आता है वैसा ही करते कराते हैं। इसलिये ब्राह्मण भी अपना कल्याण चाहैं तो क्षत्रियादि को वेदादि सत्यशास्त्र का अभ्यास अधिक प्रयत्न से करावें। क्योंकि क्षत्रियादि ही विद्या, धर्म, राज्य और लक्ष्मी की वृद्धि करने हारे हैं, वे कभी भिक्षावृत्ति नहीं करते, इसलिए वे विद्या व्यवहार में पक्षपाती भी नहीं हो सकते। और जब सब वर्णों में विद्या सुशिक्षा होती है तब कोई भी पाखण्डरूप अधर्मयुक्त मिथ्या व्यवहार को नहीं चला सकता।”
इसके आगे महर्षि बड़ी पते की बात कहते हैं कि “इससे क्या सिद्ध हुआ कि क्षत्रियादि को नियम में चलाने वाले ब्राह्मण और संन्यासी तथा ब्राह्मण और संन्यासी को सुनियम में चलाने वाले क्षत्रियादि होते हैं। इसलिये सब वर्णों के स्त्री पुरुषों में विद्या और धर्म का प्रचार अवश्य होना चाहिये।”
स्वामी जी महाराज के इस कथन से पता चलता है कि वे स्त्रियों को भी सुशिक्षा देने के पक्षधर थे। वास्तव में स्वामी दयानंद जी महाराज का हम पर बहुत भारी ऋण है, क्योंकि उनके शुद्ध और सदचिंतन के चलते ही नारियों को फिर से शिक्षा का अधिकार प्राप्त हुआ। यद्यपि शिक्षा की वर्तमान स्कूली प्रणाली ने वैसी नारी का निर्माण नहीं किया जैसी नारी का निर्माण स्वामी दयानंद जी महाराज चाहते थे। इसके उपरांत भी बहुत कुछ सुधार हुआ है। जिससे नारी बराबरी के अधिकार प्राप्त करने में सफल हुई है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
प्रकाशक का दूरभाष नंबर : 011 – 407122000।
मुख्य संपादक, उगता भारत