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*ताहवन दीदिवः प्रतिष्म रिषतो दह। अग्ने त्वं रक्षस्विनः*।।
घी से प्रदीप्त यज्ञाग्नि, हमारे प्रतिकूल शत्रुओं और दोषों को सर्वथा भस्म करने में समर्थ है।
*जिघम्र्यग्निं हविषा घृतेन प्रतिक्षियन्तं भुवनानि विश्वा*।।
सम्पूर्ण लोकों का आधार, प्रत्येक पदार्थ में विद्यमान अग्नि को मैं होम के योग्य घी से प्रदीप्त करता हूँ।
*यत्र सोमः सूयते यत्र यज्ञो घृतस्य धारा अभितत्पवन्ते*।
घी की धारा से सम्पन्न होने वाला यज्ञ, पवित्रता देता है तथा औषधियों में रस का संचार करता है।
*घृतमग्नेर्वध्य्रश्वस्य वर्धनं घृतमन्नं घृतम्वस्य मेदनम्*।
*घृतेनाहुत उर्विया वि पप्रथे सूर्य इव रोचते सर्पिरासुति*
तेजयुक्त अग्नि का बढ़ाने वाला घृृत है। घृत उसका अन्न है, घृत ही उसका पोषक है, घृत से हुत अग्नि अधिक विस्तार को प्राप्त होता है। घी की आहुति दी जाने से यह अग्नि सूर्य के समान दीप्त होती है।
घृतेन द्यावापृथिवी पूर्येथाम्।
यज्ञ के माध्यम से घी को द्यौ तथा पृथिवीलोक में भरें।
*घृतस्यास्मिन् यज्ञे धारयामा नमोभिः। घृतस्य धारा अभिचाकशीमि*।।
इस यज्ञ में अन्न आदि पदार्थों के साथ घी की धारा बहायें।
*अस्मभ्यं वृष्टिमा पव*।।
यज्ञों में वायु आदि देवों का उत्तम आहार-घृत की धारा बहाये जिससे वे हमें सुवृष्टिप्रदान करें।
*आज्येन वै वज्रेन देवा वृत्रमघ्नन्*।।
देवगण घी रूप वज्र से शत्रुरूप प्रदूषण का विनाश करते हैं।
आज्यं वै यज्ञः-
घी ही यज्ञ है।
यदसर्पत्तत्सर्पिः अभवत्।।
जो सर्प की तरह गतिशील है वह घृत सर्पि है अथवा जिस तरह सर्प हवा का जहर पीकर वायु को विषमुक्त करता है, वैसे ही सर्पि भी यज्ञ के द्वारा पर्यावरण को प्रदूषणमुक्त करने में समर्थ है।
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