सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विर्मश ( एक से सातवें समुल्लास के आधार पर) अध्याय 5 व्यक्तिगत जीवन है सार्वजनिक जीवन का आधार
आर्य लोग व्यक्तिगत जीवन की पवित्रता पर बल दिया करते थे। विवाह से पूर्व वीर्य स्खलन की संभावना उनके व्यक्तिगत जीवन में रंचमात्र भी नहीं होती थी। संतानोत्पत्ति के लिए विवाह करना उनके जीवन का लक्ष्य होता था। वीर्य शक्ति के संरक्षण से ही व्यक्तिगत जीवन की शुचिता बनी रह सकती है, इस बात को केवल और केवल हमारे ऋषि पूर्वजों ने ही समझा था। इससे अलग संसार की किसी अन्य जाति को वीर्य शक्ति के महत्व का ज्ञान नहीं था। वीर्य की रक्षा न करने से समाज की मर्यादा भंग होती है और सर्वत्र अस्त-व्यस्तता फैल जाती है। मानसिक पापवासना सामाजिक पापवासना में परिवर्तित हो जाती है। यही कारण था कि हमारे ऋषि पूर्वज मानसिक पवित्रता को बनाए रखने पर बल देते थे। जिससे सामाजिक पवित्रता बनी रह सकती है। सामाजिक शांति और मर्यादा बनाए रखने के प्रति गंभीर लोगों को और समाज विज्ञान के उन शोधार्थियों के लिए इस सत्य को समझना बहुत आवश्यक है जो आज के समाज की छिन्न-भिन्न मर्यादा को सुव्यवस्थित रखने पर किसी प्रकार का शोध कर रहे हैं। उन्हें समझना चाहिए कि भारत के ऋषि कितने बड़े सामाजिक थे ? कितने बड़े समाज सेवी थे ? उन्हें समाज की मर्यादाओं का कितना ज्ञान था और अपने उस ज्ञान को वह मानसिक पवित्रता के धरातल पर किस प्रकार उतारा करते थे ?
समाज,समाजसेवी और सामाजिक
आज स्तरहीन नेता भी अपने आपको समाजसेवी कहते हैं। जिनके दामन पर हजारों दाग लगे होते हैं , वे भी समाज को सही दिशा देने की जिम्मेदारी लेते देखे जाते हैं। जिन्हें नहीं पता कि समाज क्या होता है और समाज की सेवा कैसे की जाती है ? वह भी अपने आपको ‘सामाजिक’ कहते हैं।
समाज को सुव्यवस्थित रखने के लिए महर्षि दयानंद स्त्री व पुरुष दोनों को ही ब्रह्मचर्य का पालन करने की शिक्षा देते हुए लिखते हैं कि जो २५ वर्ष पर्यन्त पुरुष ब्रह्मचर्य करें तो १६ वर्ष पर्यन्त कन्या। जो पुरुष तीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचारी रहै तो स्त्री १७ वर्ष, जो पुरुष छत्तीस वर्ष तक रहै तो स्त्री १८ वर्ष, जो पुरुष ४० वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य करे तो स्त्री २० वर्ष, जो पुरुष ४४ वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य करे तो स्त्री २२ वर्ष, जो पुरुष ४८ वर्ष ब्रह्मचर्य करे तो स्त्री २४ चौबीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य सेवन रक्खें अर्थात् ४८ वें वर्ष से आगे पुरुष और २४ वें वर्ष से आगे स्त्री को ब्रह्मचर्य न रखना चाहिये परन्तु यह नियम विवाह करने वाले पुरुष और स्त्रियों का है जो विवाह करना ही न चाहें वे मरणपर्यन्त ब्रह्मचारी रह सकते हों तो भले हीे रहैं , परन्तु यह काम पूर्ण विद्या वाले जितेन्द्रिय और निर्दोष योगी स्त्री और पुरुष का है। यह बड़ा कठिन काम है कि जो काम के वेग को थाम के इन्द्रियों को अपने वश में रखना।”
महर्षि दयानंद जी के इस कथन से यह बात भी स्पष्ट है कि भारत में हर ऐरा गैरा नत्थू खैरा अर्थात अजितेंद्रीय व्यक्ति साधु संन्यासी होकर यदि ब्रह्मचर्य रखने का व्रत ले भी लेता है तो वह समाज की मर्यादाओं को तोड़ेगा, उससे ऐसी अपेक्षा की जा सकती है। इसलिए एक अवस्था विशेष पर जाकर विवाह कर लेना चाहिए। जिससे समाज की मर्यादा बनी रहे । क्योंकि जो लोग साधु सन्यासी बनकर ब्रह्मचर्य का उल्लंघन करते हैं, वे समाज की व्यवस्था को तोड़ने के पापी होते हैं। दयानंद जी महाराज सदग्रंथों के अध्ययन पर भी विशेष बल देते हैं। क्योंकि यह प्राचीन आर्यों की दिनचर्या में सम्मिलित रहता था । इससे व्यर्थ की मानसिक उलझनें समाप्त होती हैं और मनुष्य को प्रत्येक स्थिति परिस्थिति में न्यायपूर्ण आचरण करने की शिक्षा सदग्रंथों से प्राप्त होती रहती है।
महर्षि मनु ने अपने समाज दर्शन को प्रकट करते हुए व्यवस्था दी है कि :-
यमान् सेवेत सततं न नियमान् केवलान् बुधः।
यमान्पतत्यकुर्वाणो नियमान् केवलान् भजन्।। मनु०।।
यम पांच प्रकार के होते हैं-
तत्रहिसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः।। योगसूत्र।।
इसका अर्थ करते हुए ऋषि दयानंद जी लिखते हैं कि अर्थात् ( अहिंसा) वैरत्याग, (सत्य) सत्य मानना, सत्य बोलना और सत्य ही करना, (अस्तेय) अर्थात् मन, वचन, कर्म से चोरी- त्याग, (ब्रह्मचर्य) अर्थात् उपस्थेन्द्रिय का संयम, (अपरिग्रह) अत्यन्त लोलुपता स्वत्वाभिमानरहित होना, इन पांच यमों का सेवन सदा करें । केवल नियमों का सेवन अर्थात्-
शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।। योगसूत्र।।
(शौच) अर्थात् स्नानादि से पवित्रता (सन्तोष) सम्यक् प्रसन्न होकर निरुद्यम रहना सन्तोष नहीं किन्तु पुरुषार्थ जितना हो सके उतना करना, हानि लाभ में हर्ष वा शोक न करना (तप) अर्थात् कष्टसेवन से भी धर्मयुक्त कर्मों का अनुष्ठान (स्वाध्याय) पढ़ना पढ़ाना (ईश्वरप्रणिधान) ईश्वर की भक्तिविशेष में आत्मा को अर्पित रखना, ये पांच नियम कहाते हैं। यमों के विना केवल इन नियमों का सेवन न करे किन्तु इन दोनों का सेवन किया करे। जो यमों का सेवन छोड़ के केवल नियमों का सेवन करता है, वह उन्नति को नहीं प्राप्त होता किन्तु अधोगति अर्थात् संसार में गिरा रहता है।
धर्म का भय
प्रत्येक आर्य सदगृहस्थी को यम-नियम के पालन करने की अनिवार्यता होती थी। इससे सामाजिक व्यवस्था बड़ी सुंदरता के साथ स्थापित रहती थी। किसी को भी सामाजिक मर्यादा और व्यवस्था को तोड़ने की अनुमति नहीं थी। इसके लिए कानून का भय ना दिखाकर धर्म का भय दिखाया जाता था। यही कारण था कि आर्य लोग धर्म के पालन पर विशेष बल दिया करते थे। धर्म डंडा के रूप में सबके ऊपर लटकता रहता था। जो प्रत्येक विवेकशील व्यक्ति को दिखाई देता रहता था। इसलिए धर्म से सब डरते थे।
धर्म के शासन में रहकर समाज की मर्यादाएं अपने आपको संरक्षित और सुरक्षित अनुभव करती थीं। इससे किसी राजा या राजकीय व्यवस्था की आवश्यकता अनुभव नहीं की जाती थी । भारत के सुदूर देहात में आज भी लोग धर्म से डर कर अपने आपको मर्यादित रखते हैं । आज भी लोग पंच पंचायतों में धर्म देने से डरते हैं । उनको सबको यह पता होता है कि यदि धर्म डूब गया तो कुछ भी नहीं बचेगा। यही कारण है कि भारत के लोग मिलकर धर्म की रक्षा करते हैं, बदले में धर्म उनकी रक्षा करता है।
प्राचीन काल में यह व्यवस्था और भी अधिक मजबूती के साथ प्रचलित थी। यही कारण है कि उस समय का भारतीय समाज बहुत ही उत्कृष्ट (आर्य) समाज होता था । उसी उत्कृष्ट समाज को स्वामी दयानंद जी महाराज ने आज के संदर्भ में आर्य समाज कहा है । महर्षि के आर्य समाज के लोगों के लिए भी एक समय ऐसा था जब अंग्रेज लोग उनके कथन पर पूर्ण विश्वास करके न्यायालयों तक में न्याय कर दिया करते थे।
ऐसे होते थे आर्य समाजी
तनिक कल्पना कीजिए कि जब आज के आर्य समाजी पर विश्वास करके अंग्रेज लोग न्यायालयों में न्याय कर दिया करते थे तो प्राचीन काल के आर्य लोगों की स्थिति क्या होती होगी ? जब सर्वत्र धर्म की स्थापना पर सब लोग मिलकर बल दिया करते थे। उस समय आर्य लोगों के चरित्र ,बुद्धिमत्ता और हृदय की पवित्रता पर सबको भरोसा होता था। वे जो कुछ भी बोलते थे बिना किसी की सौगंध उठाए भी वह पूर्ण से सत्य होता था। जबकि न्यायालयों में लोग खड़े होकर कसम खाते हैं और उसके उपरांत भी झूठ बोलते हैं।
महर्षि मनु ने सृष्टि का पहला राजा बनना स्वीकार किया तो उन्होंने राजकीय नियमों के साथ-साथ सामाजिक नियमों का विधान भी मनुस्मृति में किया। उन्होंने आज की कानूनी व्यवस्था के अनुसार नकारात्मक कानूनों का निर्माण नहीं किया, बल्कि उन्होंने सृजनात्मकता का परिचय देते हुए विधेयात्मक विधि का निष्पादन किया। महर्षि मनु की विधेयात्म्क विधि को स्पष्ट करते हुए स्वामी दयानंद जी महाराज ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है :-
स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः।
महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः।। मनु०।।
अर्थ-(स्वाध्याय) सकल विद्या पढ़ते-पढ़ाते (व्रत) ब्रह्मचर्य्य सत्यभाषणादि नियम पालने (होम) अग्निहोत्रदि होम, सत्य का ग्रहण असत्य का त्याग और सत्य विद्याओं का दान देने (त्रैविद्येन) वेदस्थ कर्मोपासना ज्ञान विद्या के ग्रहण (इज्यया) पक्षेष्ट्यादि करने (सुतैः) सुसन्तानोत्पत्ति (महायज्ञैः) ब्रह्म, देव, पितृ, वैश्वदेव और अतिथियों के सेवनरूप पञ्चमहायज्ञ और (यज्ञैः) अग्निष्टोमादि तथा शिल्पविद्याविज्ञानादि यज्ञों के सेवन से इस शरीर को ब्राह्मी अर्थात् वेद और परमेश्वर की भक्ति का आधाररूप ब्राह्मण का शरीर बनता है। इतने साधनों के विना ब्राह्मण शरीर नहीं बन सकता।
इन्द्रियाणां विचरतां विषयेष्वपहारिषु ।
संयमे यत्नमातिष्ठेद्विद्वान् यन्तेव वाजिनाम्।। मनु॰।।
अर्थ-जैसे विद्वान् सारथि घोड़ों को नियम में रखता है वैसे मन और आत्मा को खोटे कामों में खैंचने वाले विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के निग्रह में प्रयत्न सब प्रकार से करें।”
जीवन में तपस्विता को स्थान देना चाहिए। तपस्वी जीवन से मन संयमित रहता है। वह किसी भी प्रकार के पापाचरण से अपने आप को मुक्त रखता है। क्योंकि-
इन्द्रियाणां प्रसंगेन दोषम् ऋच्छत्यसंशयम् ।
सन्नियम्य तु तान्येव ततः सिद्धि नियच्छति।। मनु०।।
अर्थ-जीवात्मा इन्द्रियों के वश होके निश्चित बड़े-बड़े दोषों को प्राप्त होता है और जब इन्द्रियों को अपने वश में करता है तभी सिद्धि को प्राप्त होता है।
यही कारण है कि प्राचीन काल से हमारे ऋषि महात्मा
वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च।
न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धि गच्छन्ति कर्हिचित्।। मनु०।।
जो दुष्टाचारी-अजितेन्द्रिय पुरुष हैं उसके वेद, त्याग, यज्ञ, नियम और तप तथा अन्य अच्छे काम कभी सिद्धि को नहीं प्राप्त होते।
इसका अभिप्राय है कि संसार में रहकर के मनुष्य को सदाचारी और जितेंद्रिय पढ़ना चाहिए। इस प्रकार के जीवन को ही सार्थक जीवन कहते हैं। ऐसे जीवन में परमपिता परमेश्वर की कृपा सार्थक होती हुई दिखाई देती है और सर्वत्र सुख शांति का वास हमारे इर्द गिर्द डेरा डाल लेता है।
वेदोपकरणे चैव स्वाध्याये चैव नैत्यके।
नानुरोधोऽस्त्यनध्याये होममन्त्रेषु चैव हि।।१।। मनु०।।
नैत्यके नास्त्यनध्यायो ब्रह्मसत्रं हि तत्स्मृतम्।
ब्रह्माहुतिहुतं पुण्यम् अनध्यायवषट्कृतम्।।२।। मनु०।।
वेद के पढ़ने-पढ़ाने, सन्ध्योपासनादि पञ्चमहायज्ञों के करने और होममन्त्रें में अनध्यायविषयक अनुरोध (आग्रह) नहीं है। क्योंकि नित्यकर्म में अनध्याय नहीं होता। जैसे श्वासप्रश्वास सदा लिये जाते हैं बन्ध नहीं किये जाते वैसे नित्यकर्म प्रतिदिन करना चाहिये; न किसी दिन छोड़ना क्योंकि अनध्याय में भी अग्निहोत्रादि उत्तम कर्म किया हुआ पुण्यरूप होता है। जैसे झूठ बोलने में सदा पाप और सत्य बोलने में सदा पुण्य होता है। वैसे हीे बुरे कर्म करने में सदा अनध्याय और अच्छे कर्म करने में सदा स्वाध्याय ही होता है।
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्द्धन्त आयुर्विद्या यशो बलम्।। मनु०।।
जो सदा नम्र सुशील विद्वान् और वृद्धों की सेवा करता है, उसका आयु, विद्या, कीर्ति और बल ये चार सदा बढ़ते हैं और जो ऐसा नहीं करते उनके आयु आदि चार नहीं बढ़ते। संसार में आ कर के हमें इस प्रकार की विधिक व्यवस्थाओं को अपनाना चाहिए। इस प्रकार की क्रिया प्रक्रियाओं से हम अपने परमपिता परमेश्वर के प्रति सदैव कृतज्ञ बने रहते हैं। इस प्रकार के पवित्र भावों से प्रेरित होकर हम कभी भी पाप की ओर कदम नहीं बढ़ाते।
महर्षि दयानंद जी का मंतव्य
इन व्यवस्थाओं को देखने से पता चलता है कि महर्षि दयानंद जी महाराज मनुष्य के वैयक्तिक जीवन की उत्कृष्ट साधना के समर्थक हैं। व्यष्टि से समष्टि की ओर चलने के वैज्ञानिक सिद्धांत को लेकर ही उन्होंने मनुष्य मात्र के लिए इस प्रकार की शिक्षाओं का विधान सत्यार्थ प्रकाश में किया है। आज की शिक्षा नीति और समाज नीति की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि वे मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन को खुला छोड़ देते हैं। कोई भी व्यक्ति अपने निजी जीवन में चाहे जैसा हो , बस बाहर से वह चिकना चुपड़ा दीखना चाहिए। इसी को उसका व्यक्तित्व समझ लिया जाता है। कुल मिलाकर आंतरिक पवित्रता को नहीं बल्कि बाहरी पवित्रता को प्राथमिकता देने वाली आज की शिक्षा नीति और समाज नीति मनुष्य के पतन का कारण बन रही है।
समाज की गति को सुव्यवस्थित रखने के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक मनुष्य वैर बुद्धि को छोड़कर मनुष्यों के कल्याण के प्रति समर्पित हो। इसी से आज के समाज की उस स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है जिसे आज के संविधान के विशेषज्ञ या सामाजिक विज्ञान के विशेषज्ञ सामाजिक समरसता कहते हैं।
अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए स्वामी दयानंद जी महाराज ने सत्यार्थ प्रकाश लिखने से पूर्व आर्याभिविनय की रचना की थी। उसमें उन्होंने लिखा था कि अन्य देशवासी राजा हमारे देश में कभी शासन न करें। हम कभी पराधीन न हों। इस प्रकार के कथन से स्वामी जी महाराज का राष्ट्रवादी चिंतन प्रकट होता है। इससे हमें यह भी पता चलता है कि स्वामी जी महाराज की राजनीति और इतिहास की गहरी पकड़ थी। अपने ज्ञान गांभीर्य को स्वामी जी महाराज ने बहुत संक्षेप में प्रस्तुत कर दिया है।
स्वामी जी महाराज ने यह भी स्पष्ट कहा है कि “कोई कितना ही करे,परंतु जो स्वदेशीय राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है,अथवा मत मतांतर के आग्रह रहित अपने और पराए का पक्षपातशून्य प्रजा पर माता पिता के समान कृपा, दया और न्याय के साथ भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायी कभी नहीं हो सकता।”
यद्यपि उनकी सामाजिक समरसता की यह अभिलाषा तब तक पूर्ण नहीं हो सकती जब तक वह वैदिक सिद्धांतों के अनुसार सामाजिक संरचना को स्थापित करने की दिशा में अपना चिंतन करना आरंभ नहीं करेंगे। सामाजिक समरसता की स्थापना के लिए महर्षि दयानंद जी मनु महाराज को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि मनुष्यों के कल्याण के मार्ग का उपदेष्टा सदा मधुर सुशीलता युक्त वाणी बोले। जो धर्म की उन्नति चाहे वह सदा सत्य में चले और सत्य का ही उपदेश करे। जिस मनुष्य के वाणी और मन शुद्ध और सुरक्षित रहते हैं, वही सदा वेदों के सिद्धांतरूप फल को प्राप्त होता है। ब्राह्मणों को अर्थात ज्ञानी विद्वतजनों को प्रतिष्ठा प्राप्ति से वैसे ही डरना चाहिए जैसे साधारण लोग विष से डरा करते हैं।
डॉ राकेश कुमार आर्य
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
प्रकाशक का दूरभाष नंबर : 011 – 407122000।