सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विर्मश ( एक से सातवें समुल्लास के आधार पर) अध्याय 4, हम आर्य बनकर करते थे संसार का मार्गदर्शन
हम आर्य बनकर करते थे संसार का मार्गदर्शन
भारत के प्राचीन गौरव पर प्रकाश डालते हुए अपनी एक कविता में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी लिखते हैं कि :-
हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी
भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है
यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, इसके निवासी आर्य हैं
विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं
संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े
पर चिह्न उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े
वे आर्य ही थे जो कभी, अपने लिये जीते न थे
वे स्वार्थ रत हो मोह की, मदिरा कभी पीते न थे
वे मंदिनी तल में, सुकृति के बीज बोते थे सदा
परदुःख देख दयालुता से, द्रवित होते थे सदा
संसार के उपकार हित, जब जन्म लेते थे सभी
निश्चेष्ट हो कर किस तरह से, बैठ सकते थे कभी
फैला यहीं से ज्ञान का, आलोक सब संसार में
जागी यहीं थी, जग रही जो ज्योति अब संसार में
वे मोह बंधन मुक्त थे, स्वच्छंद थे स्वाधीन थे
सम्पूर्ण सुख संयुक्त थे, वे शांति शिखरासीन थे
मन से, वचन से, कर्म से, वे प्रभु भजन में लीन थे
विख्यात ब्रह्मानंद नद के, वे मनोहर मीन थे
हमारे पूर्वज तन, मन की शुद्धि से अधिक आत्मशुद्धि पर बल दिया करते थे। उनकी यह सोच थी कि जितनी आवश्यकता तन की शुद्धि की है उतनी ही मन और आत्मा की शुद्धि की भी है। इस संबंध में महर्षि दयानंद महर्षि मनु की इस व्यवस्था को उद्धृत करते हैं :-
अद्भिर्गात्रणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति।।
स्वामी जी महाराज कहते हैं कि जल से शरीर के बाहर के अवयव, सत्याचरण से मन, विद्या और तप अर्थात् सब प्रकार के कष्ट भी सह के धर्म ही के अनुष्ठान करने से जीवात्मा, ज्ञान अर्थात् पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों के विवेक से बुद्धि दृढ़-निश्चय पवित्र होता है।
जीवन को महानता में ढालने के लिए छोटी-छोटी बातों पर हमारे ऋषि पूर्वजों ने विशेष ध्यान दिया। यह कहा भी जाता है कि छोटी- छोटी बातों को संजोने से बड़े लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है। यदि जीवन से छोटी-छोटी बातों को निकाल दिया जाए या उन्हें उपेक्षित कर दिया जाए तो जीवन के महान लक्ष्य की कभी प्राप्ति नहीं हो सकती। यही कारण है कि हमारे ऋषियों ने व्यक्ति की दिनचर्या को जीवन चर्या और जीवन चर्या को समाज और राष्ट्र की चर्या बनाने की दिशा में विशेष परिश्रम किया। स्नान आदि जितने कार्य शरीर के लिए महत्वपूर्ण हैं, उससे भी अधिक महत्वपूर्ण हमारे लिए प्राणायाम है । जिसके माध्यम से हम जीवन को उत्कृष्टतम साधना का पर्याय बना सकते हैं। प्राणायाम वह सीढी है जिसके माध्यम से हम मोक्ष तक पहुंच सकते हैं। इसके निरंतर अभ्यास से अशुद्धि का नाश और ज्ञान का प्रकाश होता जाता है।
महर्षि दयानंद इस विषय में मनुस्मृति के निम्नलिखित श्लोक को उद्धृत करते हैं :-
दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां च यथा मलाः।
तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्।।
इस श्लोक का अर्थ है कि जैसे अग्नि में तपाने से सुवर्णादि धातुओं का मल नष्ट होकर शुद्ध होते हैं वैसे प्राणायाम करके मन आदि इन्द्रियों के दोष क्षीण होकर निर्मल हो जाते हैं।
इसके पश्चात महर्षि सत्यार्थ प्रकाश के तीसरे समुल्लास में प्राणायाम की विधि पर अपना गंभीर चिंतन प्रकट करते हैं। ऋषि हमको बताते हैं कि प्राणायाम के करने से हमारे भीतर भारी परिवर्तन आने लगते हैं। जीवन में नया उल्लास समाहित होने लगता है। शरीर में नई ऊर्जा का आभास होता है। ह्रदय में प्रसन्नता का अनुभव होता है। मन की चंचलता नष्ट होने लगती है। बुद्धि सूक्ष्म विषयों को ग्रहण करने लगती है। आत्मा अपने आप में सदैव आनंद की अनुभूति करता रहता है। हम अपने आप को परमपिता परमेश्वर की परम ज्योति के साथ बड़ी श्रद्धा के साथ जुड़ा हुआ अनुभव करने लगते हैं। जीवन से प्रत्येक प्रकार के दलितों का विनाश होने लगता है। बुद्धि की निर्मलता के कारण संसार के राग द्वेष से मुक्त होकर हम विवेक और वैराग्य5 और बढ़ने लगते हैं।
महर्षि ने प्राणायाम के निरंतर अभ्यास के फल बताते हुए कहा है कि ऐसा करने से प्राण अपने वश में होने से मन और इन्द्रियाँ भी स्वाधीन होते हैं। बल पुरुषार्थ बढ़ कर बुद्धि तीव्र सूक्ष्मरूप हो जाती है कि जो बहुत कठिन और सूक्ष्म विषय को भी शीघ्र ग्रहण करती है। इस से मनुष्य शरीर में वीर्य्य वृद्धि को प्राप्त होकर स्थिर, बल, पराक्रम, जितेन्द्रियता, सब शास्त्रें को थोड़े हीे काल में समझ कर उपस्थित कर लेगा। स्त्री भी इसी प्रकार योगाभ्यास करे। भोजन, छादन, बैठने, उठने, बोलने, चालने, बड़े छोटे से यथायोग्य व्यवहार करने का उपदेश करें।”
प्राणायाम की इसी साधना से हमारे ऋषि पूर्वज और क्षत्रिय योद्धा भी दीर्घ जीवी होते थे। वह प्रकृति के सानिध्य में रहकर प्राणायाम का अभ्यास किया करते थे। नदी पर्वतों के एकांत शांत स्थान पर बैठकर जीवन की साधना उनके लिए बहुत अधिक फलदायी हुआ करती थी ।आज की घनी आबादी के बीच रहने वाले मनुष्य के लिए शांत और एकांत स्थान खोजना तक दुर्लभ हो गया है। यही कारण रहा कि हमारे ऋषि पूर्वजों ने नगरीय व्यवस्था से दूर प्रकृति के निकट रहने को प्राथमिकता दी थी। हम गांव बसाते थे । महानगरों की जीवन को नष्ट करने वाली अपसंस्कृति से हमारे ऋषि पूर्वज प्राचीन काल से ही परिचित रहे। वह जानते थे कि यदि जनसंख्या को एक स्थान पर नगरों के रूप में बसाया गया तो इससे अनेक प्रकार की सामाजिक जटिलताएं, विषमसताऐं और जीवन को नष्ट करने वाली समस्याएं खड़ी हों ⁹गी । आज हमने जिस प्रकार महानगरों की व्यवस्था को अपनाया है, वह हमारे लिए बहुत अधिक बोझ बन चुकी है।
आज हम महानगरों को जनसंख्या के एक जंगल के रूप में देख रहे हैं । जंगल के बारे में हम सभी जानते हैं कि वहां पर कोई कानून नहीं होता। जंगल में कौन किसके साथ क्या कर रहा है ? इसका भी किसी को पता नहीं होता। यहां तक कि जिसे जंगल का राजा कहा जाता है वह शेर भी दूसरों का हत्यारा होकर ही अपना जीवन यापन करता है। महानगरों को बसाकर हमने अपने लिए जंगल के कानून अपने ऊपर लागू कर लिए हैं। यही कारण है कि घनी आबादी के इस जंगल में सारी व्यवस्था तार-तार होकर रह गई है। प्राणायाम आदि की सारी चीजें, जो जीवन को सार्थक बनाती थीं, हमसे बहुत पीछे छूट गई हैं।
हमारे ऋषि पूर्वज सन्ध्योपासन , जिसको ब्रह्मयज्ञ भी कहते हैं, भी प्रतिदिन किया करते थे। ढोंग और पाखंड या दिखावे से दूर रहकर वैज्ञानिक विधि से प्रकृति के निकट रहकर वह जीवन की साधना करते थे । उनके जीवन का संगीत इतना सुमधुर होता था कि उससे अन्य प्राणियों को भी ऊर्जा प्राप्त होती थी। सब सबके साथ मिलकर रहने में आनंद की अनुभूति करते थे। यह तभी संभव था जब मनुष्य अपने धर्म पर टिका होता था । मनुष्य अपने धर्म के निर्वाह के साथ सबका पालन करता था।
एक मित्र मुझे बता रहे थे कि जोधपुर में घर के बाहर एक ऐसा मिट्टी का पात्र बनाया जाता है ,जिसमें बचे हुए भोजन को या कुछ फल आदि को जीव-जंतुओं, बंदर, गाय, आवारा पशुओं के लिए प्रत्येक गृहस्थी डाल देता है। वहां पर पशु पक्षी आते हैं और उस भोजन से अपना गुजारा करके मस्त रहते हैं। वह मुझे बता रहे थे कि वहां पर बंदर किसी के हाथ से किसी भोज्य पदार्थ को छीनते नहीं है। ना ही किसी दुकानदार के फल या सब्जी को उठाकर ले जाते हैं। इसका कारण केवल एक है कि वहां मनुष्य अपने धर्म का वैदिक ऋषियों की भांति पालन कर रहा है। हमारे ऋषियों की दिनचर्या प्रातः काल से वैसे ही आरंभ होती थी जैसे महर्षि दयानंद सत्यार्थ प्रकाश के इस समुल्लास में लिखी है।
महर्षि मनु के एक श्लोक का उद्धरण देकर स्वामी जी महाराज स्पष्ट करते हैं कि जंगल में अर्थात् एकान्त देश में जा सावधान हो के जल के समीप स्थित हो के नित्य कर्म को करता हुआ सावित्री अर्थात् गायत्री मन्त्र का उच्चारण अर्थज्ञान और उसके अनुसार अपने चाल चलन को करे परन्तु यह जन्म से करना उत्तम है।”
महर्षि दयानंद का जीवन वैदिक ऋषियों और उनकी व्यवस्था के प्रति समर्पित रहा है। हम पूर्व में भी यह संकेत दे चुके हैं और पुनः लिख रहे हैं कि यदि वह सत्यार्थ प्रकाश में आज के मनुष्य के लिए कुछ व्यवस्थाएं या नियम बना रहे हैं या लिख रहे हैं तो इसका अभिप्राय है कि वह भारत के प्राचीन ऋषियों की बनाई हुई व्यवस्था को ही आज के मनुष्य से अपनाने की अपेक्षा कर रहे हैं। उपरोक्त प्रकरण में वह हमसे यह भी अपेक्षा करते हैं कि कम से कम एक घंटा प्रतिदिन संध्या ध्यान अवश्य करना चाहिए।
इसके साथ ही साथ प्रत्येक गृहस्थी को प्रतिदिन यज्ञ हवन भी अवश्य करना चाहिए। यज्ञ परोपकार का प्रतीक है । अतः मनुष्य का जीवन भी परोपकारी होना चाहिए। परोपकार की भावना से प्रत्येक जीवधारी के जीवन की रक्षा होना संभव है।
परमपिता परमेश्वर स्वयं एक विशाल यज्ञ के माध्यम से संपूर्ण चराचर जगत का पालन पोषण कर रहे हैं।
होम के बारे में महर्षि दयानंद के विचार
होम के विषय में महर्षि का कहना है कि “दुर्गन्धयुक्त वायु और जल से रोग, रोग से प्राणियों को दुःख और सुगन्धित वायु तथा जल से आरोग्य और रोग के नष्ट होने से सुख प्राप्त होता है।
…. देखो! जहां होम होता है वहां से दूर देश में स्थित पुरुष के नासिका से सुगन्ध का ग्रहण होता है वैसे दुर्गन्ध का भी। इतने ही से समझ लो कि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म हो के फैल के वायु के साथ दूर देश में जाकर दुर्गन्ध की निवृत्ति करता है।”
संसार ले और दे की नीति के आधार पर चलता है। यदि हम संसार से कुछ ले रहे हैं तो हमें कुछ देना भी चाहिए। यह सनातन धर्म का एक शाश्वत मूल्य है । इसके दृष्टिगत यदि हम संसार में रहकर अपने मल, मूत्र आदि से दुर्गंध फैला रहे हैं तो उस दुर्गंध को समाप्त करने के लिए सुगंध फैलाना भी हमारे जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। आर्यों का इतिहास प्रकृति के साथ इसी पवित्र गठबंधन का इतिहास है।
प्रकृति से यदि हमारी सुरक्षा हो रही है तो प्रकृति को सुरक्षित रखना हमारी जिम्मेदारी है। प्राचीन काल से ही हमारे पूर्वज प्रकृति के साथ मित्रतापूर्ण व्यवहार करने को अपना जीवन- व्रत मानते आए हैं। आर्यों के इस जीवन व्रत से संसार लाखों करोड़ों वर्ष तक शासित, अनुशासित और मर्यादित होकर चलता रहा है। संसार के उस अनुशासित और मर्यादित इतिहास को जीवंत बनाए रखने में आर्यों की यज्ञ की इस महान परंपरा ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। खून खराबे और मारकाट से भरे मुसलमानों या ईसाइयों के इतिहास से अलग हटकर आर्यों के इतिहास की इस दीर्घकालिक परंपरा पर भी हमें विचार करना चाहिए कि इतनी देर तक संसार शांतिपूर्ण परिवेश में रहकर कैसे अपना जीवन व्यवहार चलाता रहा ? हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि किए हुए का भुगतान करना ही पड़ता है। दिए हुए को जब तक दे न दिया जाए तब तक जीवन में आनंद नहीं।
यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि भारत और भारतीयता से घृणा करने वाले इतिहासकार आर्यों के यज्ञ संबंधी विचार और विचारधारा को अपने चिंतन में कहीं लाते ही नहीं। इसका अभिप्राय है कि वे मुसलमानों और ईसाइयों के भारत-द्वेषी भाव से ग्रसित होकर इतिहास लेखन कर रहे हैं।
महर्षि दयानंद जी महाराज ने मनुष्य को 16 – 16 आहुति और छ: छः माशे घृत आदि की 1 – 1 आहुति देने का विधान किया है। भारत के आर्यों के गौरवमय इतिहास पर प्रकाश डालते हुए अथवा उसकी ओर संकेत करते हुए महर्षि दयानंद लिखते हैं कि जब तक इस होम करने का प्रचार रहा तब तक आर्यावर्त्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था, अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाय।”
यहां पर महर्षि दयानंद के भीतर के चिंतन और अपनी मां भारती के प्रति उनके उदात्त भाव को समझने की आवश्यकता है। वह जहां भी भारत के गौरवशाली इतिहास की ओर संकेत कर रहे हैं वहीं वे भारत के वर्तमान को सुधारने की ओर भी अपने शब्दों के माध्यम से हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। ऐसे में जहां जहां भी महर्षि द्वारा यज्ञ पर चर्चा की गई है, वहीं वहीं हमें समझ लेना चाहिए कि वे वर्तमान भारत की दुर्दशा पर भी अपना चिंतन प्रस्तुत कर रहे हैं।
भारत में ब्राह्मण, क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र की वर्ण व्यवस्था थी।
यह व्यवस्था कर्म आधारित थी। आज की जाति से उसका कोई लेना-देना नहीं था। कालांतर में कुछ स्वार्थी , मूर्ख व अज्ञानी लोगों ने वर्ण व्यवस्था को जाति व्यवस्था में परिवर्तित करने का कार्य किया। अपने जीवन निर्माण के लिए छात्र-छात्राएं वेदों की शिक्षा को ग्रहण करने के लिए 24 वर्ष या 36 या 48 वर्ष तक विद्याध्ययन करते थे। इस काल में वे ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करते थे।
इस संबंध में महर्षि दयानंद जी लिखते हैं कि ब्रह्मचर्य तीन प्रकार का होता है कनिष्ठ-जो पुरुष अन्नरसमय देह और पुरि अर्थात् देह में शयन करने वाला जीवात्मा, यज्ञ अर्थात् अतीव शुभगुणों से संगत और सत्कर्त्तव्य है इस को अवश्य है कि २४ वर्ष पर्यन्त जितेन्द्रिय अर्थात् ब्रह्मचारी रह कर वेदादि विद्या और सुशिक्षा का ग्रहण करे और विवाह करके भी लम्पटता न करें तो उसके शरीर में प्राण बलवान् होकर सब शुभगुणों के वास कराने वाले होते हैं।।१।।
इस प्रथम वय में जो उस को विद्याभ्यास में सन्तप्त करे और वह आचार्य वैसा ही उपदेश किया करे और ब्रह्मचारी ऐसा निश्चय रक्खे कि जो मैं प्रथम अवस्था में ठीक-ठीक ब्रह्मचर्य से रहूँगा तो मेरा शरीर और आत्मा आरोग्य बलवान् होके शुभगुणों को बसाने वाले मेरे प्राण होंगे। हे मनुष्यो तुम इस प्रकार से सुखों का विस्तार करो, जो मैं ब्रह्मचर्य का लोप न करू।
2।२४ वर्ष के पश्चात् गृहाश्रम करूंगा तो प्रसिद्ध है कि रोगरहित रहूँगा और आयु भी मेरी ७० वा ८० वर्ष होगी।
मध्यम ब्रह्मचर्य-यह है जो मनुष्य ४४ वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचारी रह कर वेदाभ्यास करता है उसके प्राण, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण और आत्मा बलयुक्त होके सब दुष्टों को रुलाने और श्रेष्ठों का पालन करनेहारे होते हैं।।३।। जो मैं इसी प्रथम वय में जैसा आप कहते हैं कुछ तपश्चर्या करूं तो मेरे ये रुद्ररूप प्राणयुक्त यह मध्यम ब्रह्मचर्य सिद्ध होगा। हे ब्रह्मचारी लोगो! तुम इस ब्रह्मचर्य को बढ़ाओ। जैसे मैं इस ब्रह्मचर्य का लोप न करके यज्ञस्वरूप होता हूँ और उसी आचार्यकुल से आता और रोगरहित होता हूँ जैसा कि यह ब्रह्मचारी अच्छा काम करता है वैसा तुम किया करो।।४।।
उत्तम ब्रह्मचर्य-जव वर्ष पर्यन्त का तीसरे प्रकार का होता है। जैसे ४८ अक्षर की जगती वैसे जो ४८ वर्ष पर्यन्त यथावत् ब्रह्मचर्य करता है उसके प्राण अनुकूल होकर सकल विद्याओं का ग्रहण करते हैं।।५।। आचार्य और माता पिता अपने सन्तानों को प्रथम वय में विद्या और गुणग्रहण के लिये तपस्वी कर और उसी का उपदेश करें और वे सन्तान आप ही आप अखण्डित ब्रह्मचर्य सेवन से तीसरे उत्तम ब्रह्मचर्य का सेवन करके पूर्ण अर्थात् चार सौ वर्ष पर्यन्त आयु को बढ़ावें वैसे ⁷ भी बढ़ाओ। क्योंकि जो मनुष्य इस ब्रह्मचर्य को प्राप्त होकर लोप नहीं करते वे सब प्रकार के रोगों से रहित होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त होते हैं।।६।।
सुश्रत के शरीरस्थान के आधार पर स्वामी जी हमको यह भी बताते हैं कि इस शरीर की चार अवस्था हैं। एक (वृद्धि) जो १६वें वर्ष से लेके २५वें वर्ष पर्यन्त सब धातुओं की बढ़ती होती है। दूसरा (यौवन) जो २५ वें वर्ष के अन्त और २६वें वर्ष के आदि में युवावस्था का आरम्भ होता है। तीसरी (सम्पूर्णता) जो पच्चीसवें वर्ष से लेके चालीसवें वर्ष पर्यन्त सब धातुओं की पुष्टि होती है। चौथी ( किञ्चत्परिहाणि) तब सब सांगोपांग शरीरस्थ सकल धातु पुष्ट होके पूर्णता को प्राप्त होते हैं। तदनन्तर जो धातु बढ़ता है वह शरीर में नहीं रहता, किन्तु स्वप्न, प्रस्वेदादि द्वारा बाहर निकल जाता है वही ४० वां वर्ष उत्तम समय विवाह का है अर्थात् उत्तमोत्तम तो अड़तालीसवें वर्ष में विवाह करना।
इस प्रकार की उत्कृष्ट और आदर्श सामाजिक व्यवस्था प्राचीन आर्यों के समाज का निर्माण करती थी। जिससे हम उत्तम राष्ट्र के उत्तम निवासी होकर अर्थात आर्य बनकर संसार का मार्गदर्शन करते थे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
प्रकाशक का दूरभाष नंबर : 011 – 407122000।
मुख्य संपादक, उगता भारत