प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों का अलंकारिक सौंदर्य


दिलीप लाल

हर कला की एक खासियत होती है। संगीत हो, लेखन हो, चित्रकारी हो, या फिर कोई और कला हो, सबको उसकी ऊंचाई तक ले जाने बड़ी साधना करनी पड़ती है। भाषण देना भी एक कला है। इसे निखारने के लिए भी इन शर्तों से होकर ही साधक को गुजरना पड़ता है। नियमित अभ्यास से ही वक्ता के शब्द चयन और उनके संयोजन की क्षमता बढ़ती है। एक सधी हुई भाषा शैली और उतनी ही सधी आवाज के साथ संवाद करने का अंदाज सुर साधता है तो सामने वाले मंत्रमुग्ध हुए उसे सुनते रहते हैं, गुनते रहते हैं। आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण देखिए। इसमें कोई शक नहीं, कोई दो राय नहीं कि पीएम मोदी इस सदी के सबसे सफल वक्ता हैं। उनकी कही एक एक बात जनता के हृदय में तरंगित होती रहती है, हर पल, हर क्षण।

ऐसा नहीं कि पीएम मोदी की भाषण पहले कम दमदार थे। जब पीएम मोदी गुजरात के सीएम थे, तब के उनके भाषणों को देखिए। बल्कि किसी से भी पूछ लीजिए, सबको याद ही हैं। मगर समय के साथ-साथ उन्होंने इस कला को जिस आलंकारिक तरीके से साधा है, यह बात इसीलिए कही जा रही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस सदी के सबसे सफल और सबसे ओजपूर्ण भाषण देने वाले वक्ता हैं। समय के साथ-साथ यह कला और उन्नत होती जा रही है, ऐसा लगता है कि अभी उसे उस ऊंचाई पर पहुंचना है, जहां के बारे में किसी को भान तक नहीं है। और शायद उससे भी आगे। कला तो अविरल बहती धारा है, कहीं रुकती नहीं, कभी खत्म नहीं होती।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भाषण कला का सबसे उजला पहलू यह है कि वो भाषण नहीं देते, वो सीधे जनता से संवाद करते हैं। किसी भी जनसभा में आप देखेंगे तो पाएंगे कि सामने बैठे लोग सिर्फ उन्हें सुनते ही नहीं हैं, उनकी कही बात दोहराते हैं, उनकी हां में हां मिलाते हैं, और उनकी ना में ना। इस अपार समर्थन की वजह यह है कि प्रधानमंत्री के भाषणों में शास्त्रीय अलंकारों का समुचित और सुपयोगी प्रयोग होता है। अपने भाषणों में जब वह अनुप्रास अलंकार का उपयोग करते हैं, जो वह छंदों की ऐसी कड़ी बन जाती है जिससे निकलने वाली संगीत की स्वर लहरी सुनने वाले को मंत्रमुग्ध कर देती है। अनुप्रास का मतलब है, एक ही अक्षर या शब्द का संवाद में बार-बार इस्तेमाल होना। जैसे कि महात्मा गांधी का भजन- ‘रघुपति राघव राजा राम…’ इस भजन में ‘र’ अक्षर बार-बार आता है। इसी तरह से तुलसीदास के बरवै रामायण में एक छंद है-

सम सुबरन सुषमाकर सुखद न थोर।
सिय अंग सखि कोमल कनक कठोर॥

इसमें ‘स’ और ‘क’ वर्ण का बार-बार उपयोग हुआ है। भारतेंदु हरिश्चंद्र की रचना ‘यमुना वर्णन’ में छंद है-

‘तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।
झुके कूल सों जल-परसन हित मनहु सुहाये॥
किधौं मुकुर मैं लखत उझकि सब निज-निज सोभा।
कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा॥’

इसकी पहली लाइन में पांच शब्द ‘त’ वर्ण से शुरू हुए हैं। फिर अंतिम लाइन में ‘ज’ और ‘प’ का परम प्रयोग हुआ है।

परंपरा में अनुप्रास अलंकार
अनुप्रास अलंकार का उपयोग वैदिक काल से हो रहा है। मोदी के संबोधनों में इस विदा का आना भारतीय परंपरा की निरंतरता को भी दर्शाता है। शुक्ल यजुर्वेद में मंत्र आता है-

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
(परमात्मा सभी प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है)।
तैतरीय उपनिषद् में है-
‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
(सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें)।

15वीं शताब्दी में चैतन्य महाप्रभु के भक्ति आंदोलन के समय से ही वैष्णव लोग

‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे’ महामंत्र जपते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने भी अपनी रामभक्ति की अभिव्यक्ति के लिए साहित्य की विधा अनुप्रास अलंकार का उपयोग किया-

‘राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने॥’

रसखान भी अनुप्रास अलंकार का उपयोग करने में उतने ही दक्ष थे-

सेस गनेस, महेस, दिनेस, सुरेसहु जाहिं निरन्तर गावैं।
जाहिं अनादि, अनन्त अखंड, अछेद, अभेद सुबेद बतावैं।

ये पक्तियां आज भी रोमांचित करती हैं। यही कारण है कि प्रधानमंत्री भी अपनी शैली से श्रोताओं को अपनी भाषण शैली में इन विशेषताओं का समावेश कर आकर्षित करते हैं। अब जैसे हिंदी दिवस वाला उनका ट्वीट ही देख लें। प्रधानमंत्री ने कहा, ‘हिंदी ने विश्वभर में भारत को एक विशिष्ट सम्मान दिलाया है. इसकी सरलता, सहजता और संवेदनशीलता हमेशा आकर्षित करती है। हिंदी दिवस पर मैं उन सभी लोगों का हृदय से अभिनंदन करता हूं, जिन्होंने इसे समृद्ध और सशक्त बनाने में अपना अथक योगदान दिया है।’ ‘स’ से शुरू होने वाले अक्षरों को इतनी सरलता से बातों में पिरोकर उन्होंने हिंदी को लेकर जितनी सुंदर और जितनी संवेदनशील बात कही, वह लोगों को आसानी से इसीलिए समझ में आई क्योंकि इसमें प्रयुक्त अलंकार इसे वह ऊंचाई दे रहे थे, जो भारत जैसे महान देश के राष्ट्राध्यक्ष के अनुकूल है।

विषयों का क्लासिफिकेशन
प्रधानमंत्री के भाषण में अनुप्रास अलंकार का उपयोग तो होता ही है, संवाद को सहज और दमदार बनाने के लिए विषयों को कई उपमाओं से संवार देते हैं। यानी पीएम मोदी अपने भाषण को भलीभांति आमजन तक पहुंचाने के लिए विषयों का क्लासिफिकेशन कर देते हैं, जो एक रिसर्च पेपर की तरह लगता है। और सुनने वाला न सिर्फ भाषणों तक सीमित रहता है, बल्कि उससे अर्थ भी निकालकर अपने साथ जोड़ने लग जाता है। यही उनके भाषण की खासियत भी है। इसी हफ्ते वह गुजरात दौरे पर थे। वहां विकास के पंच संकल्प को उन्होंने पांच शक्तियों के साथ जोड़कर अपने विषय को और भी स्पष्ट बना दिया। ये पांच शक्तियां हैं- जनशक्ति, ज्ञानशक्ति, जलशक्ति, ऊर्जाशक्ति और रक्षाशक्ति। प्रधानमंत्री बनने के बाद जब पहली बार वह बीजेपी कार्यालय पहुंचे, तो अपने संबोधन में उन्होंने कार्यकर्ताओं से कहा, नरेंद्र मोदी के साथ अब पांच अक्षरों वाला शब्द ‘प्रधानमंत्री’ भले ही जुड़ गया है, लेकिन उससे ज्यादा ताकतवर चार अक्षरों वाला शब्द है, और वह है कार्यकर्ता। इन पांच अक्षरों की शोभा चार अक्षरों ने ही बढ़ाई है। वह जो कहना चाहते हैं, उसे इतने प्रभावशाली ढंग से कहते हैं कि उसमें उनका आत्मविश्वास भी झलकता है।

कविताओं का प्रयोग
कोच्चि, केरल में आईएनएस विक्रांत के नौसेना में शामिल होने पर उन्होंने अपने भाषण में अनुप्रास अलंकार का बहुत ही प्रभावशाली तरीके से इस्तेमाल किया- ‘विक्रांत विशाल है, विराट है, विहंगम है। विक्रांत विशिष्ट है, विक्रांत विशेष भी है। विक्रांत केवल एक युद्धपोत नहीं है। यह 21वीं सदी के भारत के परिश्रम, प्रतिभा, प्रभाव और प्रतिबद्धता का प्रमाण है। आज विक्रांत को देखकर समंदर की ये लहरें जयशंकर प्रसाद के प्रयाणगीत सा ही आह्वान कर रही हैं-

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्वला स्वतंत्रता पुकारती
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो।’

और ये आनुप्रासिक लहरें यहीं पर नहीं रुकतीं। बढ़ते-बढ़ते यह हिमालय तक पहुंच जाती हैं। उसी हिमालय तक, जहां कभी एक साधक ने लंबे समय तक एकांतवास किया था। इसी एकांतवास की एक झलक मोदी जी के केदारनाथ दौरे में दिखी, जब वह रुद्र गुफा में साधना में लीन थे। बताते हैं कि अकेले लगभग 17 घंटे तक प्रधानमंत्री में रुद्र गुफा में राष्ट्रजयी साधना की थी। हिमालय में अब आम से आम श्रद्धालु भी चार धाम यात्रा पर जा सकता है तो यह सिर्फ एक दिव्य साधक का कमाल है- जिसने घर घर में शिव को पहुंचा दिया है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब महाकाल कॉरिडोर के उद्घाटन के लिए पहुंचे तो शिवपुत्र ने अपने मन की बात बताई। उन्होंने कहा कि महाकाल का बुलावा आया तो ये बेटा आए बिना कैसे रह सकता था? उस समय कुंभ की हजारों साल की परंपरा का मन में मंथन चल रहा था, मैं अनेक विचारों से घिरा हुआ था। उसी दौरान मन कर गया और जो भाव पैदा हुआ वो संकल्प बन गया। हमारे इन तीर्थों ने सदियों से राष्ट्र को संदेश भी दिए हैं और सामर्थ्य भी दिया है।

अपने भाषणों में चुनौतियों को गिनाते हुए वह टारगेट भी दे डालते हैं। इससे उनके विचारों से जुड़ने वाला आम आदमी भी उस टारगेट से जुड़ने लगता है। आजादी के 75 वर्ष पूरे होने पर जब वह कहते हैं कि आने वाले 25 साल हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं, तो अपने भाषणों में उसे भी गिना डालते हैं। यहां वह ‘पंच प्रण’ का मंत्र देते हैं। और कहते हैं कि इसके लिए अपनी शक्ति, अपने संकल्पों और अपने सामर्थ्य को केंद्रित करना होगा। इसमें भी अनुप्रास है- शक्ति, संकल्प और सामर्थ्य। आप देखेंगे कि वडनगर के हटकेश्वरवर महादेव की सरजमीं पर जन्मे प्रधानमंत्री के भाषणों में शिव और गंगा का प्रयोग बहुत होता है। दरअसल उनके भाषणों के स्रोत अक्सर इन्हीं के आसपास मौजूद चीजों में रहते हैं। रावण द्वारा रचित शिव तांडव स्त्रोत हर किसी की जुबान पर सहज ही आ जाता है, तो उसमें बिलकुल यही वाली आनुप्रासिक शक्ति है। मगर क्या आप जानते हैं कि स्वयं प्रधानमंत्री मोदी शिव तांडव स्त्रोत सुनना और बोलना बहुत पसंद करते हैं। वे इटली जाते हैं, या रोम जाते हैं तो वहां भी उनके आसपास शिव तांडव स्त्रोत गूंजता रहता है। वाराणसी जाते हैं तो छोटे-छोटे बच्चे उन्हें शिव तांडव स्त्रोत सुनाते हैं। शक्ति, संकल्प और सामर्थ्य जैसे आनुप्रसिक मंत्रों की तुलना इन स्त्रोतों से करके देखें तो क्या दोनों के सुर और शक्ति एक से नहीं लगते-

जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् ।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥

अर्थात, जिन्होंने जटारुपी अटवी (वन) से निकलती हुई गंगा जी के गिरते हुए प्रवाहों से पवित्र किए गले में सर्पों की लटकती हुई विशाल माला को धारण कर डमरू के डम डम शब्दों से मंडित प्रचंड तांडव नृत्य किया, वो शिवजी हमारे कल्याण का विस्तार करें। प्रधानमंत्री के पंच प्रण भी हमारे समाज के कल्याण की भावना से ओतप्रोत हैं। भारतीय प्राचीन शास्त्रों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ज्ञान तो कभी कभी चमत्कृत करता है। और यह सारा ज्ञान किसलिए? सिर्फ भारत के लिए। पिछले दिनों पटना में उन्होंने अपने भाषण में वेद के तीन मंत्र पढ़े और उनका अर्थ समझाते हुए देशवासियों को उसके महत्व को समझाया। पहला मंत्र- ‘त्वां विशो वृणतां राज्याय त्वामिमाः प्रदिशः पञ्च देवी:’ यानी तुम्हें विश (प्रजा) राज्य के लिए चुनें, ये पांच दिव्य दिशाएं।’ उन्होंने इसके साथ जोड़ा कि हमारे वेदों ने यह भी मंत्र दिया है- ‘संगच्छध्वं संवदध्वं, सं वो मनांसि जानताम्।’ मोदी ने इसका अर्थ बताते हुए कहा, हम मिलकर चलें, मिलकर बोलें, एक-दूसरे के मन, एक दूसरे के विचारों को जानें और समझें। तीसरे वेद मंत्र में कहा- ‘समानो मन्त्र: समिति: समानी, समानं मन: सह चित्तमेषां’ यानी हम मिलकर एक जैसा विचार करें, हमारी समितियां, हमारी सभाएं और सदन कल्याण भाव के लिए समान विचार वाले हों और हमारे हृदय समान हों। वेदों से मिले हमारे ऋषि मुनियों के ज्ञान के जरिए प्रधानमंत्री ने भारत की जनता को जो बताया, वह मंत्रों के अनुप्रास से गुंजित हो आम जनमानस के सीधे हृदय में बैठ गया।

भाषणों में लक्ष्य पर निशाना
अब अगर प्रधानमंत्री कहते हैं कि वो गंगापुत्र हैं तो वह यूं ही नहीं है। शिव साधक की गंगा से दूरी भला कैसे बनी रह सकती है? किसी ने सोचा नहीं था कि काशी के घाटों को विश्व में वही पुरानी पहचान मिलेगी, वहां गंगा स्नान इतना पवित्र, पावन और आनंदमयी हो जाएगा, जैसा कि हम किताबों में पढ़ते आए हैं। खुद प्रधानमंत्री जब भी बनारस जाते हैं, मां गंगा का आचमन किए बगैर उनका जी नहीं मानता। और जब प्रधानमंत्री आचमन करते हैं तो बरबस ही मुख से गंगा स्त्रोतम का पहला मंत्र निकल जाता है-

देवि सुरेश्वरि भगवति गङ्गे
त्रिभुवनतारिणि तरलतरङ्गे।
शङ्करमौलिविहारिणि विमले
मम मतिरास्तां तव पदकमले॥

यानी हे देवि गंगे! तुम देवगण की ईश्वरी हो। हे भगवति! तुम त्रिभुवन को तारनेवाली, विमल और तरल तरंगमयी तथा शंकर के मस्तक पर विहार करनेवाली हो। हे माता! तुम्हारे चरण कमलों में मेरी मति लगी रहे। प्रधानमंत्री यह भलीभांति जानते हैं कि अनुप्रास अलंकार की सुंदरता सिर्फ भाषणों में ही नहीं, बल्कि सत्कर्मों में भी दिखनी चाहिए। गंगा स्त्रोत के इन मंत्रों से निकली त्रिभुवनतारी भावना के दर्शन हमें रूस यूक्रेन युद्ध में फंसे भारतीय बच्चों को बचाकर लाने में भी दिखते हैं। इस अभियान का नाम दिया गया ऑपरेशन गंगा, जिसकी कमान खुद प्रधानमंत्री मोदी संभाल रहे थे- लगातार, बिना आराम किए। जब तक यूक्रेन से एक एक भारतीय बच्चा अपने घर नहीं पहुंच गया, प्रधानमंत्री एक शिव की तरह ऑपरेशन गंगा की डोर अपने हाथ में थामे रहे। तब उनमें हर देशवासी को साक्षात गंगा के दर्शन हुए। यह प्रधानमंत्री के एक सिद्ध साधक होने का सबूत है, जिसकी आंख अर्जुन की ही तरह कभी भी अपने लक्ष्य से नहीं भटकती, भले ही दिन हो, या रात हो।

आपने गौर किया होगा कि प्रधानमंत्री की कोशिश रहती है कि जो बात लोगों के मन में बैठानी हो, उसमें अनुप्रास अलंकार हमेशा रहे। कोरोना जैसी महामारी में उनके दिए 4टी के मंत्र- टेस्ट, ट्रैक, ट्रीट और टीका ने अनगिनत लोगों को मौत के चंगुल से बचाया। मंत्रों में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग इसलिए होता है, ताकि उनसे निकलने वाले नाद में मन-मस्तिष्क पूरी तरह से रम जाए। उदाहरण स्वरूप हम दुर्गा सप्तशती के हर श्लोक का अंत देख सकते हैं जिसमें देवी स्तुति करते हुए हर बार यह कहा ही जाता है- नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमो नम:। दो साल पहले जब पीएम मोदी बंगाल के एक दुर्गापूजा कार्यक्रम में वर्चुअली हिस्सा ले रहे थे, तब उन्होंने भी दुर्गा सप्तशती का यह मंत्र- या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमो नम: पढ़ा था। तब उन्होंने इनके अर्थ भी लोगों को समझाए थे।

या देवी सर्वभूतेषु शांति-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
या देवी सर्वभूतेषु मातृ-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

अर्थात जो देवी सब प्राणियों में शक्ति, शांति और मां के रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है। सिद्ध संत बताते हैं कि देवी तो सभी मंत्रों से प्रसन्न होती हैं, परंतु जब हर मंत्र के अंत में इस तरह का अनुप्रास आता है तो इसका नाद उन्हें बड़ा प्रिय है। फिर जब वो बंगाल गए तो बोले, ‘जब भी मुझे अवसर मिला, मैंने बेलूर मठ और (दक्षिणेश्वर) काली मंदिर (नदी के पार) का दौरा किया, तो एक संबंध महसूस करना स्वाभाविक है। जब आपकी आस्था और विश्वास शुद्ध होते हैं, तो शक्ति (देवी) स्वयं आपको रास्ता दिखाती हैं। मां काली की असीम कृपा सदैव भारत पर है। इस आध्यात्मिक ऊर्जा के साथ देश विश्व कल्याण के लिए आगे बढ़ रहा है।’ प्रधानमंत्री ने लंबे समय तक साधना की है और यह बात उनसे अच्छा भला कौन जानता होगा। यह अनुप्रास से निकलने वाला नाद ही है, जिसने समस्त संसार को एक सुर में बांध रखा है। यह अनुप्रास का ही कमाल है जो विराट के लोकार्पण के मौके पर ही एक बार और दिखा। इस मौके पर उन्होंने कवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता की दो पक्तियां भी कहीं-
नवीन सूर्य की नई प्रभा, नमो, नमो, नमो!
नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो, नमो!

इसी कविता का एक हिस्सा पढ़ें-

नमो, नमो, नमो…
नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो!
नमो नगाधिराज-शृंग की विहारिणी!
नमो अनंत सौख्य-शक्ति-शील-धारिणी!
प्रणय-प्रसारिणी, नमो अरिष्ट-वारिणी!
नमो मनुष्य की शुभेषणा-प्रचारिणी!
नवीन सूर्य की नई प्रभा, नमो, नमो!
नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो!

अन्य भाषाओं में भी वही अंदाज
नरेंद्र मोदी हिंदी न सिर्फ हिंदी, बल्कि जिस भाषा में भाषण देते हैं, उसमें अनुप्रास का उपयोग करते हैं। पिछले महीने कुनो नैशनल पार्क में नामीबिया से चीतों को पिजड़ों से मुख्त करने के कार्यक्रम में उन्होंने कहा- दुनिया प्रकृति और पर्यावरण को देखकर sustainable development की बात करती है। लेकिन प्रकृति और पर्यावरण, पशु और पक्षी- भारत के लिए केवल sustainability और security के विषय नहीं हैं। ये हमारी sensibility और spirituality के भी महत्वपूर्ण हैं। यानी हमारी संस्कृति जीवों के साथ जुड़कर ही संवरती है। हमारा सांस्कृतिक का अस्तित्व- सर्वम् खल्विदम् ब्रह्म: (सब ब्रह्म ही है) के मंत्र पर टिका हुआ है। यानी संसार में पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, जड़-चेतन जो कुछ भी है, वह ईश्वर का ही स्वरूप है, हमारा अपना ही विस्तार है। हम सिर्फ अपनी बात नहीं करते हैं। हमारा मूलमंत्र ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’है। हम वे लोग हैं जो कहते हैं- परम् परोपकारार्थम्, यो जीवति स जीवति। यानी खुद के फायदे को ध्यान में रखकर जीना वास्तविक जीवन नहीं है। वास्तविक जीवन उसका है जो परोपकार के लिए जीता है। इसीलिए, हम जब खुद भोजन करते हैं, उसके पहले पशु-पक्षियों के लिए उसमें से उसका हिस्सा निकाल कर रख देते हैं।

शब्द और भाषाओं से तालमेल
जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों में कला और साहित्य से गूंथे शब्दों की शृंखला देखने को मिलती है, तो अनायास ही भारत की विरासत से लेकर विकसित देशों की संस्कृति का भी अध्ययन हो जाता है। अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने एक बार कहा था- When I do good, I feel good. When I do bad, I feel bad. Thats my religion. यानी जब मैं अच्छा करता हूं, तो मुझे अच्छा लगता है। जब मैं बुरा करता हूं, तो मुझे बुरा लगता है। यही मेरा धर्म है। यहां लिंकन ने alliteration (अनुप्रास) का इस्तेमाल किया है। अमेरिकी जैज़ सिंगर फ्रैंक सिनाट्रा का ‘दैट्स लाइफ’ टाइटल से एक लिरिक्स है– ‘I’ve been a puppet, a pauper, a pirate, a poet, a pawn and a king…’ जिसमें कई बार ‘P’ अक्षर का इस्तेमाल हुआ है। शब्द और भाषा को वह अपने भाषणों में इतना करीब से जोड़ते हैं कि जब झारखंड पहुंचते हैं, तो वहां की आम भाषा में संबोधन कर वहां की जनता का दिल जीत लेते हैं। उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में जाते हैं, तो वहां की भाषा अपने भाषणों में जोड़ने से नहीं चुकते हैं। यही कारण है कि उनके भाषण बरबस लोगों को अपनी तरफ खींच लेते हैं।

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