ललित गर्ग
भारत सुपर पावर बनने के सपने को साकार कर सकता है। इस उद्देश्य को पाने की दिशा में विज्ञान, तकनीक और अकादमिक क्षेत्रों में नवाचार और अनुसंधान करने के अभियान को तीव्रता प्रदान करने के साथ मातृभाषाओं एवं हिन्दी में शिक्षण एवं राजकाज में उपयोग को प्राथमिकता देना होगा।
हिन्दी को उसका गौरवपूर्ण स्थान दिलाने के लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं मध्यप्रदेश की शिवराज सिंह चौहान सरकार को साधुवाद दिया जाना चाहिए कि उनके प्रयासों से देश में पहली बार मध्य प्रदेश में चिकित्सा की पढ़ाई हिंदी में शुरू होने जा रही है। केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हिन्दी में मेडिकल की पढ़ाई का शुभारम्भ कर एक नए युग की शुरुआत की है, इससे न केवल हिन्दी का गौरव बढ़ेगा बल्कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा एवं राज-काज की भाषा बनाने में आ रही बाधाएं दूर होंगी। अंग्रेजी भाषा पर निर्भरता की मानसिकता को जड़ से खत्म करने की दिशा में यह एक क्रांतिकारी एवं युगांतकारी कदम होने के साथ अनुकरणीय भी है, जिसके लिये अन्य प्रांतों की सरकारों को बिना राजनीतिक आग्रहों एवं पूर्वाग्रहों के पहल करनी चाहिए।
आजादी का अमृत महोत्सव मना चुके देश के लिये यह चिन्तन का महत्वपूर्ण पहलु है कि भारत और अन्य देशों में 70 करोड़ से अधिक लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं, फिर भी चिकित्सा-इंजीनियरिंग एवं अन्य उच्च पाठ्यक्रम एवं अदालती कार्रवाई आज भी हिन्दी में क्यों नहीं हो पा रही? हिन्दी में चिकित्सा की पढ़ाई के प्रयोग की प्रतीक्षा लंबे समय से की जा रही थी, क्योंकि चीन, जापान, जर्मनी, फ्रांस और रूस समेत कई देश अपनी भाषा में उच्च शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। अच्छा होता कि भारत में इसकी पहल स्वतंत्रता के बाद ही की जाती। देर से ही सही, चिकित्सा की हिंदी में पढ़ाई का शुभारंभ भारतीय भाषाओं को सम्मान प्रदान करने की दृष्टि से एक मील का पत्थर है। इस प्रयोग की सफलता के लिए हरसंभव प्रयास किए जाने चाहिए।
मातृभाषा में पढ़ाई की अत्यन्त आवश्यकता इसलिये है कि इससे स्व-गौरव एवं स्व-संस्कृति का भाव जागता है। जब नया भारत बन रहा है, सशक्त भारत बन रहा है, विकास के नये अध्याय लिखे जा रहे हैं तो स्व-भाषा को सम्मान दिया जाना चाहिए। कई देशों ने यह सिद्ध किया है कि मातृभाषा में उच्च शिक्षा प्रदान कर उन्नति की जा सकती है। मातृभाषा में शिक्षा इसलिए आवश्यक है, क्योंकि एक तो छात्रों को अंग्रेजी में दक्षता प्राप्त करने के लिए अतिरिक्त ऊर्जा नहीं खपानी पड़ती और दूसरे वे पाठ्यसामग्री को कहीं सुगमता से आत्मसात करने में सक्षम होते हैं। इसी के साथ वे स्वयं को कहीं सरलता से अभिव्यक्त कर पाते हैं। इसकी भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि एक बड़ी संख्या में प्रतिभाशाली छात्रों को भी चिकित्सा, इंजीनियरिंग एवं ऐसे ही अन्य विषयों की पढ़ाई में अंग्रेजी की बाधा का सामना करना पड़ता है। लेकिन चिकित्सा, इंजीनियरिंग आदि की पढ़ाई की सर्वव्यापी, सुविधाजनक, सहज एवं सरल बनाने के लिये आवश्यक है कि उसमें अंग्रेजी के प्रचलित शब्दों का प्रयोग करने में परहेज न किया जाए। क्योंकि साहित्य और मानविकी के विषयों को छोड़ दें तो बाकी जगह जिस तरह की हिंदी इस्तेमाल की जा रही है, उससे तो लोगों को अंग्रेजी ज्यादा सरल लगने लगती है।
बताया जा रहा है कि हिंदी में चिकित्साशास्त्र की किताबें तैयार करवाने के लिए काफी मेहनत की गई है। इसे मोदी सरकार की मातृ भाषा में शिक्षा देने सम्बन्धी नई शिक्षा नीति की रोशनी में भी देखा जा रहा है। मेडिकल की किताबें हिंदी में अनुवादित करने के लिए भोपाल के गांधी मेडिकल कॉलेज में ‘मंदार’ नामक वॉर रूम तैयार किया गया था। कई मेडिकल कॉलेजों के 97 एक्सपर्ट डॉक्टरों की टीम ने 5568 घंटे मंथन कर 3410 पेज की किताबें तैयार की हैं। ये किताबें एनाटॉमी (शरीर रचना शास्त्र), फिजियोलॉजी (शरीर क्रिया शास्त्र) तथा बायोकेमिस्ट्री (जीवरसायन शास्त्र) की हैं।
भारत को बेहतर ढंग से जानने के लिए दुनिया के करीब 115 शिक्षण संस्थानों में हिंदी का अध्ययन अध्यापन होता है। अमेरिका में 32 विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों में हिंदी पढ़ाई जाती है। ब्रिटेन की लंदन यूनिवर्सिटी, कैंब्रिज और यॉर्क यूनिवर्सिटी में हिंदी पढ़ाई जाती है। जर्मनी के 15 शिक्षण संस्थानों ने हिंदी भाषा और साहित्य के अध्ययन को अपनाया है। कई संगठन हिंदी का प्रचार करते हैं। चीन में 1942 में हिंदी अध्ययन शुरू हुआ। 1957 में हिंदी रचनाओं का चीनी में अनुवाद कार्य आरंभ हुआ। एक अध्ययन के मुताबिक हिंदी सामग्री की खपत करीब 94 फीसद तक बढ़ी है। हर पांच में एक व्यक्ति हिंदी में इंटरनेट प्रयोग करता है। फेसबुक, ट्विटर और वाट्स एप में हिंदी में लिख सकते हैं। इसके लिए गूगल हिंदी इनपुट, लिपिक डॉट इन, जैसे अनेक सॉफ्टवेयर और स्मार्टफोन एप्लीकेशन मौजूद हैं। हिंदी-अंग्रेजी अनुवाद भी संभव है। इन सब सकारात्मक स्थितियों को देखते हुए अगला प्रयास कानून, विज्ञान, वाणिज्य आदि विषयों की पढ़ाई हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में शुरू करने का होना चाहिए। जब अन्य अनेक देशों में ऐसा हो सकता है तो भारत में क्यों नहीं हो सकता? हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा की पढ़ाई में प्रारंभ में कुछ समस्याएं आ सकती हैं, लेकिन उनसे आसानी से पार पाया जा सकता है। इस क्रम में इस पर विशेष ध्यान देना होगा कि शिक्षा की गुणवत्ता से कोई समझौता न होने पाए।
भारत सुपर पावर बनने के अपने सपने को साकार कर सकता है। इस महान उद्देश्य को पाने की दिशा में विज्ञान, तकनीक और अकादमिक क्षेत्रों में नवाचार और अनुसंधान करने के अभियान को तीव्रता प्रदान करने के साथ मातृभाषाओं एवं हिन्दी में शिक्षण एवं राजकाज में उपयोग को प्राथमिकता देना होगा। हिन्दी एवं मातृभाषाओं के प्रति प्रतिबद्धता के साथ नए भारत के निर्माण का आधार प्रस्तुत करना होगा, इससे नव-सृजन और नवाचारों के जरिए समाज एवं राष्ट्र में नए प्रतिमान उभरेंगें। हिन्दी एवं मातृभाषाएं सम्पूर्ण देश में सांस्कृतिक और भावात्मक एकता स्थापित करने का प्रमुख साधन है। भारत का परिपक्व लोकतंत्र, प्राचीन सभ्यता, समृद्ध संस्कृति तथा अनूठा संविधान विश्व भर में एक उच्च स्थान रखता है, उसी तरह भारत की गरिमा एवं गौरव की प्रतीक हिन्दी एवं मातृभाषाओं को हर कीमत पर विकसित करना हमारी प्राथमिकता होनी ही चाहिए।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शासन में हिन्दी सहित अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को सरकारी कामकाज, स्कूलों, कॉलेजों, तकनीकी शिक्षा में प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए, इस दिशा में वर्तमान सरकार के प्रयास उल्लेखनीय एवं सराहनीय है, लेकिन उनमें तीव्र गति दिये जाने की अपेक्षा है। क्योंकि इस दृष्टि से महात्मा गांधी की अन्तर्वेदना को समझना होगा, जिसमें उन्होंने कहा था कि भाषा संबंधी आवश्यक परिवर्तन अर्थात हिन्दी को लागू करने में एक दिन का विलम्ब भी सांस्कृतिक हानि है। मेरा तर्क है कि जिस प्रकार हमने अंग्रेज लुटेरों के राजनैतिक शासन को सफलतापूर्वक समाप्त कर दिया, उसी प्रकार सांस्कृतिक लुटेरे रूपी अंग्रेजी को भी तत्काल निर्वासित करें।’ लगभग 75 वर्षों के आजाद भारत में भी पूर्व सरकारों की उपेक्षापूर्ण नीतियों के कारण हिन्दी एवं क्षेत्रीय भाषाओं को उनका गरिमापूर्ण स्थान न दिला सके, यह विडम्बनापूर्ण एवं हमारी राष्ट्रीयता पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न है।
सच्चाई तो यह है कि देश में हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को जो सम्मान मिलना चाहिए, वह स्थान एवं सम्मान अंग्रेजी को मिल रहा है। अंग्रेजी और अन्य विदेशी भाषाओं की सहायता जरूर ली जाए लेकिन तकनीकी एवं कानून की पढ़ाई के माध्यम के तौर पर अंग्रेजी को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। आज भी भारतीय न्यायालयों में अंग्रेजी में ही कामकाज होना राष्ट्रीयता को कमजोर कर रहा है। राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय प्रतीकों की उपेक्षा एक ऐसा प्रदूषण है, एक ऐसा अंधेरा है जिससे ठीक उसी प्रकार लड़ना होगा जैसे एक नन्हा-सा दीपक गहन अंधेरे से लड़ता है। छोटी औकात, पर अंधेरे को पास नहीं आने देता। राष्ट्र-भाषा को लेकर छाए धूंध को मिटाने के लिये कुछ ऐसे ही ठोस कदम उठाने ही होंगे। हिन्दी विश्व की एक प्राचीन, समृद्ध तथा महान भाषा होने के साथ ही हमारी राजभाषा भी है, यह हमारे अस्तित्व एवं अस्मिता की भी प्रतीक है, यह हमारी राष्ट्रीयता एवं संस्कृति की भी प्रतीक है।
आमजन के लिए शिक्षा के साथ-साथ न्याय की भाषा कौन-सी हो, इसका सबक भारत और भारतीय न्यायालयों को अबू धाबी से लेने की जरूरत है। संयुक्त अरब अमारात याने दुबई और अबू धाबी ने गत दिनों ऐतिहासिक फैसला लेते हुए अरबी और अंग्रेजी के बाद हिंदी को अपनी अदालतों में तीसरी आधिकारिक भाषा के रूप में शामिल कर लिया है। इसका मकसद हिंदी भाषी लोगों को मुकदमे की प्रक्रिया, उनके अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में सीखने में मदद करना है। न्याय तक पहुंच बढ़ाने के लिहाज से यह कदम उठाया गया है। अमीरात की जनसंख्या 90 लाख है। उसमें 26 लाख भारतीय हैं, भारत में हिन्दी बोलने एवं समझने वाले तो सत्तर करोड़ लोग होंगे, फिर क्यों नहीं शिक्षा एवं न्याय की भाषा हिन्दी होती?