भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान पूज्य तथा पावन समझा जाता है। कानों में गुरु शब्द के पड़ते ही अंत:करण में एक विशाल व्यक्तित्वमयी मूर्ति अंकित हो जाती है और हृदय से श्रद्धा भक्ति ओर अनुराग की वह रसयुक्त त्रिवेणी प्रवाहित हो उठती है, जो संपूर्ण बुराइयों को धोकर हृदय में अपूर्व शांति को भर देती है। जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहाँ गुरु की व्याप्ति न पाई जाती हो क्योंकि बिना गुरुकृपा एवं मार्गदर्शन के व्यक्ति की उन्नति संभव नहीं है और व्यक्ति पर ही समाज का अस्तित्व निर्भर है। अतएव समाज में गुरु का स्थान अत्यंत ऊँचा समझा जाता है और पूज्य की दृष्टि से देखा जाता है।
भारतीय विद्वानों ने पाँच प्रकार के गुरुओं का निर्देश किया है :—
*“यो भावयति या सूते येन विद्योपदिश्यते।*
*ज्येष्ठ भ्राता च भर्ता च पञ्चैते गुरुव: स्मृता।।”*
अर्थात जनक, जननी, विद्योपदेशक, ज्येष्ठ भ्राता तथा पति ये पाँचों गुरु हैं। इन पाँचों गुरुओं का समाज में विशिष्ठ स्थान होता है, परंतु आजकल ‘गुरु’ शब्द विद्योपदेशक या शिक्षक के लिए रूढ़ सा हो गया है। यह शब्द विद्या पढ़ाने या सिखाने के लिए ही सामान्य रूप में प्रयोग किया जाने लगा है। इसके अतिरिक्त ‘शतपथ ब्राह्मण’ में कहा गया है—
*“मातृमान पितृमान आचार्यवान् पुरुषोवेद”*
अर्थात मनुष्य का प्रथम गुरु ‘माता’ दूसरा ‘पिता’ तथा तीसरा ‘आचार्य’ है। इन तीनों उत्तम गुरुओं या शिक्षकों के होने से मनुष्य ज्ञानवान बनता है। वैसे तो जन्मदाता होने के नाते माता-पिता का स्थान सर्वोत्कृष्ट है, फिर भी कुछ अंशों में गुरु का महत्व इनसे भी आगे बढ़ जाता है, क्योंकि माता-पिता के द्वारा बालक को शरीर अवश्य मिलता है परंतु ज्ञान की प्राप्ति उसे गुरु के द्वारा ही होती है। ज्ञान मानव जीवन की सार वस्तु है। कहा भी गया है— *“ज्ञानाद् ऋते न मुक्ति:”* अर्थात ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं या इस प्रकार कह लीजिए कि ज्ञान के बिना मनुष्य साक्षात पशु के समान है। अत: मानव को पशुकोटि से अलग कर इंसानियत का भाव पैदा करने वाला ‘गुरु’ ही है इसलिए शास्त्रकारों ने हमेशा उच्च स्वर में घोषणा की है।
*“गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर:।*
*गुरु: साक्षात् परब्रह्मा, तस्मै श्री गुरुवे नम:।।”*
भारतीय विद्वानों ने अपने ग्रंथों में स्थान-स्थान पर गुरु की प्रशंसा की है। उनकी दृष्टि में गहन अज्ञान रूपी अंधकार से युक्त, ज्ञानमार्ग से विमुख मानव का आश्रय एकमात्र गुरु ही है, जो अपने ज्ञानदीप के दिव्यलोक से संपूर्ण अज्ञानरूपी अंधकार को नष्ट कर उसे सही दिशा प्रदान करता है, इसलिए महाभारत में कहा गया है—
*“अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया,*
*चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नम:।”*
अर्थात जो अज्ञान से बंद आँखों में ज्ञान का प्रकाश भर दें, उस गुरुदेव को नमस्कार है। संसार में तीन ऋण बड़े माने गए हैं — *पितृ ऋण, मातृ ऋण तथा गुरु ऋण* । इनमें से गुरु का ऋण कितना विशाल होता है, उसे बताते हुए महर्षि हरीत कहते हैं —
*‘‘एकमप्यक्षरं यस्तु गुरु: शिष्ये निवेदयेत्,* *पृथित्वां नास्ति तदद्रव्यं य: दत्वा त्वनृणी भवेत्।’’*
अर्थात यदि गुरु ने शिष्य को एक अक्षर भी सिखाया है तो उसके लिए पृथ्वी पर कोई ऐसा द्रव्य नहीं है जिसे देकर शिष्य गुरु के ऋण से ऋणमुक्त हो सके। सुप्रसिद्ध स्मृतिकार महाराज ‘मनु’ के विचार से समस्त लौकिक एवं पारलौकिक सुखों की उपलब्धि का साधन एकमात्र ‘गुरु की सेवा’ ही है। उनकी मान्यता है कि गुरु की सेवा से ही ब्रह्मलोक की प्राप्ति भी सहज हो जाती हे। कहा भी गया है—
*’‘गुरुशुश्रूषया च एवं ब्रह्मलोक समश्नुते’’*
अत: मन, वाणी तथा कर्म से गुरु की सेवा शुश्रूषा तथा आदर सत्कार करना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार जिज्ञासु के लिए ‘गुरु की सेवा’ ही सर्वस्व है। विद्या प्राप्ति गुरु की सेवा से ही हो सकती है। इसलिए पूरी श्रद्धाभक्ति के साथ गुरु की सेवा करनी चाहिए, क्योंकि श्रद्धाहीन क्रियाएँ प्राय: निष्फल होती है। श्रद्धा के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। भगवान श्री कृष्ण गीता में उपदेश देते हुए कहते हैं —
*‘‘श्रद्धावान लभते ज्ञानम्’ְ’* अर्थात श्रद्धावान ही ज्ञान की प्राप्ति कर सकता है।
एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य की मृण्मयी अर्थात मिट्टी से बनी प्रतिमा से धनुर्विद्या में वह अपूर्व कौशल प्राप्त कर लिया था जिसे देख स्वयं आचार्य द्रोण भी आश्चर्यचकित रह गए थे।
इस प्रकार प्राचीन विद्वानों ने गुरु की महिमा की भुरि-भुरि प्रशंसा की है। सिद्धांत रूप में ही नहीं अपितु व्यवहार में भी समाज में गुरु का मूर्धन्य स्थान रहा है। विद्यार्थी गुरु के समक्ष भगवान को हेय समझता था। भले ही वह किसी सामंत या सम्राट का राजकुमार हो, पर गुरु के आश्रम में उसे सामान्य बटु की भाँति ही जीवन बिताना पड़ता था। साथ ही बड़ी श्रद्धा तथा भक्ति के साथ गुरु का गृहकार्य भी किया करता था जैसे कृषि-कार्य, गोचारण आदि। पूजा के निमित जल, पुष्प, कुश समिधा तथा फल-फूल लाकर गुरु के सामने उपस्थित करना तो उसका नित्य का अनिवार्य कार्य ही होता था। वह गुरु के सामने इतना श्रद्धालु तथा विनीत रहता था कि गुरु की पादुका, छाता, आसन आदि का उपयोग करना महापाप समझता था। आचार्य भी शिष्य को धर्म, नीति, सदाचार, गणित, आयुर्वेद, संगीत आदि विद्याओं की शिक्षा देता था। किंतु दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आज गुरु शिष्य के वे मधुर संबंध कुछ टूट रहे हैं और उनमें नीरसता-सी छायी जा रही है। आज न तो वे सेवानिष्ठ आदर्श शिष्य रहे और न ही वैसे महनीय तपोनिष्ठ आचार्य। कहाँ हैं राम, कृष्ण, आरूणि, कौत्स और एकलव्य जैसे एकनिष्ठ गुरुभक्त और कहाँ हैं गौतम, वशिष्ठ, धौम्य तथा वरतंतु जैसे हमारे पूज्य गुरुवर। दोनों पक्षों में ही ह्रास बहुत स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है।
अत: अब हम पुन: भारत को सुसंस्कृत व संस्कारवान बनाना चाहते हैं, अपनी संस्कृति व संस्कारों को बचाना चाहते हैं और विश्व में वही मूर्धन्य आसन ग्रहण करना चाहते तो गुरु और शिष्य के पावन संबंधों को और प्रागाढ़ बनाना होगा और उनमें वही भक्ति, वही शक्ति और वही अनुरक्ति भरनी होगी, तभी देश को *सत्यं-शिवं-सुदरम्* का सच्चा साक्षात्कार होगा।
*सचिन कुमार शास्त्री*
*सहायक अध्यापक*
*ज्ञान भारती स्कूल, साकेत*
*संपर्क- ९५५७२००८६७*