ईश्वर के 100 नामों की व्याख्या
आजकल के प्रचलित इतिहास के लेखन कार्य में लगे ऐसे अधिकांश इतिहासकार हैं जिन्होंने वेदों और आर्ष ग्रंथों के मनमाने अर्थ किए हैं। कितने ही इतिहासकार हैं जो वेदों में इतिहास मानते हैं। यही कारण है कि ऐसे इतिहासकार वेदों के शब्दों , सूक्तियों या मंत्रों का मनमाना अर्थ करके उसमें इतिहास संबंधी प्रमाण प्रस्तुत करते रहते हैं। वास्तव में ऐसे तथाकथित विद्वानों का इस प्रकार का दृष्टिकोण आर्ष- ग्रंथों के साथ किया जाने वाला अन्याय है। सृष्टि प्रारंभ में हमारे ऋषियों को जिस प्रकार वेदों का ज्ञान ईश्वर से प्राप्त हुआ, उससे वेद अपौरुषेय सिद्ध होते हैं। इसके उपरांत भी तथाकथित इतिहासकार उन्हें पौरूषेय सिद्ध करने का अतार्किक प्रयास करते रहते हैं। इससे हमारे इतिहास की और वेदों की अनुचित व अतार्किक व्याख्या होती है। जिसे किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता। व्याकरण के ज्ञान से सर्वथा अछूते इतिहासकार वेदों के अर्थ जब करने लगते हैं तो वह उनकी अनाधिकार चेष्टा ही होती है। इसके अतिरिक्त इसे और कुछ नहीं कहा जा सकता। यही कारण है कि विद्यार्थियों को इन तथाकथित इतिहासकारों या विद्वानों के द्वारा जो इतिहास लिखकर दिया गया है, या दिया जा रहा है उसमें वेद, वेद के शब्द, वेद की भावना और वेद का उद्देश्य सब धूमिल से हो जाते हैं।
अनाधिकार चेष्टा के साथ वेदों का अर्थ करना और वेदों के संबंध में लिखने का काम मैक्समूलर जैसे विदेशी तथाकथित विद्वानों से हमारे देश के इतिहासकारों और विद्वानों ने सीखा है।
यही कारण है कि आर्य विद्वानों से अलग ऐसे अनेक इतिहासकार हैं , जिन्हें ‘आर्य’ और ‘ओ३म’ शब्द के अर्थ का भी ज्ञान नहीं है। इसके उपरांत भी वे इस पर अधिकारपूर्वक लिखने का प्रयास करते देखे जाते हैं। यह अलग बात है कि उनका इस प्रकार लिखा जाना पूर्णतया ऊंटपटांग होता है। उनके इस प्रकार लिखने का सबसे अधिक घातक प्रभाव विद्यार्थियों के कोमल मन पर पड़ता है, जो उनकी व्याख्याओं को ही ‘ब्रह्मवाक्य’ मानकर स्वीकार कर लेते हैं और जीवन भर उन्हीं की दी हुई गलत व्याख्या के शिकार बने रहते हैं । हमारा मानना है कि इतिहास जैसा ग्रंथ भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की गहरी समझ रखने वाले विद्वानों के द्वारा ही लिखा जाना चाहिए। जिन्हें वेद, वेद के शब्द और वेद की भावना का गहरा ज्ञान हो।
जिन तथाकथित विद्वानों ने वेद, वेद के शब्द और वेद की भावना का ध्यान न रखते हुए चीजों की अपनी मनमानी व्याख्या की है उनके अनुसार :– “आर्य विविध देवताओं की पूजा करते थे। इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, यम आदि ऐसे अनेक देवता थे, जिन्हें तृप्त व सन्तुष्ट करने के लिए वे अनेक विविध-विधानों का अनुसरण करते थे। संसार का स्रष्टा, पालक व संहर्ता, एक ईश्वर की कल्पना सम्भवत: बाद में विकसित हुई, और प्रारम्भ में आर्य लोग प्रकृति की विविध शक्तियों को देवता के रूप में मान कर उन्हीं की उपासना करते थे।”
भारतीय वैदिक संस्कृति के वैज्ञानिक और तार्किक दृष्टिकोण से अनभिज्ञ लोगों ने इस प्रकार की धारणा इसके संबंध में विकसित की। दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी हमें अपनी वैदिक संस्कृति के पवित्रतम संबंध के साथ जोड़ा नहीं गया। सरकारों ने वैदिक संस्कृति को पिछड़ेपन का प्रतीक माना और आधुनिकता के नाम पर हमें पश्चिम की संस्कृति के साथ जोड़ने का कार्य करने में ही भारत के लोगों का भला समझा। उसी का परिणाम रहा कि वैदिक संस्कृति के संबंध में व्याप्त उपरोक्त धारणा और भी गहरी होती चली गई ।
भारत के आर्यों के बारे में मान्यता स्थापित की गई कि :– ‘प्रकृति में हम अनेक शक्तियों को देखते हैं। वर्षा, धूप, सरदी, गरमी सब एक नियम से होती हैं। इन प्राकृतिक शक्तियों के कोई अधिष्ठातृ-देवता भी होने चाहिये, और इन देवताओं की पूजा द्वारा मनुष्य अपनी सुख-समृद्धि में वृद्धि कर सकता है, यह विचार प्राचीन आर्यों में विद्यमान था।’
वेद माने गए ग्वालों के गीत
वेदों को ग्वालों के गीत कहकर उन्हें उपेक्षित करने का प्रयास किया गया। वेदों के अर्थ का अनर्थ करते हुए आर्यों के बारे में लिखा गया कि प्राकृतिक दशा को सम्मुख रखकर वेदों के देवताओं को तीन भागों में बाँटा जा सकता है:(1) द्युलोक के देवता, यथा सूर्य, सविता, मित्र, पूषा, विष्णु, वरुण और मित्र । (2) अन्तरिक्ष-स्थानीय देवता, यथा इन्द्र, वायु, मरुत और पर्जन्य । (3) पृथिवी-स्थानीय देवता, यथा, अग्नि, सोम और पृथिवी।
द्यु लोक, अन्तरिक्षलोक और पृथिवीलोक के विभिन्न क्षेत्रों में प्रकृति की जो शक्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं, उन सबको देवतारूप में मानकर वैदिक आर्यों ने उनकी स्तुति में विविध सूक्तों व मन्त्रों का निर्माण किया था। अदिति, उषा, सरस्वती आदि के रूप में वेदों में अनेक देवियों का भी उल्लेख है, और उनके स्तवन में भी अनेक मन्त्रों का निर्माण किया गया है। यद्यपि बहुसंख्यक वैदिक देवी-देवता प्राकृतिक शक्तियों व सत्ताओं के मूर्तरूप हैं, पर कतिपय देवता ऐसे भी हैं, जिन्हें भाव-रूप समझा जा सकता है। मनुष्यों में श्रद्धा, मन्यु (क्रोध) आदि कि जो विविध भावनाएँ हैं, उन्हें भी वेदों में दैवी रूप प्रदान किया गया है।’
यदि महर्षि दयानंद होते तो …
अब प्रश्न यह उठता है कि यदि महर्षि दयानंद होते तो वह वेद, वेद के शब्दों और वेद की भावना का इतिहास के लेखन में किस प्रकार प्रयोग करते या करवाते ? यदि इस पर विचार करें तो महर्षि दयानंद कृत सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास को हमें पढ़ना चाहिए। जिसमें महर्षि दयानंद जी महाराज ने ओ३म और उसके 100 अर्थों पर विचार प्रस्तुत किए हैं। इनके अर्थ महर्षि दयानंद ने व्याकरण के आधार पर किए हैं। यदि इनको आज का इतिहासकार अपना ले तो महर्षि दयानंद के अनुसार इतिहास के लेखन का कार्य पूर्ण करने में हमें बहुत अधिक सफलता प्राप्त हो सकती है। तब वेदों में इतिहास ढूंढने का मूर्खतापूर्ण कार्य भी रुक जाएगा। महर्षि दयानंद हमें बताते हैं :–.
“अर्थ-(ओ३म्) यह ओंकार शब्द परमेश्वर का सर्वोत्तम नाम है, क्योंकि इसमें जो अ, उ और म् तीन अक्षर मिलकर एक (ओ३म्) समुदाय हुआ है, इस एक नाम से परमेश्वर के बहुत नाम आते हैं जैसे-अकार से विराट्, अग्नि और विश्वादि। उकार से हिरण्यगर्भ, वायु और तैजसादि। मकार से ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञादि नामों का वाचक और ग्राहक है। उसका ऐसा ही वेदादि सत्यशास्त्रें में स्पष्ट व्याख्यान किया है कि प्रकरणानुकूल ये सब नाम परमेश्वर ही के हैं।”
वर्तमान इतिहासकारों को महर्षि दयानंद द्वारा इस प्रकार की गई व्याख्या को ध्यान में रखना चाहिए । उन्हें ऋषि दयानंद के एक – एक शब्द पर विचार करना चाहिए और उसी के अनुसार अपना इतिहास लेखन का कार्य ‘ओ३म’ की व्याख्या के संबंध में करना चाहिए। ‘ओ३म’ शब्द को समस्त सृष्टि का या चराचर जगत का बीजतत्व कहा जा सकता है। प्राण तत्व भी कहा जा सकता है। बीज तत्व की उपेक्षा कभी नहीं की जा सकती। यही कारण है कि ऋषि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश का शुभारंभ इस बीजतत्व की व्याख्या के साथ ही आरंभ किया है।
इस बीजतत्व की सुगंध सृष्टि के कण-कण में है। कण-कण में रमा है। कण-कण में बसा है। इसलिए इतिहास लेखक की हर श्वांस में भी उसकी सुगंध प्रकट होनी चाहिए। जिससे वह अपने इतिहास लेखन को सुव्यवस्थित, सुंदर और न्यायपूर्ण बनाने का कार्य कर सकेगा।
इतिहासकारों की सबसे बड़ी समस्या
वर्तमान इतिहासकारों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह ओ३म के विषय में ना तो कुछ जानते हैं और ना ही कुछ मानते हैं। ‘ओ३म’ शब्द को कई इतिहासकार सांप्रदायिक तक मानते हैं। इसलिए वे अपना इतिहास लेखन कार्य नास्तिकता के साथ आरंभ करते हैं। उसका परिणाम यह होता है कि वे कम्युनिस्टों, मुसलमानों और ईसाइयों के द्वारा किए गए अत्याचारों को भी कई बार महान कार्यों में वर्णित या उल्लिखित करते देखे जाते हैं। सृष्टि की संवेदनाशक्ति अर्थात ओ३म के साथ जुड़कर जो व्यक्ति इतिहास लेखन का कार्य करेगा वह पापी और अत्याचारी शासकों या विचारधारा के लोगों के पापपूर्ण कृत्यों का कभी महिमामंडन नहीं कर सकता । संवेदना शून्य होकर लिखा जाने वाला इतिहास भावशून्यता की स्थिति उत्पन्न करता है।
उनके द्वारा ऐसा कार्य इसलिए किया जाता है कि वे ओ३म जैसी निष्पक्ष और न्यायपूर्ण सत्ता से अपने आपको दूर कर लेते हैं । ऋषि दयानंद की शैली में यदि इतिहास लिखा जाता या लिखा जाए तो ‘ओ३म’ जैसे सृष्टि के प्राण तत्व के साथ समन्वित होकर कार्य करने वाला इतिहासकार निष्पक्ष और न्यायपूर्ण होकर उन लोगों का महिमामंडन करेगा जो इतिहास के गौरव हैं या जिन्होंने संसार में अन्याय और अत्याचार को मिटाने के लिए अपने बलिदान दिए या जो संसार में निष्पक्षता और न्यायप्रियता को स्थापित करने के लिए कार्य करते हैं। दीपक बुझाने वाले कभी महान नहीं हो सकते, दीपक जलाने वाले ही महान होते हैं।
शब्दों के अर्थों के प्रति अपने अज्ञान को प्रकट करते हुए कई बार इतिहासकार अर्थ का अनर्थ करके अपनी मनमानी व्याख्या करते देखे जाते हैं। कई बार किसी शब्द का प्रसंगानुकूल जो अर्थ अपेक्षित है, उसे न लगाकर वे दूसरा अर्थ लगाते हैं।
ऐसे लोगों के विषय में ऋषि सदानंद जी के इस उदाहरण को हमें ध्यान में रखना चाहिए :– “जो आप ऐसा कहें कि जहाँ जिस का प्रकरण है वहाँ उसी का ग्रहण करना योग्य है ,जैसे किसी ने किसी से कहा कि ‘हे भृत्य ! त्वं सैन्धवमानय’ अर्थात् तू सैन्धव को ले आ। तब उस को समय अर्थात् प्रकरण का विचार करना अवश्य है, क्योंकि सैन्धव नाम दो पदार्थों का है; एक घोड़े और दूसरा लवण का। जो स्वस्वामी का गमन समय हो तो घोड़े और भोजन का काल हो तो लवण को ले आना उचित है और जो गमन समय में लवण और भोजन-समय में घोड़े को ले आवे तो उसका स्वामी उस पर क्रुद्ध होकर कहेगा कि तू निर्बुद्धि पुरुष है। गमनसमय में लवण और भोजनकाल में घोड़े के लाने का क्या प्रयोजन था? तू प्रकरणवित् नहीं है, नहीं तो जिस समय में जिसको लाना चाहिए था उसी को लाता। जो तुझ को प्रकरण का विचार करना आवश्यक था वह तूने नहीं किया, इस से तू मूर्ख है, मेरे पास से चला जा। इससे क्या सिद्ध हुआ कि जहाँ जिसका ग्रहण करना उचित हो वहाँ उसी अर्थ का ग्रहण करना चाहिए तो ऐसा ही हम और आप सब लोगों को मानना और करना भी चाहिए।”
इतिहास लेखन के संबंध में परमपिता परमेश्वर के विभिन्न नामों के गलत अर्थ लगाने की प्रक्रिया को भारतीय साहित्य के संदर्भ में सबसे पहले हम पुराणों में देखते हैं । यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि पुराणों के ही तथाकथित देवताओं या भगवानों को आधार बनाकर कई इतिहासकार उन्हीं के आधार पर इतिहास लेखन का कार्य करते हैं । यद्यपि पुराणों में इतिहास है और भारत के इतिहास के लेखन में पुराण महत्वपूर्ण भूमिका भी निभा सकते हैं, परंतु इसके उपरांत भी अंधा होकर उनका अनुकरण नहीं किया जा सकता। क्योंकि पुराणकार का ज्ञान वैदिक विद्वानों की अपेक्षा बहुत निम्न है।
वैदिक दृष्टिकोण अपनाकर और महर्षि दयानंद जी से प्रेरित होकर यदि इतिहास का लेखन किया जाएगा तो हमें उनकी इस बात पर ध्यान देना होगा :- “परमेश्वर का कोई भी नाम अनर्थक नहीं, जैसे लोक में दरिद्री आदि के धनपति आदि नाम होते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि कहीं गौणिक, कहीं कार्मिक और कहीं स्वाभाविक अर्थों के वाचक हैं।
उसी की उपासना करनी योग्य है
‘ओम्’ आदि नाम सार्थक हैं-जैसे (ओं खं०) ‘अवतीत्योम्, आकाशमिव व्यापकत्वात् खम्, सर्वेभ्यो बृहत्वाद् ब्रह्म’ रक्षा करने से (ओम्), आकाशवत् व्यापक होने से (खम्), सब से बड़ा होने से ईश्वर का नाम (ब्रह्म) है।।1।।
(ओ३म्) जिसका नाम है और जो कभी नष्ट नहीं होता, उसी की उपासना करनी योग्य है, अन्य की नहीं।।2।।
सब वेदादि शास्त्रें में परमेश्वर का प्रधान और निज नाम ‘ओ३म्’ को कहा है, अन्य सब गौणिक नाम हैं।।3।।
क्योंकि सब वेद सब धर्मानुष्ठानरूप तपश्चरण जिसका कथन और मान्य करते और जिसकी प्राप्ति की इच्छा करके ब्रह्मचर्य्याश्रम करते हैं, उसका नाम ‘ओ३म्’ है।।4।।
जो सब को शिक्षा देनेहारा, सूक्ष्म से सूक्ष्म, स्वप्रकाशस्वरूप, समाधिस्थ बुद्धि से जानने योग्य है, उसको परम पुरुष जानना चाहिए।।5।। और स्वप्रकाश होने से ‘अग्नि’ विज्ञानस्वरूप होने से ‘मनु’ और सब का पालन करने से ‘प्रजापति’ और परमैश्वर्य्यवान् होने से ‘इन्द्र’ सब का जीवनमूल होने से ‘प्राण’ और निरन्तर व्यापक होने से परमेश्वर का नाम ‘ब्रह्म’ है।।6।।
(स ब्रह्मा स विष्णुः०) सब जगत् के बनाने से ‘ब्रह्मा’, सर्वत्र व्यापक होने से ‘विष्णु’, दुष्टों को दण्ड देके रुलाने से ‘रुद्र’, मंगलमय और सब का कल्याणकर्त्ता होने से ‘शिव’, ‘यः सर्वमश्नुते न क्षरति न विनश्यति तदक्षरम्’
‘यः स्वयं राजते स स्वराट्’ ‘योऽग्निरिव कालः कलयिता प्रलयकर्त्ता स कालाग्निरीश्वरः’ (अक्षर) जो सर्वत्र व्याप्त अविनाशी, (स्वराट्) स्वयं प्रकाशस्वरूप और (कालाग्नि०) प्रलय में सब का काल और काल का भी काल है, इसलिए परमे श्र्वर का नाम ‘कालाग्नि’ है।।7।।
डॉ राकेश कुमार आर्य
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
प्रकाशक का दूरभाष नंबर : 011 – 407122000।
मुख्य संपादक, उगता भारत