अवधेश कुमार
सात अक्टूबर को राजधानी दिल्ली के आंबेडकर भवन का दृश्य निश्चित रूप से इस देश के ज्यादातर लोगों के जेहन में लंबे समय तक कायम रहेगा। आयोजकों का दावा है कि वहां 10 हजार दलितों ने हिंदू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म ग्रहण किया। संविधान व्यक्ति को अपनी मर्जी से किसी भी धर्म को त्यागने या अपनाने की स्वतंत्रता देता है। इस नाते जिन लोगों ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया, यह उनकी व्यक्तिगत आस्था का विषय है। किंतु इसके साथ कुछ अन्य पहलू भी जुड़े हैं। दो-चार लोग या परिवार धर्मांतरण करते हैं तो ज्यादा आश्चर्य नहीं होता। एक साथ इतनी संख्या में लोगों को कैसे हिंदू धर्म अस्वीकार्य लगा और बौद्ध धर्म के प्रति उनकी आस्था घनीभूत हो गई?
व्यक्तिगत या सामूहिक
आयोजन में दिल्ली प्रदेश के मंत्री राजेंद्र पाल गौतम गौतम की सक्रियता ने मामले को ज्यादा संदिग्ध बना दिया। हालांकि कार्यक्रम के तीसरे दिन उन्हें इस्तीफा देना पड़ा, लेकिन इस प्रसंग में कुछ बातें गौर करने लायक हैं:
एक, पंथ और उपासना पद्धति व्यक्तिगत आस्था का मामला है, किंतु क्या इतना बड़ा आयोजन व्यक्तिगत आस्था तक सीमित माना जा सकता है?
दो, सार्वजनिक तौर पर राम, कृष्ण, ब्रह्मा, विष्णु, महेश को देवता नहीं मानने और उनकी पूजा न करने की शपथ किसी धर्म और उपासना पद्धति का अपमान है या नहीं, यह कैसे तय हो। हिंदू समुदाय से जुड़े लोगों को यह सहज ही अपमानजनक लग सकता है।
तीन, आयोजकों की भाषा उदार और विनम्र नहीं है। समारोह में डॉ. आंबेडकर के पड़पोते राजरत्न आंबेडकर ने लोगों को शपथ दिलाई। उनके वक्तव्य में हिंदू धर्म और भारतीय समाज व्यवस्था को लेकर आक्रामकता भरी हुई थी।
आयोजकों का कहना है कि बाबा साहब आंबेडकर ने 14 अक्टूबर, 1956 को स्वयं बौद्ध धर्म स्वीकारने के बाद चंद्रपुर में सामूहिक धर्म परिवर्तन के कार्यक्रम में जो 22 शपथ दिलवाई थी, वही यहां दिलवाई गई है। यहां भी कुछ तथ्य देखें:
बाबा साहब ने 1935 में हिंदू धर्म त्यागने की घोषणा की थी। इसके 20 वर्ष बाद उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार किया।
बौद्ध धर्म अपनाने के बाद वह ज्यादा नहीं जी सके। 6 दिसंबर, 1956 को उनकी मृत्यु हो गई। यानी वह जिंदा होते तो धर्म परिवर्तन पर उनका मत क्या होता, इसे वह क्या स्वरूप देते कहना मुश्किल है।
बाबा साहब राजनीतिक व्यक्ति थे। उन्होंने जिस तरह लोगों का धर्म परिवर्तन कराया वही धर्म बदलने का मार्ग नहीं हो सकता। धार्मिक कार्य धर्म क्षेत्र के व्यक्तियों के द्वारा बताए मार्ग के द्वारा ही हो सकता है।
मूल बौद्ध धर्म में तीन प्रतिज्ञाएं स्वीकार्य हैं -बुद्धं शरणं गच्छामि। धम्मं शरणं गच्छामि। संघं शरणं गच्छामि। सहज यही है कि बौद्ध धर्म अपनाने वाला व्यक्ति यही तीन प्रतिज्ञाएं करे। इनमें भी अंतिम केवल भिक्षु के लिए है।
ऊंच-नीच, छुआछूत निश्चित रूप से समाज की बीमारी है। किंतु यह नहीं कहा जा सकता कि डॉ. आंबेडकर के समय की तरह ही जाति भेद की खाई बनी हुई है। आंबेडकर द्वारा धर्म बौद्ध धर्म अपनाने के पीछे बड़ा कारण यही था कि हिंदू धर्म को उन्होंने समाज व्यवस्था के साथ जोड़ा और माना कि इसमें रहते हुए दलित समानता का दर्जा नहीं पा सकते। वह प्रयोग सफल नहीं हुआ क्योंकि बौद्ध बनने के बाद भी समाज में वे दलित ही बने रहे। आज ऐसी स्थिति नहीं है कि इतनी संख्या में दलितों को समाज व्यवस्था से तंग आकर समानता के लिए बौद्ध धर्म अपनाने की आवश्यकता पड़े। इस नाते यह आयोजन कई प्रकार के प्रश्न और संदेह पैदा करता है:
पिछले कुछ समय की इससे संबंधित गतिविधियां चिंताजनक रही है। हिंदू धर्म के विरुद्ध दलित आक्रामकता में समाज को जोड़ने का भाव कम और तोड़ने का ज्यादा है।
इस समय दलित-मुस्लिम गठजोड़ की आक्रामक धारा पैदा करने की कोशिश हो रही है। हिंदू-मुस्लिम एकता की जगह दलित-मुस्लिम गठजोड़ बाबा साहब के विचारों के विरुद्ध है। उन्होंने इस्लाम धर्म की तीखी आलोचना की थी।
आजादी के पहले मुस्लिम लीग के साथ दलित गठजोड़ का उन्होंने विरोध किया था। साथ ही बंटवारे के बाद पाकिस्तान जाने वाले दलितों की दुर्दशा पर भी वह मुखर रहे थे।
वास्तव में आक्रामक दलितवाद और मुस्लिमों के साथ गठजोड़ का मूल उद्देश्य राजनीतिक है। केंद्र से नरेंद्र मोदी और राज्यों से बीजेपी सरकार को सत्ता से हटाने के लिए दलित-मुस्लिम समीकरण की बात हो रही है।
दिल्ली के धर्मांतरण समारोह के भाषणों में भी राजनीति के स्वर ज्यादा थे। राजेंद्र पाल कार्यक्रम कराने वाली संस्था द बुद्धिस्ट सोसायटी ऑफ इंडिया और जय भीम मिशन के राष्ट्रीय संरक्षक हैं।
इस बात की जांच होनी चाहिए कि आयोजन की पृष्ठभूमि कैसे तैयार हुई और किन बौद्ध भिक्षुओं और विद्वानों ने इतनी बड़ी संख्या में लोगों का ह्रदय बदलने के लिए काम किया।
वर्तमान दलित एक्टिविज़म ऐसी तिथियों का उल्लेख करता है जो पहले कभी सुनी नहीं गई। इस कार्यक्रम की तिथि के रूप में अशोक विजयादशमी लिखा था। इनका मानना है कि अशोक ने जिस दिन कलिंग पर विजय की, उसी दिन उसका हृदय परिवर्तन हुआ और उसने बौद्ध धर्म स्वीकारा। साफ है कि लुभाने के लिए ऐसे शब्द गढ़े जाते हैं।
यह हैरत का विषय है कि सामान्य विवाद और आरोपों पर पत्रकार वार्ताओं में अपना मत रखने वाली आम आदमी पार्टी इस मामले में खामोशी बरतती रही। क्यों? कोई अपनी इच्छा से किसी धर्म को अपनाए यह उसका अपना मामला है, लेकिन सामूहिक रूप से लोगों को इकट्ठा कर धर्म परिवर्तन को राजनीतिक शैली वाली आक्रामक रैली में परिणत करना भयावह है। इससे समाज और देश का अहित होगा।
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