लेखकीय निवेदन
यदि कोई मुझसे यह पूछे कि भारत के क्रांतिकारी आंदोलन का आधार बनने वाला क्रांतिकारी ग्रंथ कौन सा है ? तो मेरा उत्तर होगा कि वह ग्रंथ स्वामी दयानंद जी महाराज द्वारा कृत सत्यार्थ प्रकाश है। यदि कोई मुझसे यह पूछे कि भारत की सांस्कृतिक चेतना को जागृत कर भारतीयों के भीतर “स्व” का बोध कराने वाला क्रांतिकारी ग्रंथ भारत में कौन सा है? तो भी मेरा यही उत्तर होगा कि वह स्वामी दयानन्द जी महाराज द्वारा कृत सत्यार्थ प्रकाश है। यदि मुझसे कोई यह पूछे कि सनातन का सत्य बोध कराने वाला और पाखंड अज्ञानांधकार को मिटाकर ज्ञान का प्रकाश फैलाने वाला ग्रंथ भारत में कौन सा है ? तो भी मैं यही कहूंगा कि वह स्वामी दयानंद जी महाराज द्वारा कृत सत्यार्थ प्रकाश है, और यदि कोई मुझसे यह कहे कि समग्र क्रांति का बिगुल फूंक कर भारत को भारत के रूप में स्थापित करने वाला, वेदों की ओर लौट कर भारत के स्वर्णिम अतीत को वर्तमान की चादर पर उकेरकर भारत के भीतर इतिहास बोध, आत्मबोध, स्व बोध कराने वाला ग्रंथ कौन सा है ? तो भी मेरा यही कहना होगा कि वह स्वामी दयानंद जी महाराज द्वारा कृत सत्यार्थ प्रकाश ही है।
निस्संदेह भारत ने विदेशी आक्रमणकारियों से लड़ने का अपना गौरव पूर्ण इतिहास रचा है। दीर्घकाल तक विदेशी आक्रमणकारियों से लोहा लेने का स्वर्णिम इतिहास यदि किसी देश के पास है तो वह संपूर्ण भूमंडल में केवल और केवल भारत के पास है। इसके उपरांत भी हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि दीर्घकाल तक विदेशियों से लोहा लेते रहने के कारण भारत में बहुत सी बुराइयों का भी जन्म हुआ। इन बुराइयों के जन्म लेने का एक कारण यह भी था कि जितने भर भी विदेशी आक्रमणकारी भारत की ओर आए थे, उन सबने भारत की संस्कृति और भारत के धर्म को लूटने, मिटाने व नष्ट करने का गंभीर अपराध किया। इस अपराध के चलते उन्होंने भारत के सर्वनाश की तैयारी की।
डा. मोक्षराज जी ने कहा है कि “भारतीय ज्ञान-विज्ञान तथा धार्मिक एवं सामाजिक ढांचे को गिराने की नीयत से षड्यन्त्र कर रही शक्तियों के अरमानों पर (सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के प्रकाशन ने) पानी फेर दिया। महर्षि दयानन्द सरस्वती इस महान् शस्त्र को अपने सत्पात्रों को सौंपने लगे और कुछ काल में ही आर्यसमाजियों की एक ऐसी सेना तैयार हुई, जिसकी कदमताल से उठी आंधी से अरब, यूरोप और अमेरिका में रखी साम्प्रदायिक पुस्तकों पर गर्द की परतें जमने लगी। करोड़ों नर-नारियों के लिए दुर्लभ वेदज्ञान पाना सरल हो गया। ऋषियों की भूमि पर पड़े गोरों के कदम कांपने लगे, मुगलों की आंखें शर्म से झुकने लगीं और पौराणिकों की मिथ्या बातों की पोल खुलने लगी। सत्यार्थ के प्रकाश में जिन्हें जागना था, वे उठ खड़े हुए और जो स्वार्थ, हठ, दुराग्रह एवं भोग की नींद से उठना नहीं चाहते थे, वे इसका एक पृष्ठ भी खोलने से धबराने लगे। इस प्रकाशपुंज ने उन सबको प्रदीप्त किया जो सच्चा मानव बनना चाहते थे। पूज्य स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी के पुरुषार्थ के परिणामस्वरूप प्राप्त इस पुस्तकरत्न ‘सत्यार्थप्रकाश का प्रभाव’ में हम सत्यार्थप्रकाश के महत्व को सहज ही समझ सकेंगे।”
स्वामी दयानंद जी महाराज ने इस बात को गंभीरता से समझा कि यदि वास्तव में भारत की चेतना को जागृत किए रखना है और भारत में शासक बनकर जबरन बैठे विदेशियों को यहां से मार भगाना है तो इसके लिए आवश्यक है कि हम सब मिलकर वेदों की ओर लौटें। उन्होंने वेद भक्ति के साथ-साथ देशभक्ति को भी अपनाने पर बल दिया। इसका कारण केवल यह था कि ऋषि यह भली प्रकार जानते थे कि वेद भक्ति और देश भक्ति के माध्यम से ही ईश भक्ति की आराधना – साधना पूर्ण हो सकती है। स्वामी जी महाराज अनोखे व्यक्तित्व के स्वामी थे , जिन्होंने अपनी ईश्वर भक्ति को भी वेद भक्ति और देश भक्ति को सौंप दिया था। वह पहले व्यक्ति थे जिनके ईश्वर चिंतन में वेद चिंतन और देश चिंतन दोनों समाविष्ट रहते थे।
स्वामी जी महाराज ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक साथ दो मोर्चों पर लड़ना आरंभ किया। उन्होंने वेद भक्ति और देशभक्ति दोनों को साथ साथ लेकर चलने का प्रशंसनीय और साहसिक प्रयास किया। हम इसको साहसिक प्रयास इसलिए कह रहे हैं कि जब उन्होंने वेद का सत्यार्थ किया तो एक साथ हजारों लाखों नहीं अपितु करोड़ों लोग उनके विरोधी बनकर उनके सामने आ खड़े हुए। देश में पंडों के द्वारा अपना ढोंग और पाखंड फैलाकर जिस प्रकार लोगों के मन मस्तिष्क पर शासन स्थापित कर लिया गया था, उसकी जकड़न को ढीला करने के लिए स्वामी जी ने जोरदार हथौड़े मारने आरंभ कर दिए। इससे उन्हें अपने ही हिंदू समाज में बड़ी चुनौती मिली। स्वामी जी महाराज के इस प्रकार के कार्य ने संपूर्ण पौराणिक जगत को उनका विरोधी बना दिया। परंतु फौलादी दयानंद ने इस चुनौती से तनिक भी विचलित न होने का निर्णय ले लिया। वे जानते थे कि जब कहीं चोट की जाती है तो प्रतिक्रिया होना तो स्वाभाविक है।
वेद भक्ति पर उनके द्वारा किए गए कार्यों की प्रतिक्रिया यदि यह थी तो उनकी देशभक्ति पर भी ऐसी ही प्रतिक्रिया आई। उनकी देश भक्ति उस समय के ब्रिटिश शासकों के साथ-साथ मुस्लिम नवाबों को भी पसंद नहीं थी। स्वामी जी महाराज ने सत्यार्थ प्रकाश में आर्य राजाओं की सूची देकर यह संकेत कर दिया था कि देश के विद्यालयों के पाठ्यक्रम में आर्य राजाओं को पढ़ाया जाए, ना कि विदेशी लुटेरे, बदमाश और डाकू लोगों के द्वारा स्थापित किए गए राज्यों के तथाकथित बादशाह हो या सुल्तानों को पढ़ाया जाए।
स्वामी जी महाराज संस्कृति जागरण के माध्यम से जिस प्रकार अपने समय में लोगों को तत्कालीन ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध काम करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे उसे उस ब्रिटिश सत्ता ने अपने विरुद्ध किया गया एक ‘गंभीर अपराध’ माना जो कि उस समय संपूर्ण भूमंडल के बहुत बड़े भाग पर शासन कर रही थी।
स्वामी जी महाराज की देशभक्ति को समझने के लिए हमें उसके मर्म को समझने की आवश्यकता है। स्वामी जी महाराज की देशभक्ति उनकी धर्म और संस्कृति के प्रति समर्पण की भावना में भी प्रकट होती है और साथ ही साथ तत्कालीन ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध विद्रोही होने के उनके तेवरों में भी प्रकट होती है। जब स्वामी जी महाराज अपनी देशभक्ति को अपने धर्म और संस्कृति के प्रति समर्पण के भाव से प्रकट करते हुए दिखाई देते हैं तो वह इस्लाम और ईसाइयत दोनों के निशाने पर आ जाते हैं। इसका कारण केवल एक था कि अपनी इस बात को स्थापित करने के लिए स्वामी जी महाराज ने इस्लाम की कुरान और ईसाइयत की बाइबल की धज्जियां उड़ाने का काम किया। इसके माध्यम से उन्होंने देश के लोगों को समझाने का प्रयास किया कि जिन ग्रंथों को तुम धर्म ग्रंथ मान रहे हो वह धर्म ग्रंथ न होकर सांप्रदायिक ग्रंथ हैं और उनसे भी उत्तम श्रेणी के ग्रंथ आपके पास वेद हैं। इस प्रकार उनकी वेद भक्ति अप्रत्यक्ष रूप से देश भक्ति ही थी। उनकी संस्कृति भक्ति अर्थात संस्कृति के प्रति अनुराग भी अंततः देशभक्ति के घाट पर ही जाकर पानी पीता था।
वास्तव में स्वामी जी महाराज “एक देव और एक देश” के समर्थक थे। इसके लिए उन्होंने एक देव अर्थात ईश्वर की आराधना पर बल दिया और एक देश अर्थात आर्यावर्त या भारतवर्ष के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव रखने के लिए लोगों को प्रेरित किया। जब उन्होंने एक देव की बात की तो न केवल बहुदेवतावादी पौराणिकों में हलचल मच गई अपितु विदेशी मतावलंबियों में भी गहरी हलचल मची जो भारत में या तो उस समय शासक बने बैठे थे या उससे पूर्व शासक रहे थे। उन्होंने तर्क के बल पर सबको एक देव के प्रति समर्पित रहने के लिए प्रेरित किया उनके तर्कों के समक्ष सभी की बोलती बंद हो गई। उनकी सोच पूर्णतया वैदिक थी। जिसके अंतर्गत सभी को वह वेद के संगठन सूक्त के अनुसार चलने, बोलने, समझने और कार्य करने के लिए प्रेरित कर रहे थे।
स्वामी जी महाराज के इस प्रकार के महान कार्य का विरोध करने वाले करोड़ों पैदा हो गए पर वह अपने पथ से विचलित नहीं हुए। वह संगठन शक्ति को समझते थे और यह भी जानते थे कि संगठन की शक्ति एक देव की उपासना से ही आ सकती है। यदि बहुदेवतावाद को प्रोत्साहित किया गया या जारी रखा गया तो हमारी संगठन की शक्ति बिखर जाएगी। आज भी हम हिंदू समाज के भीतर बिखराव देखते हैं, उसका कारण यह बहुदेवतावाद की पौराणिक मान्यता ही है। इस प्रकार महर्षि दयानंद जी का एकदेवतावाद का सिद्धांत न केवल वैदिक था बल्कि देश की एकता अखंडता और सामाजिक शक्ति को प्रबल करने के लिए भी आवश्यक था।
कहना न होगा कि स्वामी जी महाराज ने सत्यार्थ प्रकाश में चाहे आध्यात्मिक पक्ष पर ही चिंतन प्रकट क्यों न किया हो वस्तुतः उनका वह चिंतन वेद भक्ति और देश भक्ति के बाहर कदापि नहीं था। कहने के लिए उनके भीतर वेद भक्ति, देश भक्ति और ईश भक्ति की त्रिवेणी बहती हुई दिखाई देती है, परंतु सच यह है कि इन सबके मूल में उनके भीतर देशभक्ति कहीं अधिक प्रबल थी। उनके लिए मोक्ष से भी पहले राष्ट्र था। उनके लिए स्वराज्य सब कुछ था। वह जानते थे कि यदि मेरा देश सुरक्षित है तो मेरे शास्त्र सुरक्षित रहेंगे और शास्त्र सुरक्षित रहेंगे तो ईश भक्ति के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति करने के लिए भी साधन और परिस्थितियां अनुकूल बन जाएंगी। उनके स्वराज्य चिंतन में अध्यात्म समाहित था और अध्यात्म चिंतन में स्वराज्य समाहित था।
अपने इसी राष्ट्रवादी उत्कृष्ट चिंतन के कारण स्वामी जी महाराज ने 1857 की क्रांति के लिए अनेक क्रांतिकारियों को तैयार किया था। सौभाग्य से उन्हें गुरु विरजानंद जी जैसे महामानव का सानिध्य भी जब प्राप्त हुआ तो सोने पर सुहागा वाली बात हो गई। स्वामी जी के भीतर पड़े संस्कारों को गुरु विरजानंद जी महाराज ने समझने में चूक नहीं की और ना ही देरी की। यही कारण रहा कि जब स्वामी जी महाराज गुरु विरजानंद जी से दीक्षा लेने के उपरांत उन्हें गुरु दक्षिणा में लौंग समर्पित कर रहे थे तो गुरु विरजानंद जी ने उनकी उस गुरु दक्षिणा को लेने से इनकार कर दिया। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि दयानंद ! मुझे तुझसे किसी प्रकार की गुरु दक्षिणा नहीं चाहिए। यदि गुरु दक्षिणा देना ही चाहते हो तो अपना जीवन दे दो। समस्त संसार वेद विद्या से विमुख होकर जिस प्रकार पाखंड, अज्ञान और अंधकार की दलदल में जा फंसा है और जिस प्रकार देश में विदेशी शक्तियां आकर अपना साम्राज्य स्थापित कर रही हैं, उससे वेद का सूर्य अस्त होना चाहता है। तुम्हारे भीतर वह ज्वाला है जो सूर्यास्त को सूर्योदय में परिवर्तित कर सकती है। मैं वेद का सूर्यास्त नहीं चाहता अपितु वेद का सूर्योदय चाहता हूं।
इन दोनों गुरु शिष्यों के बीच हुए इस संवाद को हल्के में नहीं लेना चाहिए। क्योंकि कुछ क्षणों के इस संवाद ने भारत के आगामी इतिहास की दिशा और दशा परिवर्तित करने का कार्य किया। तनिक सोचिए कि यदि इन दोनों गुरु शिष्यों के मध्य यह संवाद नहीं होता तो क्या स्वामी जी महाराज सत्यार्थ प्रकाश लिखते ! हमारा विचार है कि तब वह कदापि सत्यार्थ प्रकाश के लिखने की ओर नहीं जाते। तब वह कहीं कंदराओं में बैठकर मोक्ष की साधना कर रहे होते। इस प्रकार सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की नरम और गरम दल की शाखाओं के अनेक नेताओं को और भारतीय स्वाधीनता संग्राम के क्रांतिकारी आंदोलन के अनेक बलिदानी क्रांतिकारियों को स्वराज्य का जीवंत उपदेश सुनने को नहीं मिलता।
माना जा सकता है कि स्वामी जी महाराज 1857 की क्रांति के समय भी देश को स्वाधीनता दिलाने की अपनी गंभीर जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहे थे, परंतु इसके उपरांत भी गुरु विरजानंद जी के साथ उनका उपरोक्त संवाद अपना ही महत्व रखता है। इस संवाद में एक संकेत था जो एक संदेश में परिवर्तित हो गया और वह संदेश देश की स्वाधीनता में परिवर्तित होकर 1947 में प्रकट हुआ।
जब स्वामी दयानंद जी महाराज के वेद भक्ति, देश भक्ति और ईश्वर भक्ति की त्रिवेणी का गंभीरता से समीक्षण, परीक्षण और निरीक्षण किया जाएगा तो सत्यार्थ प्रकाश के एक – एक पृष्ठ की एक-एक पंक्ति और एक-एक पंक्ति के एक – एक शब्द में स्वराज्य का रस टपकता हुआ दिखाई देगा। इस रस को देश धर्म का दीवाना जो भी चखेगा, वही ‘गुरु का बंदा’ हो जाएगा। इस प्रकार देश धर्म का अमृत छकने का अनुपम ग्रंथ है – सत्यार्थ प्रकाश। इसका जितने भी अर्थों – संदर्भों में अध्ययन किया जाएगा उतना ही हम पर देश – धर्म और संस्कृति के प्रति गहरे अनुराग का नशा चढ़ता जाएगा। फिर एक समय ऐसा आएगा कि जब दुनिया की सुध खोकर पाठक ‘पागल’ हो जाएगा और वह देश – धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए उठ खड़ा होकर चल पड़ेगा उस ओर जहां अनेक कष्ट सहने पड़ते हैं और अंत में या तो फांसी का फंदा चूमना पड़ सकता है या बलिदान भी होना पड़ सकता है।
देश के क्रांतिकारी आंदोलन को उठा कर देखिए, स्वामी जी महाराज के सत्यार्थ प्रकाश के इसी नशा ने अनेक बलिदानियों को बलिदान देने के लिए प्रेरित किया। वे देश धर्म के नशे में खोकर देश के होकर रह गए। इस प्रकार विदेशी दासता के जुए से देश को मुक्त कराकर सत्यार्थ प्रकाश ने एक गौरवशाली इतिहास लिखा। इस ग्रंथ के एक एक पृष्ठ के एक-एक शब्द पर क्रांतिकारियों के बलिदान के भव्य भवन का निर्माण किया जा सकता है। उस भव्य भवन को यदि भारत का राष्ट्र मंदिर घोषित किया जाए तो उसमें जितने भर भी देश धर्म के दीवाने बलिदानी दिखाई देंगे उन सबकी प्रेरणा का स्रोत सत्यार्थ प्रकाश बनेगा और पता चलेगा कि उस भव्य भवन की नींव में सत्यार्थ प्रकाश के अमर शब्द काम कर रहे हैं।
ऐसे महामानव के चिंतन पर जब हमने गंभीरता से विचार किया और सत्यार्थ प्रकाश का अपने ढंग से अनुशीलन किया तो वह भारत के गौरवपूर्ण अतीत के उस भव्य भवन को उकेरते दिखाई देने लगे जिस पर इस देश का राष्ट्र मंदिर कभी खड़ा हुआ करता था। जिसमें एक ही देव अर्थात राष्ट्र देव की मूर्ति स्थापित होती थी और सब उसके प्रति समर्पित होते थे। सबके हृदय रूपी मंदिर में एक ही परमपिता परमेश्वर का तेज समाविष्ट होता था और उस तेज के आलोक में सब एक दिशा में गति करते थे। दुर्भाग्य से हमने अपने उस भव्य मंदिर का विनाश करके ढोंग और पाखंड को प्रोत्साहित करने वाले दूसरे मंदिरों का निर्माण करना आरंभ कर दिया। इतिहास के जिस कालखंड में भी हमारे राष्ट्र मंदिर से एक देव की प्रतिमा गायब हुई थी या की गई थी उस समय के लिए हमें समझना चाहिए कि तब भारत में बहुत बड़ी डकैती पड़ी थी। इस डकैती को हमने इतिहास में उचित स्थान नहीं दिया है। यदि इसका आकलन किया जाएगा तो पता चलेगा कि इससे बड़ी डकैती भारत में आज तक नहीं पड़ी। स्वामी जी महाराज ने राष्ट्र के इस भव्य मंदिर के जीर्णोद्धार का काम करते हुए पाखंड और ढोंग पर खड़े मंदिरों के विध्वंस का काम करना आरंभ किया तो सत्यार्थ प्रकाश एक एक पृष्ठ भारत का गौरव गीत गाने लगा।
बस, इसी गौरव गीत में हमने कदम कदम पर सत्यार्थ प्रकाश के भीतर इतिहास की छुपी हुई छाया का अनोखा आनंद लिया है। उसी अनोखे आनंद को इस पुस्तक के माध्यम से अपने पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। आशा करता हूं कि कि इस अनोखे आनंद को आप भी अनुभव करेंगे और उसके रस को पीते पीते उसी मधुरस में खो जाओगे जिसमें इस देश के अनेक क्रांतिकारी खो गए थे और इसके उज्ज्वल भविष्य के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर गए थे।
इसके पश्चात अपने पिता तुल्य तीनों ज्येष्ठ भ्राताओं सर्वश्री प्रो0 विजेंद्र सिंह आर्य जी, मेजर वीर सिंह आर्य जी एवं श्री देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट जी के प्रति भी हृदय से कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं जिन्होंने सदा मेरा मनोबल बढ़ाया है और पिता तुल्य प्रेम देकर अपनी असीम अनुकंपा मेरे ऊपर बरसाई है।
इसी प्रकार अपनी धर्मपत्नी श्रीमती ऋचा आर्या की उस अदृश्य साधना को भी हृदय से स्वीकार करता हूं जिन्होंने मेरी साहित्य साधना में अप्रत्यक्ष रूप से अपनी गंभीर जिम्मेदारी का निर्वाह किया है। अपने मित्रों, पाठकों, शुभचिंतकों, परिजनों और प्रियजनों का भी ऋणी हूं, जिन्होंने किसी न किसी प्रकार से समय-समय पर मेरा मनोबल बढ़ाया है या मार्गदर्शन किया है।
अंत में डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशन के चेयरमैन श्रद्धा और सम्मान के योग्य श्री नरेंद्र वर्मा जी के प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं जिन्होंने अत्यंत संक्षिप्त समय में इस पुस्तक को आपके कर कमलों तक पहुंचाने में अपना अप्रतिम सहयोग और आशीर्वाद प्रदान किया है।
आशा करता हूं कि मेरा यह प्रयास आपको अवश्य सार्थक जान पड़ेगा और जैसा कि मेरे द्वारा अबसे पूर्व में लिखी गई 64 पुस्तकों पर आपका प्यार और आशीर्वाद प्राप्त हुआ है वैसा ही प्यार और आशीर्वाद इस 65 वीं पुस्तक पर भी प्राप्त होगा।
दिनांक 13 सितंबर 2022
भवदीय
डॉ राकेश कुमार आर्य, कृष्णा प्लाजा मार्केट, ऑफिस नंबर 10, तहसील कंपाउंड दादरी, जनपद गौतम बुद्ध नगर, पिन कोड 203207, ( उत्तर प्रदेश ) चलभाष 9911169917
मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
प्रकाशक का दूरभाष नंबर : 011 – 407122000।
मुख्य संपादक, उगता भारत