वैदिक संपत्ति : गतांक से आगे ….. वेदों की शाखाएं
गतांक से आगे …..
वेदों की शाखाएं
हमारा अनुमान है कि माध्यन्दिनीय में आये हुए मन्त्रों के अतिरिक्त काव्यशाला में जो फेरफार हुआ है- पाठभेद और न्यूनाधिकता हुई है— उसका कारण काण्वऋषि का विचारपरिवर्तन ही है। विचारपरिवर्तनों से ही सम्प्रदायों की सृष्टि होती है । अतएव काण्वऋषि ने भी अपना एक अलग शाखासम्प्रदाय प्रचलित किया और सनातन यजुर्वेद में यत्किञ्चित् पाठभेद करके अपनी अलग एक शाखा बना दी। ऋषि के इस पालमेल का वर्णन महाभारत में सारांशरूप से लिखा हुआ है। महाभारत में काण्व कुलपति का विस्तृत वर्णन है। वाकुन्तला इन्हीं काण्व के प्राश्रम में रहती थी । वहाँ अनेक विद्यार्थी वेदाध्ययन करते थे। इस अध्ययन-अध्यापन में वेदों की शाखाओं का उलट फेर होता था, एक शाखा में दूसरी और दूसरी में तीसरी का मिश्रण किया जाता था ‘महाभारत-मीमांसा पृष्ठ 211 में श्रीयुत चिन्तामणि विनायक वैद्य लिखते हैं कि काण्वकुलपति के प्राश्रम में अनेक ऋषि ऋग्वेद के मन्त्र पढ़ते थे । व्रतस्थ ऋषि सामवेद का गान करते थे। साम और अथर्व के मन्त्रों का पदक्रमसहित उच्चारण सुनाई दे रहा था। वहाँ पर एक ही शाखा में अनेक शाखाओं का समाहार करनेवाले और घनेक शाखाओं की गुणविधियों का समवाय एक ही शाखा में करनेवाले ऋषियों की घूम थी’ । इस वर्णन से पाया जाता है कि कायऋषि के श्राश्रम में वेदों की शाखाओं का जोरों से उलट फेर होता था। काण्वऋषि से सम्बन्ध रखनेवाले महाभारत के श्लोक अभी फुटनोट में दिये गये हैं, उनमें
‘अथर्ववेदप्रवरः पूगवज्ञिरतनवाः। संहितार्मन्ति स्म पदक्रम्युतां तू ते ॥
यह श्लोक विशेष महत्व का है। इसका अर्थ है कि अथर्ववेद के जानने वाले अनेक शाखाओं को एक में श्रीर एक को अनेक में मिलाने वाले, यज्ञकर्म के जाननेवाले और सामवेद के गाने वाले ऋषि पदक्रम के सहित संहिता को मिला रहे थे। यहाँ पूग शब्द बड़ा ही मनोरंजक है। अष्टाध्यायी 5/2/52 में और 5/3/112 में पाणिनि ने ‘बहूपूगण – संघस्य तिथूक् । पूगाञञग्रामणीपूर्वात्’ लिखा है । अन्तिम सूत्र की वृत्ति में भट्टोजी दीक्षित लिखते हैं कि ‘नानाजातीया अनियतवृत्तयोर्थकामप्रधानाः संघाः पूगाः’ अर्थात् अनेक जाति और अनियतवृत्त तथा अर्थ काम प्रधानवाले गोल का नाम पूग है । अर्थात् जिसमें अनियमित रीति से अनेक प्रकार की भिन्नभिन्न वस्तुओं का संग्रह हो वह पूग कहलाता है। उपर्युक्त काण्व के आश्रम में भी अनियमित रीति से अनेक शाखाओं का घालमेल एक में होता या, इसीलिए उस घालमेल को पूरा कहा गया है। पुराने जमाने में अनेक वर्ण के साधु जब एक जगह मिलते थे, तो उनके संघ को पूग कहते थे। बौद्ध भिक्षु भी प्रायः अनेक जाति के व्यक्तियों से अपना संघ बनाते थे, इसलिए वे भी पूग कहलाते थे । इसीलिए बरमा में बौद्धभिक्षु पूगी कहलाते हैं। कहने का मतलब यह कि काण्व के आश्रम में यजुर्वेद में पूग अर्थात् घालमेल होता था। यही कारण है कि काण्वशाखा में उलटफेर और घालमेल मौजूद है। इस घालमेल, उलटफेर धौर न्यूनाधिकता के ही कारण वैदिकों में उसका उतना आदर नहीं रहा जितना माध्यन्दिनीय का है । लोग कहते हैं कि माध्यन्दिनीय और काण्वशाखा को लेकर भी ब्राह्मण बने हैं, परन्तु इससे काण्वशाला को वह महत्त्व प्राप्त नहीं हो सकता, जो माध्यन्दिनीय को प्राप्त है। ब्राह्मणकाल में तो सभी शाखाओं पर अलग अलग ब्राह्मण थे, अतएव ब्राह्मणों के कारण शाखाओं की ज्येष्ठता और कनिष्ठता में अन्तर नहीं पड़ सकता । शाखाओं की ज्येष्ठता तो उनकी शुद्धता पर अवलम्बित है । काण्वशाखा की अपेक्षा माध्यन्दिनीय शाखा की शुद्धता सर्वमान्य है। यही कारण है कि माघवाचार्य, उवट, महीधर और स्वामी दयानन्द यादि ने माध्यन्दिनीय शाखा पर ही भाष्य किया है। माध्यन्दिनीय शाखा की ज्येष्ठता का सबसे प्रबल और ऐतिहासिक प्रमाण यह है कि जितने शुक्ल यजुर्वेदीय ब्राह्मण है, सब माध्यन्दिनीय शाखा की ही हैं, काण्वशाखा के नहीं । इसलिए मध्यन्दिनीय शाखा ही आदि मूल और अपौरूषेय है, इसमें संदेह नहीं । यही यजुर्वेद की शाखाओं का खुलासा है ।
क्रमशः