स्वामी भीष्म जी यूँ तो कभी किसी बारात-विवाह आदि में नहीं जाते थे मगर एक बहुत बड़े धनाढ्य सेठ जी जो उनका बहुत मान करते थे और उन्हें गुरु जी कहते थे, तो उनके बार-बार कहने पर उनके पुत्र के विवाह में बारात में मेरठ जाने के लिए तैयार हो गए । उस जमाने में (लगभग 1936 शायद) बारात में बस ले जाना बड़े धनाढ्य होने की पहचान थी । जंगल के रास्ते में डाकुओं ने बस को रोक लिया और सबको नीचे उतरने का आदेश दिया । स्वामी जी सबसे आगे की सीट पर चालक के बाएं तरफ बैठे थे ।
स्वामी जी अपने हाथों में एक बहुत भारी काला सोटा (मोटा लट्ठ) रखते थे । उसका नाम उन्होंने ‘सुधार सिंह’ रखा हुआ था । उसका रंग काला इसलिए होता था क्योंकि स्वामी जी रोज सुबह उठकर स्वयं की तेल मालिस किया करते थे तो उसी समय अपने सोटे को भी रोज तेल रगड़ते थे । सभी आर्य सन्यासियों का यही नियम था । उस जमाने में उनके गेरुए वस्त्रों को देखकर कुत्ते भौंकते थे तो उनके लिए भी हाथ में लट्ठ रखना जरूरी था । सन्यास ग्रहण के समय ही गुरु जी के द्वारा प्रत्येक भावी सन्यासी को दंड (लाठी) दिया जाता था । स्वामी भीष्म के जितने भी शिष्य सन्यासी हुए वे सभी भी हाथों में सोटा रखते थे । कई बार यह सोटा दुष्ट लोगों को राह पर लाने के लिए प्रयोग किया जाता था । सन्यास ग्रहण के समय दिए जाने वाले इसी काले मोटे सोटे से मेरी (ईश्वर वैदिक) भी पिटाई हुई थी जब हम बालक थे और अनुशासनहीनता करते थे ।
क्योंकि बारात बणियों की थी तो बारातियों में से लगभग आधी संख्या महिलाओं की थी । डाकू लोग संख्या में तीन थे मगर रिवाल्वर केवल एक के पास थी और बाकी दोनों के हाथों में लंबे छूरे थे । क्योंकि सभी महिलाएं धनाढ्य परिवारों की थी और सभी ने सोने-चांदी के गहनों से श्रृंगार किया हुआ था । सबके गहनें उतरवा लिए गए और देखते ही देखते एक चद्दर पर गहनों का ढेर लग गया । इस दौरान स्वामी जी बस में ही अकेले बैठे रहे और योजना बनाते रहे कि किधर से वार करूँ । उनमें से एक डाकू जिसके हाथ में रिवाल्वर थी वह बस में चढ़ा और स्वामी जी से पूछा कि तुम नीचे क्यों नहीं उतरे ? स्वामी जी बोले कि मेरे पास कुछ नहीं है, मैं तो इनका नाई हूँ । डाकू मन ही मन खुश हो गया, उसने सोचा कि यह मोटा-ताजा पहलवान जैसा आदमी मिल गया है और गहनों के इस गट्ठर को यह पहलवान बड़े आराम से लेकर चल सकता है । इसे अपने साथ ही ले चलेंगे और अपने ठिकाने के नजदीक जाकर इसे भगा देंगे या गोली मार देंगे ।
भय किसी आर्य सन्यासी को दूर से भी छू नहीं सकता । इस संसार में जिसने ऋषिवर दयानन्द जी की जीवनी को पढ़ लिया उस आदमी को भयभीत नहीं किया जा सकता । आजकल हमारे आर्य समाजी बन्धु स्वाध्याय नहीं करते और पुस्तकों के रूप में जो बहुमूल्य खजाना उनके पास है उसका लाभ नहीं उठाते, इसलिए आत्मशक्तिहीनता बढ़ती जाती है । ऋषिवर दयानन्द पर रोज हमले होते थे मगर कभी एक क्षण के लिए भी भय उनके पास नहीं फटकता था । उनका ईश्वर की न्याय व्यवस्था में दृढ़ विश्वास था । ऋषिवर दयानन्द अपने अनुयायियों से कहा करते थे कि पागलों की उन्मादी भीड़ यदि हाथों में नंगी तलवारें लेकर मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े करने के लिए आगे बढ़ रही हो तो ऐसे समय में भी तुम मेरी रक्षार्थ आगे मत आया करो, मुझे किसी की मदद की कोई जरूरत नहीं है, सबसे निपटने के लिए दयानन्द अकेला बहुत है । स्वामी भीष्म के जीवन की हजारों घटनाएं हैं जिनको पढ़कर पता चलता है कि भारत माँ के पैरों में पड़ी गुलामी की मजबूत बेड़ियों को सदा-सदा के लिए उखाड़ फेंकने के लिए आर्य समाज ने कैसे-कैसे यौद्धाओं को स्वतंत्रता समर हेतु तैयार किया था ।
स्वामी जी बस से नीचे आ गए और बोले कि मुझे लघुशंका (मूत्र त्याग) जाना है । महिलाओं जहां खड़ी थी उसकी विपरीत दिशा में , बस के पीछे झाड़ियों में वे मूत्र त्याग की मुद्रा में बैठ गए और वह रिवॉल्वर धारी डाकू उनके पास ही खड़ा होकर उनका इंतजार करने लगा । स्वामी जी यही सोच रहे थे कि कमर में मारूँ या सिर में मारूँ ? इसकी टांगे तोडूं या रिवाल्वर वाले हाथ को उखाड़ दूँ । स्वामी जी को सुधार सिंह पर पक्का विश्वास था कि दूसरा वार करने की जरूरत नहीं पड़ेगी । जो सन्यासी पाव घी (250 ग्राम) खिचड़ी में डालकर खाता हो उसके सोटे की मार खाने के लिए……
बैठे हुए ही स्वामी जी ने सोटे को सीधा कर लिया और रिवाल्वर वाले हाथ पर जोर का वार किया । इसके बाद स्वामी जी ने घोर गर्जन करते हुए एक और वार उसकी कमर में किया । डाकू की दर्दनाक आवाज व स्वामी जी की घोर गर्जना ने भयानक डरावनी स्थिति पैदा कर दी । बस की दूसरी तरफ खड़े दोनों डाकू सबकुछ वहीं छोड़कर भाग खड़े हुए और वह रिवॉल्वर वाला डाकू वही बेहोश पड़ा रहा । स्वामी जी ने दूल्हे के पिता से कहा कि आप सब जाओ । मेरी चिन्ता मत करो, मुझे यही छोड़ दो । मैं यहीं कुछ कोस पर स्थित एक कस्बे में अपने शिष्य के पास जाऊंगा । इस घटना को स्वामी जी स्वयं सुनाया करते थे कि वह रिवाल्वर मैंने वहीं एक झाड़ी में छिपा दी । बाद में सरदार भक्तसिंह को वह रिवॉल्वर मैंने दे दी थी ।
– ईश्वर वैदिक