अब से लगभग 800 वर्ष पहले की उज्जैन नगरी
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#विजयमनोहरतिवारी
सन् 1235…तीन सौ सालों से इस इलाके पर परमार राजवंश के राजाओं की हुकूमत है।
राजा भोज ने परमारों के वैभव में चार चांद लगा दिए थे। उनके बाद उदयादित्य और नरवर्मन जैसे सम्राटों ने भी भोज की शानदार परंपराओं को जारी रखा था। आसमान को चूमने वाले बेमिसाल मंदिर इन शहरों में दूर से दिखाई देते थे। परमार शिव के उपासक थे और उन्होंने सैकड़ों भव्य मंदिर अपने राज्य के कोने-कोने में बनाए थे। उनके पहले मगध के मौर्य और गुप्त शासकों का भी यहां से करीबी रिश्ता रहा था।
सदियों से हजारों शिल्पियों के वंश अपना हुनर पत्थरों पर दिखाते रहे थे। पीढ़ियों का समय लगा था। राजाओं के कई वंश, कारीगरों और शिल्पियों की अनगिनत पीढ़ियां और दान देने वाले समृद्ध कारोबारी हर सदी में असंख्य थे।
लेकिन अब बुतपरस्ती गुनाह है। बुतों को मानने और पूजने वालों का कत्ल कानूनन जरूरी है। उनके घराें को लूटना सवाब है। दिल्ली में अब इस्लाम का कब्जा है। तुर्क मुसलमान चारों तरफ तबाही मचाने के लिए निकले हुए हैं। नाम विदिशा हो या भिलसा, इस्लामी फौज के निशाने पर किले की पुरानी दीवारों से घिरा बेतवा नदी के किनारे का यही शानदार शहर है। यह मालवा का इलाका है। फिर यहां से उज्जैन की बारी है। शम्सुद्दीन इल्तुतमिश के लुटेरे मालवा में भीतर तक जा पहुंचे हैं।
मिनहाज सिराज की रिपोर्ट आ रही है-“इल्तुतमिश ने इस्लामी सेना लेकर उसने मालवा पर चढ़ाई की। भिलसा के किले और शहर पर कब्जा जमा लिया। वहां के एक मंदिर को, जो 300 साल में बनकर तैयार हुआ था और जो 105 गज ऊंचा था, मिट्टी में मिला दिया। वहां से वह उज्जैन की तरफ बढ़ा और महाकाल देव के मंदिर को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। उज्जैन के राजा विक्रमाजीत की मूर्ति, जिसके राज्य को आज 1316 साल हो चुके हैं और जिसके राज्य से ही हिंदवी सन् शुरू होता है, तथा पीतल की अन्य मूर्तियों और महाकाल देव की पत्थर की मूर्ति को दिल्ली लेकर आया।’
यहां थोड़ी देर के लिए हम एसामी से जुड़ रहे हैं। ये सज्जन पुरुष भी ऊंचे खानदान से ताल्लुक रखते हैं। इनके दादा-परदादा इल्तुतमिश से लेकर बलबन के समय तक ऊंचे ओहदों पर रहे। उनके हवाले से एसामी ने भिलसा पर हमले की जानकारी इन शब्दों में अपनी डायरी में लिखी-‘सुलतान शम्सुद्दीन ने 1233-34 में भिलसा पर हमला बोला। उस पर कब्जा जमा लिया। उसने उज्जैन पर आक्रमण करके वहां के मंदिरों को तहसनहस कर दिया और हिंदुओं की हत्या कर दी।’
उज्जैन के रास्ते में मौर्य काल के भी सदियों पहले से उत्तर से दक्षिण के बीच प्रमुख कारोबारी मार्ग पर बसे विदिशा (पुराना नाम भिलसा) शहर के प्राचीन मंदिरों सहित इस इलाके के सभी पुराने महल-मंदिर सबसे पहले इल्तुतमिश के हाथों ही बरबाद किए गए। आज भी उनके खंडहर गांव-गांव में उस भयानक हमले की शुरुआती गवाही देते हैं, जिन्हें या तो तोड़फोड़ और लूटपाट के बाद यूं ही बरबाद छोड़ दिया गया या उनके मलबे से इबादतगाहों के नमूने खड़े कर दिए।
विदिशा में जिस 105 गज ऊंचे मंदिर का जिक्र सिराज ने किया है, वह आज पुराने शहर की बदहाल संकरी गलियों में मौजूद विजय मंदिर है, जिसे बीजा मंडल भी कहा जाता है। अब इसकी छह-सात फुट ऊंची बुनियाद ही बची है। यह राजा भोज के बाद की पीढ़ी में राजा नरवर्मन का बनवाया एक बेमिसाल मंदिर था, जिसके मलबे में से निकली मूर्तियां पास के ही एक संग्रहालय में रखी हैं।
भिलसा में विजय मंदिर अकेला चपेट में नहीं आया। यहां की तोड़फोड़ और लूटपाट से फारिग होकर इल्तुतमिश के जाहिल इस्लामी जत्थों ने उज्जैन की तरफ कूच किया। वे अपनी तलवारें चमकाते हुए राजा विक्रमादित्य और कालिदास की स्मृतियों से जगमगाते भगवान शिव के पवित्र और प्राचीन ज्योर्तिलिंग की तरफ दौड़े। गलियों-बाजारों में पहली बार ऐसा भयंकर शोर सुना गया-“अल्लाहो-अकबर।’
अपनी अंतिम शक्ति को बटोरकर परमारों के सैनिक मजहबी जुनून से भरे इन विचित्र वीर तुर्कों से भिड़े होंगे। उज्जैन को तबाह करने का फैसला करते वक्त मुमकिन है इन हमलावर आतंकियों ने विक्रमादित्य का नाम ही सुना होगा, कालिदास उनके लिए काला अक्षर भैंस बराबर थे, भर्तहरि के बारे में उनके फरिश्तों को भी ज्ञान नहीं होगा, वराहमिहिर से उनका कोई लेना-देना नहीं था। मंदिरों में लदा सोना-चांदी और रत्न-भंडार लूटना उन्हें मजहबी हक से हासिल था। बुतों से इस कदर नफरत जिसने उन्हें सिखाई थी, उसे वे इस्लाम कहते थे।
हम कल्पना ही कर सकते हैं कि उस दिन महाकाल मंदिर में कैसा हाहाकार मचा होगा। वह हजारों वर्षों से हिंदुओं का एक पवित्र तीर्थ था। आधुनिक उज्जैन के शिल्पकार पद्मभूषण पंडित सूर्यनारायण व्यास के किसी विद्वान पूर्वज ने उस विध्वंस को देखकर आंखें बंद कर आखिरी आह भरी होगी! उस दिन मगरिब की नमाज के पहले उज्जैन का हजारों सालों का वैभव बर्बर इस्लामी ताकत के आगे ध्वस्त हो गया। आज चौबीस घंटे चैनलों से सजी दुनिया में ऐसा हुआ होता तो हम न्यूयार्क मंद विमानों की खौफनाक टक्कर से वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की ध्वस्त होती इमारतों की तरह बिल्कुल वैसे ही नजारे को उज्जैन से देख रहे होते।
मिनहाज सिराज के ब्यौरे में उज्जैन से दिल्ली ले जाई गई जिन विशाल मूर्तियों का जिक्र है, उनका क्या किया गया होगा? उज्जैन पर हुए इस भीषण हमले के 77 साल बाद सन् 1312 में दिल्ली पहुंचे मोरक्को के इतिहास प्रसिद्ध यात्री इब्नबतूता ने कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के बाहर राजा विक्रमादित्य की मूर्ति को पड़े हुए अपनी आंखों से देखा। उसने इसे जामा मस्जिद कहा और इससे सटकर बनी कुतुबमीनार का भी जिक्र किया।
इल्तुतमिश ने सिंध से लेकर बंगाल और मध्य भारत में उज्जैन तक लगातार हमले किए। यह एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच किसी मसले पर लड़े गए आमने-सामने के चुनौतीपूर्ण युद्ध या आक्रमण नहीं थे। जैसा कि हम देख रहे हैं, यह साफतौर पर आतंकी हमले थे, क्योंकि जिस पर हमला किया जा रहा है, उसे पता ही नहीं है कि उसका कुसूर क्या है? कोई चुनौती नहीं, कोई मुद्दा नहीं। सीधे हमला। लूटपाट और मारकाट।
आप कल्पना कीजिए कि तब विदिशा या उज्जैन के आम निवासियों को क्या पता होगा कि अजीब सी शक्ल-सूरत और अजनबी जबान वाले ये हमलावर हैं कौन, क्यों उन्हें कत्ल कर रहे हैं, क्यों मंदिर को तोड़ रहे हैं, क्यों ये हमारी संपत्तियां लूटकर क्यों ले जा रहे हैं? अगर उन्हें किसी ने यह सूचना दी भी होगी कि ये दिल्ली के नए और विदेशी राजा हैं तो अपना सब कुछ तबाह होने के बाद पहली ही बार उन्होंने आतंकी सुलतानों के दीदार किए होंगे!
इस्लाम और अल्लाह, ये दो शब्द भी पहली दफा इन्हीं झुंडों में आए लोगांे के मुंह से एक भयावह शोर-शराबे में सुने गए। हम आज के बेतरतीब और बदहाल विदिशा और उज्जैन की पुरानी बस्तियों, गलियों और मोहल्लों में घूमते हुए कल्पना भी नहीं कर सकते कि ये इल्तुतमिश की इस्लामी फौज के हाथों पहली बार बरबाद होने के पहले किस शक्ल में सदियों से मौजूद रहे होंगे। वे सब अब खंडहरों या उजाड़ और गुमनाम टीलों में मौजूद हैं। बदली हुई पहचानों की आबादी के वे विस्तार उन्हीं अंधड़ों की उपज हैं।
इल्तुतमिश ने 26 साल तक भारत के सदियों पुराने कितने मालामाल शहरों को रौंदा, मंदिर तोड़कर लूटे और काफिरों को कत्ल किया। भारत के 9/11 की लंबी फेहरिस्त में इल्तुतमिश का योगदान-रणथंभौर, मंडावर, लखनौती, दरभंगा, थनकिर, ग्वालियर, विदिशा, उज्जैन, वाराणसी, कन्नौज, देवल, सियालकोट, लाहौर, झज्जर…।
ये तो बड़े शहर हैं। रास्तों में पड़ने वाले छोटे गांव और कस्बों की बरबादी सोच के परे है। भारत की असली आपबीती धूल और राख की कई परतों के नीचे दबी हुई है। हमारी आज की पीढ़ी को तो ऊपरी परत का भी ठीक से अंदाजा नहीं है। जबकि कई अंदरुनी परतें सदियों से अपने आगोश में आंसुओं से भरी अनगिनत कहानियां समेटे हुए हैं। भारत में आजादी के बाद सेकुलर चादर ने इन घावों को एक सुगंधित लेप की तरह ढाँकने की नाकाम कोशिश की।
हम धूल-धूसरित कर दिए गए उज्जैन की गलियों में पसरे मातम के बीच मिनहाज सिराज से सबसे पहले शम्सुद्दीन इल्तुतमिश के बारे में जानना चाहते हैं, जिसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने खरीदा था और अपनी लड़की से शादी कर दी थी।
मिनहाज साहब बता रहे हैं-‘अल्लाह ने शम्सुद्दीन इल्तुतमिश के द्वारा मुहम्मद के मजहब की रक्षा कराई है और उसे तरक्की दिलवाई है। सुलतान कुतुबुद्दीन अपने समय लाखों की दौलत दान करता था लेकिन सुलतान शम्सुद्दीन एक लाख की जगह पर सौ-सौ लाख की दौलत देता है। आलिमों, काजियों और परदेशियों को वह आश्रय देता है। अपनी हुकूमत की शुरुआत से ही वह आलिमों, मलिकों, सैयदों, अमीरों और सद्रों को हजार लाख से ज्यादा दौलत देता है। दुनिया में अलग-अलग जगहों से लोग दिल्ली पहुंचा करते हैं, जो कि इस्लाम की रक्षा और शरिअत का केंद्र बन गई है। ईरान के इलाकों की मुश्किलों और मुगलों के उत्पात के डर से लोग भाग-भागकर हिंदुस्तान पहुंच रहे हैं।’
(गरुड़ प्रकाशन से छप रही ‘भारत में इस्लाम’ श्रृंखला के पहले भाग ‘हिंदुओं का हश्र’ के एक अध्याय से। यह अमेजन पर है।)