आ गया धरा के आंगन में
गुणातीत भी तू, शब्दातीत भी तू,
कैसे तुझसे किन शब्दों में हम संवाद करें ?
जो निर्गुण और सगुण दोनों है,
किस प्रार्थना के द्वारा उससे हम बात करें?
हर पल साथ हमारे रहता पर
कभी दिखलाई नहीं पड़ता है,
‘चरैवेति -चरैवेति’ कहते-कहते संत गए
उसकी अतुलित महिमा का कैसे हम बखान करें?
जो सत, रज, तम से परे निकल जा
कुछ कहने को ना शेष रहे।
नहीं सुर दे सकती उसको वीणा
उसके आगे अच्छे-अच्छे शत्रु खेत रहे।
चलता समत्व भाव को हृदयंगम कर
उसको भूमंडल नतमस्तक हो जाता है,
जो सबको अपना समझ व्यवहार करे
अमर पद पाने वाले के सदा जग में अवशेष रहे।
जो अपने अंदर ही रमण करे
और स्वस्थ चित्त रहे हर हालत में।
कोई विषमता उसका कुछ कर न सके
जब निर्मल चित्त मगन रहे प्रभु चिंतन में।
जब समता सिर चढकर बोल उठे
और सारा संसार जय – जयकार करे,
तब समझो कोई भूसुर बनकर दिव्यपुरुष
आ गया धरा के आंगन में।।
जो ढेला ,पत्थर, सोना , चांदी
इन सब को समान समझता हो।
बड़े से बड़ा कोई आकर्षण भी
नहीं सत्यपथ से उसे डिगा सकता हो।
उस समदर्शी का अभिनंदन करता
और संसार सजाता स्वागत द्वार,
बताओ ! है कौन भला इस भूमंडल पर
जो सामना उस समदर्शी का कर सकता हो?
यह गीत मेरी पुस्तक “गीता मेरे गीतों में” से लिया गया है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है । पुस्तक का मूल्य ₹250 है। पुस्तक प्राप्ति के लिए मुक्त प्रकाशन से संपर्क किया जा सकता है। संपर्क सूत्र है – 98 1000 8004
डॉ राकेश कुमार आर्य