आशुतोष कुमार पांडे
हम आपको ‘अतीत के पन्नों से.. जेपी के जीवन से जुड़ी कुछ अनसुनी और रोचक कहानी बताने जा रहे हैं। बात, तब की है, जब देश में अभी इंमरजेंसी नहीं लगी थी। जयप्रकाश नारायण का आंदोलन जंगल की आग की तरह फैल रहा था। ये इंदिरा गांधी की विफलताओं और कुशासन के खिलाफ जनभावना के रूप में जोर पकड़ रहा था। सभी राजनीतिक दलों में जेपी से जुड़ने की होड़ लगी थी। सिर्फ कम्यूनिस्ट उनके साथ नहीं थे। सीपीएम और सीपीआई दोनों ही इंदिरा सरकार को अपना समर्थन देना जारी रखे हुए थीं। स्थिति ऐसी थी कि इंदिरा गांधी जेपी आंदोलन से घबरा गई थीं। वो जेपी से बातचीत करना चाहती थीं। जेपी इंदिरा से किसी तरह के संवाद से कन्नी काट रहे थे। ठीक उसी वक्त कैबिनेट मंत्री डीपी धर ने जेपी को मीटिंग के लिए राजी करने के लिए ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के संपादक एस. मूलगांवकर की मदद ली। ये मीटिंग पूरी तरह विफल रही।
सुरक्षाबलों की मनमानी से जेपी परेशान
देशभर से सुरक्षा बलों की मनमानी की खबर आने लगी थी। किसी छोटे से विरोध को भी संजय गांधी की सह पर सख्ती से कुचला जा रहा था। वरिष्ठ पत्रकार स्व. कुलदीप नैय्यर ने अपनी किताब ‘एक जिंदगी काफी नहीं’में बताते हैं कि इन परिस्थितों से आहत होकर जेपी ने एक अपील जारी की। उन्होंने सेना के जवानों से अपील की कि वे गैरकानूनी आदेशों का पालन करने से इनकार कर दें। जिनके तहत निर्दोष लोगों को हिरासत में लिया जा रहा था। सरकार के विरोधियों को निशाना बनाया जा रहा था। जेपी की अपील के बाद इंदिरा गांधी पर इसका उल्टा असर हुआ। उन्होंने जेपी पर पुलिस और सेना को भड़काने का आरोप लगा दिया। बहुत से बुद्धिजीवी और चापलूस उनके समर्थन में उतर आए। वहीं, जेपी ये नहीं देख पाए थे कि केंद्र और राज्य सरकारों ने सेना और पुलिस को पहले ही अपने अत्याचारों का माध्यम बना लिया था।
जेपी और इंदिरा में खुलकर लड़ाई
कुलदीप नैय्यर कहते हैं कि जेपी और इंदिरा की लड़ाई खुलकर सामने आ चुकी थी। जेपी की ‘परिवर्तन’ की मांग दिनों-दिन जोर पकड़ती जा रही थी। जेपी खुलकर सामने आ गए थे। वे ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की मदद से ‘फ्रीमैन’ प्रकाशित करने लगे थे। इससे इंदिरा गाधी और घबरा गई। तब तक उनके सिर पर इलाहाबाद का फैसला वज्र बनकर गिर पड़ा। जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने 12 जून 1975 को एक फैसला सुनाते हुए इंदिरा गांधी के लोकसभा चुनाव को रद्द कर दिया। उन्हें छह वर्ष के लिए किसी भी संवैधानिक पद के लिए अयोग्य घोषित कर दिया। 25 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने अपने किचेन कैबिनेट के नेताओं से मंथन और राष्ट्रपति से मुलाकात के बाद इंमरजेंसी की घोषणा कर दी।
एक लाख लोग जेल भेजे गए
लगभग एक लाख लोगों को जेल में ठूंस दिया गया। जयप्रकाश नारायण समेत अन्य वरिष्ठ विपक्षी नेताओं को भी नहीं बख्शा गया। इसके बाद शुरू हुआ गैर कानूनी और अवांछनीय गतिविधियों का सिलसिलेवार सिलसिला। हजारों निर्दोष लोगों को अमानवीय यातनाओं का शिकार होना पड़ा। इंदिरा गांधी ने बिना कोई सफाई दिए सिर्फ अपने-आपको कोर्ट के फैसले से बचाने के लिए एक खतरनाक सियासी कदम उठा लिया था।
सभी प्रमुख नेता गिरफ्तार
स्व. कुलदीप नैय्यर ‘इंमरजेंसी की शुरुआत’ सेक्शन में पृष्ठ संख्या 274 पर जिक्र करते हुए कहते हैं। प्रधानमंत्री के घर जश्न का माहौल था। 26 जून की रात का पूरा ऑपरेशन बिना किसी अड़चन के पूरा हो गया था। मजदूरों के नेता जॉर्ज फर्नांडिस और जनसंघ के नानाजी देशमुख और सुब्रह्मणयम स्वामी अंडरग्राउंड हो गए थे। अन्य सभी को हिरासत में ले लिया गया था। संजय गांधी ने अपनी मां से इस मौके पर कहा कि ‘मैंने आपसे कहा था कि कुछ भी नहीं होगा’। कांग्रेस नेता और संजय गांधी के विश्वासपात्र बंसीलाल ने भी कहा कि उन्हें पूरा भरोसा था कि कोई भी उनके खिलाफ उठने की हिम्मत नहीं करेगा। इलाहाबाद के जस्टिस को ‘ठीक करने’ का संदेश भेजा जा चुका था। उनके कैरियर से जुड़े सभी कागजातों की बारिकी से जांच की गई। उनके संबंधियों को परेशान किया जाने लगा। पुलिस 24 घंटे जस्टिस सिन्हा की निगरानी करने लगी।
जब ‘गुजराल’ ने संजय गांधी को डपट दिया !
उसी दौरान इंदिरा के किचेन कैबिनेट का हिस्सा रहे इंद्र कुमार गुजराल को संजय गांधी ने फोन कर प्रेस को ‘दुरुस्त’ करने का हुक्म दिया। गुजराल अपना संयम खो बैठे। उन्होंने कहा कि वे उनकी मां के सहकर्मी थे, न कि उनके (संजय गांधी) के घरेलू नौकर। संजय ने तुरंत गुजराल का योजना आयोग में तबादला कर दिया और उनका सूचना प्रसारण मंत्रालय विद्याचरण शुक्ल को सौंप दिया गया। इंदिरा गांधी के प्रमुख सचिव पीएन हक्सर पहले ही मुंह खोलने की सजा पा चुके थे। उन्हें हाशिए पर भेजा जा चुका था। हालांकि, इंदिरा गांधी थोड़ी घबराई हुई थीं। उन्हें लगता था कि अभी यह नहीं कहा जा सकता कि सबकुछ ठीक-ठाक हो गया था। फिर, ज्यादातर राज्यों के सीएम की रिपोर्ट थी कि स्थिति नियंत्रण में है। दिल्ली की सड़कों पर भय का माहौल था। फिर भी, ऊपर से सबकुछ सामान्य दिखाई दे रहा था। ‘स्टेट्समैन’ के जाने-माने फोटोग्राफर रघु राय ने उसी वक्त एक तस्वीर छापी थी। जिसमें एक आदमी दो बच्चों के साथ साइकिल पर जाते हुए दिखाई दे रहा था। पीछे-पीछे एक औरत चल रही थी। चारों तरफ पुलिस दिखाई दे रही थी। नीचे कैप्सन के रूप में लिखा था कि ‘चांदनी चौक में जनजीवन बिल्कुल सामान्य था’। कुलदीप नैय्यर ने लिखा है कि इस तस्वीर के संदेश को न पहचान पाने वाले सेंसर अधिकारी का अगले दिन तबादला कर दिया गया।
‘ससुरे को मरने दो’।
4 दिसंबर, 1976 को जेपी की हिरासत हटा दी गई। जेपी चंडीगढ़ में नजरबंद थे। वहां के डिप्टी कमिशनर ने सरकार को लिखा कि उनकी सेहत गिरती जा रही थी। यह रिपोर्ट घूम फिरकर हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे बंसीलाल की मेज पर पहुंच गई। उन्होंने इसे देखकर बड़ी लापरवाही से कहा ‘ससुरे को मरने दो’। हालांकि, जेपी से सभी प्रतिबंध हटा लिए गए। उन पर कड़ी नजर रखी जाती रही। सरकारी जासूस उनके पीछे लगा दिए गए। उनकी गतिविधियों, उनसे मिलने-जुलने वालों और उनके पत्र-व्यवहार की निरंतर निगरानी की जाती रही। जेपी से अभी भी इंदिरा गांधी को डर लग रहा था। वहीं उनके चेले-चपाटे उन्हें खुश करने के लिए जेपी पर अतिरिक्त निगाह रखते थे। सभी लोग अपनी रिपोर्ट संजय गांधी और इंदिरा गांधी तक पहुंचाते थे। कुलदीप नैय्यर ने अपना अनुभव बयां करते हुए लिखा है कि एक दिन जेपी की जब उनसे मुलाकात हुई। उन्होंने (जेपी) ने कहा कि इंदिरा गांधी खुद को हिमालय की चोटी महसूस कर रही थीं। ये स्वाभाविक भी था। उन्हें ‘दुर्गा’ कहा जाता रहा था और अब वे सचमुच अपने-आपको शक्ति का प्रतीक समझने लगी थीं।
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