#डॉ_विवेक_आर्य
प्रत्येक वर्ष की भांति दशहरे का त्योहार आ गया। सब लोग विशेष रूप से रावण के जलने का इंतजार कर रहे हैं। सभी मर्यादा पुरुषोतम श्री रामचन्द्र जी महाराज को याद करते है कि किस प्रकार से उन्होंने राक्षस रावण का वध कर धरती को पापी से मुक्त किया था। आज उनके उस पवित्र तप की स्मृति में रावण के पुतले का दहन किया जाता है। ताकि जनमानस को प्रेरणा मिले की बुराई पर किस प्रकार अच्छाई की विजय होती है।
एक प्रश्न मेरे मन में सदा आता है कि क्या आज के समाज में रावण फिर से जीवित हो उठा है? उत्तर है हाँ। रावण न केवल आज फिर से जीवित हो उठा है अपितु पहले से भी शक्तिशाली हो उठा है। वह रावण कौन है और कहाँ रहता है?
उत्तर है। वह रावण है। हमारी आतंरिक बुराइयाँ, जो हमारे भीतर ही है और हमें दिन प्रतिदिन धर्म मार्ग से विचलित करती हैं। उसके दस सिर है जिन पर यम-नियम रुपी दस तलवारों से विजय प्राप्त की जा सकती है। अब पाठकगण सोच रहे होगे की यह दस तलवारे कौन सी हैं और उनसे किन-किन बुराइयों पर विजय प्राप्त करी जा सकती हैं।
इस आंतरिक रावण से लड़ने की दस तलवारे है- यम और नियम। यम पांच है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहमचर्य और अपरिग्रह। नियम भी पांच है। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान। यम-नियम के पालन करने से हम अपनी आंतरिक बुराईयों को जो की रावण के दस सिर के समान हैं का सामना कर सकते है।
1. अहिंसा
सर्वदा सभी प्राणियों के साथ वैरभाव को छोड़कर प्रीति से वर्तना अहिंसा है। सभी प्राणियों में मनुष्य के साथ साथ पशु आदि की भी आते है। जहाँ अपनी जिह्वा के स्वाद अथवा उदर की भूख की पूर्ति के लिए निरीह प्राणियों की हत्या करना निश्चित रूप से हिंसा हैं। वहीं विचार मात्र से किसी व्यक्ति विशेष की हानी करने की इच्छा करना भी हिंसा है। यदि किसी व्यक्ति को चोरी आदि करने पर उसके सुधार के लिए दंड दिया जाये, तो वह कर्म अहिंसा कहलाता है, हिंसा नहीं कहलाता है क्यूंकि वह कर्म प्राणिमात्र के उद्धार के लिए किया जा रहा है। इसी प्रकार किसी आदमखोर जानवर को मारना भी हिंसा नहीं कहलाता क्यूंकि वह जन कल्याण के लिए है। आज धर्म के नाम पर विश्व भर में दंगे फसाद, लूट, बलात्कार क़त्ल आदि सुनने को मिलते है। हर कोई अपने अपने मजहब, अपने अपने मत,अपनी अपनी विचारधारा,अपने अपने गुरु को श्रेष्ठ और दूसरे को नीचा समझने लगा है। जिसके कारण चारों तरफ असुरक्षा, अविश्वास और डर का माहोल बन गया है। अगर मनुष्य अहिंसा के इस पाठ को समझ जाये तो और सभी के साथ प्रीतिपूर्वक वर्तने लगे तो इस हिंसा रुपी रावण का नाश किया जा सकता है।
2 सत्य
जैसा देखा हो, अनुमान से जाना हो और सुना हो, वैसा ही मन और वाणी में होना सत्य है अर्थात जो पथार्थ जैसा है, उसको वैसा ही जानना, मानना, बोलना और शरीर से उसको आचरण में लाना सत्य है। सत्य को परीक्षा पूर्वक जानना और उसका सर्व हितार्थ बोलना और आचरण में लाना सत्य है। वस्तु के स्वरुप के विपरीत जानना, मानना, बोलना, आचरण में लाना असत्य है। परन्तु हित के नाम से सत्य के स्थान में असत्य का आचरण करना सत्य नहीं है। इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि जो भी व्यक्ति सत्य बोलते है। वे विश्व में श्रेष्ठ कहलाते है। जबकि जो भी व्यक्ति असत्य के मार्ग पर चलते है। वे अप्रसिद्धि का पात्र बने है। आज मनुष्य मनुष्य पर विश्वास नहीं करता। क्यूंकि असत्य वचन के कारण विश्वास के स्थान पर कुटिलता ही कुटिलता दिखती है। एक दूसरे से घृणा का कारण भी यहीं असत्य वचन है। सत्य बोलने से व्यक्ति न केवल निडर, शक्तिशाली और दृढ बनता है। अपितु सभी के द्वारा सम्मान का पात्र भी बनता है। जबकि असत्य वचन करने वाला क्षणिक सफलता और तात्कालिक सुख का भोग तो कर सकता है। पर कालांतर में भय, आशंका और रोग उसे अपना शिकार बना लेते है। जिससे उसका नाश हो जाता है। इसलिए असत्य रुपी इस रावण का नाश सत्य से किया जा सकता है।
3. अस्तेय
मन, वाणी और शरीर से चोरी का परित्याग करके उत्तम कार्यों में तन, मन, धन से सहायता करना अस्तेय है। आज देश की सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार है। बड़े बड़े नेताओं से लेकर दफ्तर के छोटे कर्मचारी तक अपवाद रूप किसी किसी को छोड़कर सब इस पाप से धीरे धीरे ग्रसित हो गए है। यह भी एक प्रकार की चोरी ही है। किसी दूसरे के धन, संपत्ति आदि की इच्छा रखने से सबसे बड़ी हानि हमारी आंतरिक शांति का समाप्त हो जाना है। मनुष्य जीवन अनेक योनियों में जन्म लेने के बाद मिलता है। इस अमूल्य जीवन को हम इतनी अशांति में गुजार दे क्यूंकि हम सदा दूसरे के धन की इच्छा रखते रहे अथवा प्रयास करते रहे अथवा चोरी करते रहे। ऐसे करने वाले व्यक्ति को आप अज्ञानी नहीं कहेगे तो फिर क्या कहेगे? इसलिए मन, वचन और शरीर से चोरी का परित्याग करके हम इस रावण का नाश कर सकते है।
4. ब्रह्मचर्य
वेदों का पढना , ईश्वर की उपासना करना और वीर्य की रक्षा करना ब्रह्मचर्य कहलाता है। जब योगी मन, वचन और शरीर से ब्रह्मचर्य का दृढ पालन बना लेता है। तब बौधिक और शारीरिक बल की प्राप्ति होती है। उससे वह अपनी तथा अन्यों की रक्षा करने में, विद्या प्राप्ति तथा विद्या दान में समर्थ हो जाता है। ब्रह्मचर्य के पालन से शारीरिक और बौधिक बल की प्राप्ति होती है। शरीर का बल बढ़ने से शरीर निरोग एवं दीर्घ आयु होता है और उत्तम स्वास्थ्य को प्राप्त करता है। बौद्धिक बल के बढ़ने से वह अति सूक्षम विषयों को जानने में और अन्यों को विद्या पढ़ाने में सफल हो जाता है।
अथर्ववेद 11/5/19 में कहा भी गया है कि ब्रह्मचर्य के तप से देव मृत्यु को जीत लेते है। महाभारत में भीष्म युधिष्ठिर से कहते है – हे राजन! तू ब्रह्मचर्य के गुण सुन। जो मनुष्य इस संसार में जन्म से लेकर मरण पर्यंत ब्रह्मचर्य होता है। उसको कोई शुभ अशुभ अप्राय नहीं रहता, ऐसा तू जान कि जिसके प्रताप से अनेक करोड़ो ऋषि ब्रह्मलोक अर्थात सर्वानन्द स्वरुप परमात्मा में वास करते और इस लोक में भी अनेक सुखों को प्राप्त होते है। जो निरंतर सत्य में रमण, जितेन्द्रिय, शांत आत्मा, उत्कृष्ट, शुभ गुण स्वाभाव युक्त और रोग रहित पराकर्मयुक्त शरीर, ब्रह्मचर्य अर्थात वेदादि सत्य शस्त्र और परमात्मा की उपासना का अभ्यास कर्मादी करते है। वे सब बुरे काम और दुखों को नष्ट कर सर्वोत्तम धर्मयुक्त कर्म और सब सुखों की प्राप्ति कराने हारे होते है। और इन्हीं के सेवन से मनुष्य उत्तम अध्यापक और उत्तम विद्यार्थी हो सकते है।
ब्रह्मचर्य के विपरीत कर्म व्यभिचार कहलाता है। आज समाज में यह रावण विकराल रूप धारण कर समाज में अनैतिकता फैला रहा है। जिसके दुष्कर परिणामों से सभी परिचित है। भोगवाद की व्यभिचार रुपी लहर में बहकर युवक युवती अपना पूरा जीवन बर्बाद कर लेते है। आदि कच्ची उम्र में बलात्कार जैसा घृणित पाप कर डालते है। जिसके कारण पूरा जीवन अंधकारमय हो जाता है। मीडिया इस अपराध में सबसे बड़ा जिम्मेदार है। क्यूंकि अपरिपक्व मानसिक अवस्था में सही या गलत की पहचान कम ही को होती है। इस व्यभिचार रुपी रावण के कारण न जाने कितनो का जीवन बर्बाद हो रहा है और कितनो का होगा। इसलिए ब्रह्मचर्य रुपी उत्तम नियम के पालन से इस रावण का नाश किया जा सकता है।
5. अपरिग्रह
विषयों में उपार्जन, रक्षण, क्षय, संग, हिंसा दोष देखकर विषय भोग की दृष्टी से उनका संग्रह न करना अपरिग्रह है। अर्थात हानिकारक अनावश्यक वस्तु और अभिमान आदि हानिकारक,अनावश्यक अशुभ विचारों को त्याग देना अपरिग्रह है। जो जो वस्तु अथवा विचार ईश्वर प्राप्ति में बाधक है उन सबका परित्याग और जो जो वस्तु , विचार ईश्वर प्राप्ति में साधन है। उनका ग्रहण करना अपरिग्रह है। आज के समाज में अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करने की होड़ सी लगी हुई है। हर कोई अपने जीवन के उद्देश्य को भूलकर एक मशीन की भांति संग्रह करने के पीछे भाग रहा है, जिससे व्यक्ति मानसिक तनाव, दुःख, भय आदि का शिकार होकर अपने जीवन को साक्षात् नरक बनाये हुए है। भोगवाद की लहर में बहकर हम जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूल गए है। हमारे चारों ओर इसके अनेक उदहारण मिलेगे कोई काला बाजारी करता है ताकि सुख मिले, क्या सुख मिलेगा? कोई धोखे से किसी की संपत्ति पर कब्ज़ा कर रहा है, क्या सुख मिलेगा? बिलकुल नहीं। कोई दिन रात एक कर धन इकट्ठा करने में लगा हुआ है। पर उसे यह नहीं मालूम की एक सीमा के पश्चात यह धन एक एक प्रकार का भोझ ही है। हमारे देश के नेता ओर बड़े व्यापारी इसके साक्षात् उदहारण है। इतनी धन-संपत्ति को इकठ्ठा करने के बावजूद घोटाले पर घोटाले किये जा रहे है। अंत में सब कुछ छोड़कर मृत्यु को ही तो प्राप्त होना है। अगर समाज अपरिग्रह के सन्देश को समझ ले तो सभी सुखी हो सकते है। अपरिग्रह के इस सन्देश को अगर जनमानस समझ ले तो भटक रहे समाज को अज्ञानता रुपी रावण से मुक्ति मिल जाएगी।
6. शौच
शौच का एक अर्थ शुद्धि भी है। शुद्धि दो प्रकार की होती है। एक बाह्य और एक आन्तरिक। जल आदि से, पवित्र भोजन से शरीर की बाह्य शुद्धि होती है जबकि चित की मलिनताओं को दूर करने से शरीर की आन्तरिक शुद्धि होती है। मनुष्य अपने शरीर की बाह्य शुद्धता पर हर प्रकार से ध्यान देता है। ताकि वो सुन्दर दीख सके। इस सुन्दरता के कारण वो भ्रमित होकर अपने शरीर पर अभिमान कर बैठता है और दूसरे के शरीर को घृणा की दृष्टी से देखता है। इस अभिमान से मनुष्य सत्य से दूर चला जाता है। और अपना बहुत सारा बहुमूल्य समय शरीर को सुन्दर बनाने में लगा देता है। सत्संग, स्वाध्याय, ईश्वर उपासना, आत्म निरिक्षण के लिए उसके पास समय ही नहीं रहता। आन्तरिक मलिनता की शुद्धि इन्हीं कर्मों से होती है। कोई कोई मनुष्य दुसरे के शरीर की सुन्दरता पर मोहित हो जाता है। जिससे काम वासना की उत्पत्ति होती है। अभिमान और काम वासना दोनों व्यक्ति को आन्तरिक रूप से असुद्ध कर देती है। आन्तरिक शुद्धि से बुद्धि की शुद्धि होती है। जिससे मन में प्रसन्नता और एकाग्रता आती है, जिससे इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती है, उससे बुद्धि ईश्वर की उपासना में लीन होती है, जिससे ईश्वरीय सुख की प्राप्ति होती है। आज के समाज में मांसाहार से भोजन की अपवित्रता होती है। जिससे न केवल शरीर अशूद्ध होता है। अपितु विचारों में भी मलिनता आती है। अभिमान और काम वासना से मनुष्य जाति का जितना नाश हुआ है। उसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। समाज में फैल रही अराजकता को मांसाहार, अभिमान, कामवासना रुपी रावण से मुक्ति तभी मिल सकती है। जब शौच (शुद्धि) के मार्ग पर चला जाये।
7. संतोष
संपूर्ण प्रयास के पश्चात जो भी उपलब्ध हो, उसी में संतुष्ट रहना, उससे अधिक की इच्छा न करना संतोष है। जो व्यक्ति अपने पूर्ण पुरुषार्थ के पश्चात अपने उपलब्ध साधनों से अधिक पदार्थों की इच्छा नहीं करता, तो उसको अनुपम सुख की प्राप्ति होती है। जब व्यक्ति इन्द्रियों के भोगों में आसक्त रहता है तो उसकी विषय भोग की तृष्णा बढ़ती जाती है और वो उस तृष्णा की पूर्ती के लिए प्रयासशील रहता है। प्रयास में परिणाम पाने के लिए या तो वह अपराध कर बैठता है अथवा विफल होने पर दुखों का भोगी बनता है। इसलिए संतोष का पालन करने चाहोये जिससे सात्विक सुख की प्राप्ति होती है नाकि क्षणिक सुखों की प्राप्ति होती है। संतोष का पालन करने से व्यवहार में भी सुख की प्राप्ति होती है और दुखों की निवृति होती है। जब कोई हानिकारक घटना घट जाती है तो संतोषी व्यक्ति को नयून दुःख होता है इसलिए संतोष जीवन में सुख प्राप्ति का उपयोगी मार्ग है। आज समाज में हर कोई दुखी है। उसका एक कारण संतोष का नहीं होना है। इसलिए असंतोष रुपी रावण को त्याग कर संतोष का पालन करने से अनुपम सुख की प्राप्ति की जाये।
8 . तप
धर्म आचरण करते हुए हानि लाभ, सुख दुःख, मान अपमान , सर्दी गर्मी, भूख प्यास आदि को शांत चित से सहन करना तप है। जिन जिन उत्तम कार्यों के करने में स्वयं का और अन्यों का दुःख दूर होता है और सुख की प्राप्ति होती है। उनको करते रहना और न छोड़ना धर्म आचरण है। धर्म आचरण करने में जो जो दुःख व्यक्ति को सहना पड़ता है। उसको तप कहते है। आज समाज में अराजकता का एक कारण सज्जन व्यक्तियों द्वारा तप न करना है और दुर्जन व्यक्तियों द्वारा करे जा रहे दुष्ट कार्यों को न रोकना है। श्री राम सतयुग के विशेष उदहारण है। जिन्होंने अपने तप से राक्षस रावण को समाप्त किया। उनसे प्रेरणा पाकर आज हमे भी समाज में फैल रही बुराइयों को समाप्त करने के लिए तप करना चाहिए जिससे अधर्म रुपी रावण का नाश किया जा सके।
9 . स्वाध्याय
वेद आदि धर्म शास्त्रों को पढ़कर ईश्वर के स्वरुप को जानना और ईश्वर का चिंतन मनन करना, अपने दैनिक कार्यों का मानसिक अवलोकन कर अपनी गलतियों को पहचानना और उनको भविष्य में दोबारा न करने की प्रतिज्ञा करना स्वाध्याय कहलाता है। धर्म शास्त्रों के अध्ययन से और उनका पालन करने से व्यक्ति के आचरण में इतनी योग्यता आ जाती है कि वह अन्यों को भी धर्म मार्ग पर चला सकता है। समाज में सदा श्रेष्ठ मनुष्यों की कीर्ति हुई है। सर्व प्रथम व्यक्ति को अपना ही स्वाध्याय करना चाहिए कि उसमे क्या क्या बुराइयाँ समाहित है। फिर उन पर विजय प्राप्त करनी चाहिए। इस कार्य में ईश्वर ही केवल सहाय है और उन ईश्वर को जानने के लिए वेदादि धर्म शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए। आज समाज में हर व्यक्ति अपने आपको सबसे सही और अन्य को सबसे गलत मान रहा है। इसका कारण है वह अपने आपको न जानना। अगर व्यक्ति अपनी वास्तविकता को समझे और धर्म ग्रंथों का स्वाध्याय कर उसी अनुसार वर्ते तो वह किसी को कष्ट नहीं देगा। ऐसा व्यक्ति न केवल बुद्धिमान कहलायगा अपितु समाज का मार्ग दर्शन भी करेगा। स्वाध्यायशील ज्ञानी व्यक्ति ही समाज का नेतृत्व कर सकते है। आज समाज का नेतृत्व अज्ञानी भोगी व्यक्ति कर रहे है। जिसके कारण समाज गर्त में जा रहा है। अपने आपको स्वाध्यायशील और ईश्वर प्रेमी बनाकर समाज का नेतृत्व योग्य व्यक्ति द्वारा होने से समाज में अज्ञान रुपी रावण का नाश होगा।
10 . ईश्वर प्रणिधान
समस्त विद्याओं को देने वाले परम गुरु ईश्वर में समस्त कर्मों को समर्पित कर देना, उसकी भक्ति करना, व्यवहार में उसके आदेशों का पालन करना, शरीर आदि पदार्थों को उसके मानकर धर्माचरण करना, कर्मों का लौकिक फल न चाहना, ईश्वर को ही लक्ष्य बनाकर कार्यों को करना ईश्वर प्रणिधान है। कोई भी मनुष्य गलत कार्य तभी करता है। जब वह ईश्वर को सर्वथा भूल जाता है। अगर मनुष्य किसी भी कार्य को करने से पहले ईश्वर के अनुकूल अथवा प्रतिकूल की परीक्षा करे तो वह पाप कार्य से अपने आपको बचा सकता है। समाज में पाप कर्म को रोकने यह सबसे कारगर तरीका है। इससे न केवल पाप आचरण कम होगा अपितु सात्विक वातावरण का माहौल भी बनेगा। पाप रुपी रावण का नाश करने का यह सबसे कारगर तरीका है।
आशा है कि यम नियम की अहिंसा, सत्य, अस्तेय , ब्रहमचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष,तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान रुपी तलवारों से हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार, भ्रष्ट आचार, अशुद्धि, असंतोष,अकर्मयता, अज्ञान और पाप आचरण रुपी रावण के दस सिरों का नाश होगा। अपने जीवन को योगी लोग इन्हीं सीढियों पर चलकर श्रेष्ठ बनाते है और अपने भीतर छिपे हुए आन्तरिक रावण का नाश करते है। आशा है कि जिज्ञासु भी योग मार्ग का अनुसरण कर अपने जीवन को यथार्थ करेगे।