निसंग रहता है सदा
जो तेरे – मेरे से उठे और मिटा देत दुर्भाव।
मुझको पाता है वही, जो रखता हो सद्भाव।।
परमपिता – परमात्मा स्वयं रमा मेरी देह।
निसंग रहता है सदा , पर रखता सबसे नेह।।
आकाश सर्वत्र व्याप्त है, पर नहीं किसी में लिप्त।
हर वस्तु से दूर है , होकर भी संलिप्त।।
असंग रहित है संग से, काम करे निष्काम।
है आत्मा का भी यही , देह के संग में भाव।।
पार्थ ! इस संसार में तू पा ले यश का लाभ।
सज्जन की रक्षा करो , दुर्जन का संहार।।
निज शत्रुओं को जीतकर, करो राज्य उपभोग।
मेरे द्वारा मर गए, जो भी खड़े यहां लोग।।
हे सव्यसाची पार्थ ! तू है केवल इसका निमित्त।
धर्म समझ पूरा करो , स्थिर करके चित्त।।
जो कुछ जगत में हो रहा , सबका करता ‘एक’।
मानव के वश कुछ नहीं , मिटा भ्रम – संदेह ।।
निमित्त बने हम कर रहे, सांसारिक सब काम।
कोई कराता हमसे है , ना करते हम आप।।
जिस दिशा में हो रहा , सारा जग गतिमान।
है संचालन सब ईश का , जानत वही महान।।
द्रोण भीष्म और कर्ण से, जितने भी महावीर।
मेरे द्वारा मर चुके, फिर तू क्यों है गंभीर ?
सुन ,अर्जुन कहने लगा – आप हैं अपरंपार।
सब कुछ जगत के आप हैं, सृष्टा – पालनहार।।
यह गीत मेरी पुस्तक “गीता मेरे गीतों में” से लिया गया है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है । पुस्तक का मूल्य ₹250 है। पुस्तक प्राप्ति के लिए मुक्त प्रकाशन से संपर्क किया जा सकता है। संपर्क सूत्र है – 98 1000 8004
डॉ राकेश कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत