ललित गर्ग
नारी-शक्ति की पूजा तभी सार्थक है जब महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों पर लगाम लगे
शारदीय नवरात्र मनाते हुए हम एक बार फिर स्त्री शक्ति के सम्मान के लिये बेटियों एवं महिलाओं के आदर एवं अस्तित्व की बात कर रहे हैं। यह देखना भी दिलचस्प है कि जहां साल में दो बार लड़कियों को महत्व देने के लिए ऐसे पर्व मनाए जाते हों, वहां लड़कियों को दोयम दर्जे का मानने वाले भी बहुत हैं, बालिकाओं और बेटियों के अस्तित्व एवं अस्मिता को नौंचने वाले भी कम नहीं है, आये दिन ऐसी घटनाएं देखने और सुनने को मिलती हैं कि किस तरह आज भी बेटियों के साथ बलात्कार, व्यभिचार एवं अत्याचार करने के बाद उन्हें मार दिया जाता है। उत्तराखण्ड की ताजा घटना में सत्ताधारी पार्टी से संबंध रखने वाले एक रिजार्ट के मालिक ने अपने सहयोगियों के साथ मिल कर एक मासूम बालिका के साथ अवैध एवं अनैतिक कृत करने के बाद हत्या कर दी। यों यह घटना आए दिन होने वाले जघन्य अपराधों की ही अगली कड़ी है, भला हमारा नारी को सम्मान देने एवं मां दुर्गा को पूजना कितना अर्थपूर्ण एवं विरोधाभासी है, साफ झलकता है। यहां हमारी कथनी और करनी का फर्क भी साफ नजर आता है, हमारी दूषित सोच एवं विकृत मानसिकता भी उजागर होती है।
इसी सप्ताह हमने राष्ट्रीय पुत्री दिवस मनाया। हालांकि, भारत में बेटी दिवस मनाने की एक खास वजह बेटियों के प्रति लगातार बढ़ रहे अपराधों पर नियंत्रण के लिये लोगों को जागरूक करना है। आज भी हमारे समाज की सोच बेटियों को लेकर विडम्बनापूर्ण एवं विसंगतिपूर्ण है। बेटी को न पढ़ाना, उन्हें जन्म से पहले मारना, घरेलू हिंसा, उनके मासूम शरीर को नौंचना, दहेज और दुष्कर्म से जुड़े बेटियों के अपराध एवं अत्याचार होना नये भारत, विकसित भारत पर एक बदनुमा दाग है। यह समझाना जरूरी है कि बेटियां बोझ नहीं होतीं, बल्कि आपके परिवार, समाज एवं राष्ट्र का एक अहम हिस्सा होती हैं, एक बड़ी ताकत होती हैं। आज बेटियां चांद तक पहुंच गई हैं, कोई भी क्षेत्र हो बेटियों ने अपना दमखम दिखा दिया है और बता दिया है कि वे किसी से कम नहीं हैं। इस सबके बावजूद बेटियों को क्यों अपनी हवस का माध्यम बनाया जाता है, यह एक बड़ा प्रश्न नवरात्र जैसे पर्व मनाते हुए हमारे सामने खड़ा है।
उत्तराखण्ड की ताजा घटना में समाज में रसूख के बूते अपनी धौंस जमाने वाले कुछ लोग महज मनमानी के लिए किसी बेटी के साथ अत्याचार एवं अनैतिक काम करने से नहीं हिचके। जिस लड़की की हत्या कर दी गई, वह अपने परिवार की आर्थिक हालत की वजह से भी नौकरी करने के लिये घर से निकली थी। मगर उसकी योग्यता और मेहनत की कद्र करने की बजाय रिजार्ट के मालिक ने उसे अवैध और अनैतिक काम में झोंकने की कोशिश की। ऐसा हर जगह बेटियों के साथ हो रहा है। जाहिर है, लड़की ने मना किया, मगर आरोपों के मुताबिक, इसी वजह से रिजार्ट के मालिक ने उसकी हत्या कर दी। यों यह घटना आए दिन होने वाले जघन्य अपराधों की ही अगली कड़ी है, मगर यह सत्ता और समाज के उस ढांचे को भी सामने करती है, जिसमें महिलाओं की सहज जिंदगी लगातार मुश्किल बनी हुई है, संकटग्रस्त एवं असुरक्षित है। यह घटना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान की भी धज्जियां उड़ाती है। इस घटना ने समूचे प्रशासन और पुलिस की कार्यशैली पर सवालिया निशान लगाया है। हालत यह है कि अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने या फिर रसूखदार आरोपियों को बचाने की मंशा से सही समय पर कार्रवाई करने को लेकर भी टालमटोल की गई है। गौरतलब है कि मुख्य आरोपी रिजार्ट का मालिक भाजपा नेता और पूर्व राज्यमंत्री का बेटा है और उसका भाई भी उत्तराखंड में अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग का उपाध्यक्ष था।
हर जगह बेटियों के साथ रसूखदार लोगों के द्वारा होने वाले अत्याचारों पर प्रशासन एवं पुलिस की शिथिलता एवं लापरवाही देखने को मिलती है। उत्तराखण्ड की घटना में भी ऐसा ही हुआ। दरअसल, घटनाक्रम को लेकर अगर लोगों के बीच आक्रोश नहीं फैलता तो शायद पुलिस आरोपियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई नहीं करती, मामले को दबा देती। मार डाली गई लड़की के पिता ने आरोप लगाया कि उन्होंने बेटी के लापता होने की सूचना राजस्व पुलिस को दे दी थी, मगर उनकी रिपोर्ट नहीं लिखी गई। जबकि सूचना के तुरंत बाद प्रशासन को सक्रिय होना चाहिए था। क्या इसकी वजह आरोपियों का स्थानीय स्तर पर रसूखदार होना और सत्ताधारी पार्टी से संबंध होना है? भले ही घटना के तूल पकड़ने के बाद भाजपा ने इन दोनों को पार्टी से निकालने की औपचारिकता निभाई, मगर राज्य में कोई लड़की घर से बाहर सुरक्षित महसूस करे, इसकी फिक्र फिलहाल नहीं दिख रही। शर्मनाक यह है कि हत्या से सबंधित तथ्य उजागर होने के बाद भी मुख्य आरोपी के पिता ने अपने बेटे को ‘सीधा-सादा बालक’ बताया! एक राष्ट्रीय पार्टी के किसी नेता की यह कैसी संवेदनहीनता है?
बेटियों एवं नारी के प्रति यह संवेदनहीनता कब तक चलती रहेगी? भारत विकास के रास्ते पर तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन अभी भी कई हिस्सों में बेटियों को लेकर गलत धारणा है कि बेटियां परिवार पर एक बोझ की तरह हैं। एक विकृत मानसिकता भी कायम है कि बेटियां भोग्य की वस्तु हैं? भारत में आज से कुछ वर्षों पहले के लिंगानुपात की बात करें तो लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या बहुत कम थी और गर्भ में बेटियों को मारने का चलन चल पड़ा था। हालांकि, पिछले कुछ दशकों में इस सोच में भारी परिवर्तन भी हुआ है। ज्यों-ज्यों शिक्षित और रोजगारशुदा लड़कियों की संख्या बढ़ी है, उनकी आवाज और ताकत को नेता भी पहचानने लगे हैं। हर राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र में औरतों के हितों की बातें करने लगा है। महिला नेताओं ने भी बेटियों एवं नारी की स्थिति बदलने में बहुत सकारात्मक भूमिका निभाई है। साल 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान की शुरुआत हरियाणा के पानीपत जिले से की थी। इसके बाद भ्रूण हत्या को समाप्त करने व महिलाओं से जुड़े तमाम महत्वपूर्ण मुद्दों पर पुरुष मानसिकता में व्यापक परिवर्तन आया है।
नरेन्द्र मोदी की पहल पर ही बड़ी संख्या में छोटे शहरों और गांवों की लड़कियां पढ़-लिखकर देश के विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। वे उन क्षेत्रों में जा रही हैं, जहां उनके जाने की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। वे टैक्सी, बस, ट्रक से लेकर जेट तक चला-उड़ा रही हैं। सेना में भर्ती होकर देश की रक्षा कर रही है। अपने दम पर व्यवसायी बन रही हैं। होटलों की मालिक हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लाखों रुपये की नौकरी छोड़कर स्टार्टअप शुरू कर रही हैं। वे विदेशों में पढ़कर नौकरी नहीं, अपने गांव का सुधार करना चाहती हैं। अब सिर्फ अध्यापिका, नर्स, बैंकों की नौकरी, डॉक्टर आदि बनना ही लड़कियों के क्षेत्र नहीं रहे, वे अन्य क्षेत्रों में भी अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। इस तरह नारी एवं बालिका शक्ति ने अपना महत्व तो दुनिया समझाया है, लेकिन नारी एवं बालिका के प्रति हो रहे अपराधों में कमी न आना, एक चिन्तनीय प्रश्न है। सरकार ने सख्ती बरती है, लेकिन आम पुरुष की सोच को बदलने बिना नारी एवं बालिका सम्मान की बात अधूरी ही रहेगी। इस अधूरी सोच को बदलना नये भारत का संकल्प हो, इसीलिये तो इस देश के सर्वोच्च पद पर द्रौपदी मुर्मू को आसीन किया गया हैं। वह प्रतिभा पाटिल के बाद देश की दूसरी महिला राष्ट्रपति हैं। अमेरिका आज तक किसी महिला को राष्ट्रपति नहीं बना सका, जबकि भारत में इंदिरा गांधी तो 1966 में ही प्रधानमंत्री बन गई थीं। असल में, यही तो स्त्री शक्ति की असली पूजा है। अब स्त्री शक्ति के प्रति सम्मान भावना ही नहीं, सह-अस्तित्व एवं सौहार्द की भावना जागे, तभी उनके प्रति हो रहे अपराधों में कमी आ सकेगी।