हमारे शुभ कर्म ही हमें मोक्ष मिलाते हैं : देवेंद्र सिंह आर्य
अथर्ववेद पारायण यज्ञ के चौथे सत्र में उपस्थित धर्म प्रेमी सज्जनों को संबोधित करते हुए भारत समाचार पत्र के चेयरमैन और मुख्य यजमान रहे देवेंद्र सिंह आर्य ने कहा कि मनुष्य को उसके शुभ कर्म ही मोक्ष खिलाते हैं। शुभ कर्मों से ही जीवन महान बनता है उन्होंने कहा कि यज्ञ के बारे में हमारे ऋषि यों ने गहन साधना की है। यज्ञ की यह संस्कृति ही वास्तव में हमें श्रेष्ठ कर्मों की ओर ले जाती है। उन्होंने कहा कि स्वामी दयानन्द अपने ग्रंथ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में कहते हैं कि जो मनुष्य पूर्वजन्म में धर्माचरण करता है, उस धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीरों को धारण करता और अधर्मात्मा मनुष्य नीच शरीर को प्राप्त करता है। नीच कर्म मनुष्य को अधोगामी बनाते हैं। जिससे जीवन में भटकाव तिरस्कार और बहिष्कार का पात्र बन जाता है।
श्री आर्य ने कहा कि स्वामी दयानन्द पुनर्जन्म के विषय में अथर्ववेद का उदाहरण देते हैं कि हे परमपिता परमेश्वर ! आपकी कृपा से पुनर्जन्म में मन आदि ग्यारह इन्द्रियां मुझ को प्राप्त हों अर्थात् सर्वदा मनुष्य देह ही प्राप्त होता रहे। पूर्वजन्मों मे शुभ गुण धारण करने वाली बुद्धि के साथ मनुष्य देह के कृत्य करने में समर्थ हो। ये सब बुद्धि के साथ मुझको यथावत् प्राप्त हो। जिनसे हम लोग इस संसार में मनुष्य जन्म को धारण करके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सदा सिद्ध करें, और इससे आपकी भक्ति को सदा प्रेम से किया करें। जिससे किसी जन्म में भी हमकों दुःख प्राप्त न हो।
अपने संबोधन में उन्होंने काम, क्रोध, मद ,मोह , लोभ आदि के बारे में स्पष्ट किया कि यह उचित अनुपात में रहते हैं तो उत्पात नहीं मचाते हैं। पर इनके एक सीमा से बाहर जाते ही हमारा जीवन असंतुलित हो जाता है और इनके कारण मनुष्य जीवन मरण के चक्कर में फंस जाता है। उन्होंने कहा कि इन पांचों विकारों को शोधित करके रखना ही सबसे बड़ी साधना है। जैसे भुना हुआ चना दग्धबीज होकर फिर अंकुरण करने की क्षमता खो बैठता है वैसे ही इन पांचों नागों को अपने वश में करके मनुष्य को रखना चाहिए।
उन्होंने कहा कि स्वामी दयानन्द ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में इस पुनर्जन्म विषय को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जो पूर्वजन्म में किए हुए पाप पुण्यों के फलों को भोग करने के स्वभाव युक्त जीवात्मा है, वह पूर्व षरीर को छोड़ कर वायु के साथ रहता है, पुनः जल औषधि या प्राण आदि में प्रवेष करके वीर्य में प्रवेष करता है, तदनन्तर योनि अर्थात् गर्भाषय में स्थिर होकर पुनः जन्म लेता है। जो जीव अनुदित वाणी अर्थात् जैसी ईष्वर ने वेदों में सत्यभाषण करने की आज्ञा दी है, वैसा ही यथावत् जानकर बोलता है, और धर्म में ही यथावत् स्थित रहता है। वह मनुष्य योनि में उत्तम शरीर धारण करके अनेक सुखों को भोगता है, और जो अधर्माचरण करता है। वह अनेक नीच शरीर अर्थात् कीट पतंगे पषु आदि के शरीर को धारण करके अनेक दुखों को भोगता है।