ग्रेनो ( विशेष संवाददाता ) अंसल सोसाइटी में महाशय राजेंद्र सिंह आर्य जी की 111 वी जयंती के अवसर पर आयोजित किए गए अथर्ववेद पारायण यज्ञ में उपस्थित लोगों का मार्गदर्शन करते हुए वैदिक विद्वान ललित मोहन शास्त्री ने कहा कि देवता लोग वही हैं जो इस लोक में रहते हुए भी सत्कर्मों में, सृजनशीन विचारों में और निर्माणत्मकता में निमग्न रहते हैं। ऐसे लोग संसार के किसी भी कोने में हो सकते है। प्रत्येक सम्प्रदाय में हो सकते हैं। लेकिन भारत के प्राचीन आर्य-समाज अर्थात वैदिक समाज में ऐसे दिव्य पुरूषों की बहुलता थी, इसीलिए भारत को देवनिर्मित देश कहा गया है। यह देव निर्मित देश इसलिए था कि यहाँ पर सन्तान का आदर्श होता था :-
‘‘अनुव्रत: पितु: पुत्रो मात्रा भवतु सम्मना:’’
अर्थात् पुत्र पिता के व्रत का पालन करने वाला हो और माता के मन की इच्छाएँ पूरी करने वाला हो। ऐसी सुसंस्कृति से ही देव संस्कृति का निर्माण होता है। पिता कोई भी ऐसा नहीं होता कि जो अपने पुत्र से ऊँची अपेक्षाएँ नहीं रखता। उन्होंने कहा कि संतति के निर्माण में पिता अपने आप को पूर्णतया समर्पित कर देता है। उनके स्थान को कभी कम करके नहीं आंकना चाहिए। क्योंकि पिता का स्थान आकाश से भी ऊंचा है।
हर एक पिता अपने पुत्र से मानव समाज में मानवता को स्थापित कर उच्चादर्श स्थापित करने और उसके यशस्वी, ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी एवं वर्चस्वी होने की अपेक्षा करता है। पिता का यही व्रत है। पुत्र को चाहिए कि वह पिता के व्रत का अनुगामी हो। श्री शास्त्री ने कहा कि भारत की देव संस्कृति को समझने के लिए यहां माता-पिता और आचार्य के प्रति संतान और शिष्यों के कर्तव्य धर्म को समझने की आवश्यकता है। उन्होंने आज की शिक्षा संस्कृति पर अफसोस जताते हुए कहा कि यह शिक्षा संस्कारों पर आधारित न होकर आर्थिक दृष्टिकोण को अपनाने वाली है। जैसे संसार का कभी भला नहीं हो सकता।
इस यज्ञ के अध्यक्ष का दायित्व निभाने वाले देव मुनि जी महाराज ने अपने संबोधन में कहा कि हमें पंच महायज्ञ संस्कृति के प्रति समर्पित होकर काम करने की आवश्यकता है। यदि हम अपनी संस्कृति को न समझकर विदेशी संस्कृति के पीछे पड़े रहे तो भारतीय समाज की दुर्दशा को कभी सुधारा नहीं जा सकेगा। उन्होंने कहा कि भारत की यज्ञ की संस्कृति को अपनाकर मानवतावाद का विकास किया जाना संभव है।
इस अवसर पर सूरजपुर आर्य समाज के प्रधान मूलचंद शर्मा ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि भारत यज्ञों की भूमि रहा है। यज्ञों के माध्यम से इसने सामाजिक-आर्थिक राजनीतिक और धार्मिक व्यवस्था को न केवल सुधारा बल्कि उन्हें उत्कृष्टता भी प्रदान की। आज भी भारत की इसी यज्ञ की संस्कृति को अपनाकर हम मानव समाज को उत्कृष्टता में ढाल सकते हैं।
उन्होंने कहा कि जहां पुत्र को पिता का अनुव्रती होना चाहिए वही पुत्र के लिए अपेक्षित है कि वह माँ के समान मन वाला हो। माता के हृदय में और मन में सदा प्रेम, स्नेह, ममता और वात्सल्य का सागर लहराता रहता है। माँ के इन गुणों को हम अपने जीवन में संस्कार रूप में ढाल लें तो हमारे हृदय की कठोरता सरलता में, ज्ञान की स्थूलता सूक्ष्मता में और दृष्टि की ससीमता असीमता में परिवर्तित हो जाएगी। उन्होंने कहा कि आर्य बंधु अपने माता पिता के प्रति ऐसे ही विचार रखते हैं इसलिए उनके जाने के पश्चात हुई प्रतिवर्ष यज्ञ कराते हैं।