नेहरू के कारण नहीं बन पाया था देश हिंदू राष्ट्र
अमित शुक्ला
देश में हिंदू राष्ट्र की बहस पुरानी है। यह आजादी के बाद से ही शुरू हो गई थी। उन दिनों कांग्रेस नेताओं का एक धड़ा भी इसके पक्ष में था। लेकिन, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे। नौबत यहां तक पहुंच गई थी कि उन्होंने इस्तीफा देने तक संकेत दिए थे।
नई दिल्ली: हिंदू राष्ट्र (Hindu State) को लेकर देश में अक्सर बहस होती है। यह मसला नया नहीं है। आजादी के बाद से ही इसके लिए सुर उठने लगे थे। हमने आजादी की बड़ी कीमत चुकाई थी। तब भारत का बंटवारा धर्म के आधार पर हुआ था। पाकिस्तान इस्लामिक मुल्क बना था। दूसरी तरफ भारत ने धर्मनिरपेक्षता का रास्ता अपनाया था। जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) देश के पहले प्रधानमंत्री बने थे। बेशक, वह कांग्रेस सुप्रीमो थे। लेकिन, उन्हें भी कई मसलों पर असहमति का सामना करना पड़ता था। शुरुआत के कुछ सालों में यह ज्यादा था। ऐसा ही एक मसला हिंदू राष्ट्र का था। कांग्रेस के अंदर ही तमाम नेता हिंदू राष्ट्र की चाहत रखते थे। इसके उलट नेहरू नहीं चाहते थे कि पाकिस्तान की राह पर भारत चले। पाकिस्तान और हिंदू शरणार्थियों पर उनकी पॉलिसी से कांग्रेस के हिंदूवादी नेता नाराज थे। नेहरू को इन नेताओं के विरोध का इस कदर सामना करना पड़ रहा था कि नौबत इस्तीफा देने तक पहुंच गई थी। उन्होंने इस्तीफा देने तक का संकेत दे दिया था। तब उन्होंने साफ कर दिया था कि जब तक उनके हाथों में कमान है भारत हिंदू राष्ट्र नहीं बन सकता है।
नेहरू सोशलिस्ट डेमोक्रेसी के प्रबल पैरोकार थे। जब देश में हिंदू राष्ट्र के सुर उठ रहे थे तो उन्होंने कहा था – ‘धार्मिक राज्य का विचार ही अपने में घिसा-पिटा है। यह मूर्खतापूर्ण भी है। नए जमाने में लोगों का अपना धर्म हो सकता है, लेकिन धार्मिक राज्य नहीं।’
मुस्लिम लीग की चोट को नहीं भूले थे नेहरू
यह और बात है कि नेहरू ने तब माना था कि मुस्लिम लीग ने भारत को जो नुकसान पहुंचाया है, उसकी भरपाई करनी मुश्किल है। उन्होंने कहा था कि अगर मुस्लिम लीग नहीं होती तो भारत को कहीं पहले आजादी मिल जाती। लीग के नेतृत्व में बड़ी तादाद में मुस्लिमों ने वतन के साथ गद्दारी की। हालांकि, ऐसे गैर-मुस्लिम भी थे जिन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया। उन्होंने आजादी की लड़ाई कुंद की। उनके लिए क्या सजा मुकर्रर की जाएगी।
हिंदू राष्ट्र के समर्थन में उठ रहे सुरों के बीच नेहरू ने कहा था कि कांग्रेस ने हमेशा सोशलिस्ट डेमोक्रेसी के लिए काम किया है। इसमें सभी को बराबर का अवसर दिया गया है। वह किसी एक वर्ग के प्रभुत्व का विरोध करेगी। जिस खुशहाल और समृद्ध भारत की वह कल्पना करते हैं, उसमें सामाजिक सौहार्द्र जरूरी है। अगर उन आदर्शों पर नहीं चला गया तो उनके सामने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने के बजाय कोई रास्ता नहीं बचेगा।
नेहरूर पर बन रहा था जोरदार दबाव
हिंदुत्व के मसले पर उस समय नेहरू पर जबर्दस्त दबाव बन गया था। यह वही समय था जब हिंदू विचारक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरू की कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था। वह देश के पहले उद्योग मंत्री थे। बाद में वह अखिल भारतीय जनसंघ के संस्थापक बने। उन्होंने नाराज होकर इस्तीफा दिया था। ईस्ट पाकिस्तान में छूट गए हिंदुओं की सुरक्षा को लेकर वह बहुत ज्यादा खफा थे। खासतौर से उनका विरोध नेहरू-लियाकत दिल्ली समझौते को लेकर था। 8 अप्रैल 1950 को नेहरू और पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने इस पर हस्ताक्षर किए थे। यह ईस्ट पाकिस्तान और पश्चिम बंगाल के बीच लोगों के पलायन को लेकर था। दोनों सरकारों ने तब अपनी-अपनी तरफ के अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की रक्षा की बात कही थी। जिस दिन खान को दिल्ली आना था उसी दिन मुखर्जी के साथ एमसी नियोजी ने इस्तीफा दिया था।
नेहरू और लियाकत अली खान
दोनों की दलील थी कि माइनॉरिटी राइट्स को लेकर पाकिस्तान के भरोसे को नहीं माना जा सकता है। वह एक इस्लामी मुल्क बन चुका है। उन्हें लगता था कि नेहरू ने माइग्रेंट के मुद्दे पर कमजोर रुख अख्तियार किया है। वह हिंदू अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को लेकर सैन्य समाधान की हद तक चले गए थे। वह मान रहे थे कि यह ईस्ट पाकिस्तान में हिंदू राष्ट्र बन सकता है। मुखर्जी का मानना था कि पाकिस्तान पर भरोसा करने के बजाय पूरी आबादी की अदला-बदली होनी चाहिए। उन्हें इस बात का डर था कि ईस्ट पाकिस्तान में हिंदू पूरी तरह से सुरक्षा खो चुके है ।