सृजन जहां – है विध्वंस वहीं
भगवान अनेकों मुख वाला और आंखों वाला होता है।
धारण करता अनेकों दिव्य भूषण वस्त्रों वाला होता है।।
अनेकों शस्त्रों से रहे सुसज्जित, शत्रु संहारक होता है।
वेद की यह उक्ति सही है वह ब्रह्मांड का धारक होता है।।
सब ओर उसके मुख होते, सब ओर ही आंखें रखता है।
सब ओर उसके पग होते और सब ओर बाहु रखता है।।
उपनिषद और पुराणों में जहां-जहां भी ऐसा वर्णन आता।
वहां – वहां वेद की वाणी का, उद्घोष नजर हमको आता।।
जैसी नदियां बड़े वेग से , दौड़ी जातीं सागर की ओर।
वैसे ही मानव – दल भागा आता ईश्वर तेरे मुख की ओर।।
जब तक ना ढाया जाए पुराना तब तक निर्माण असंभव है।
जब हो जाता है पूर्ण विनाश , तब उत्पत्ति संभव है।।
जैसे जलते दीपक की ओर , मच्छर की भगते आते।
वैसे ही मरणशील प्राणी तेरे मुख की ओर दौड़े आते ।।
निश्चय है काल सभी का और मरना सबको ही होता है।
फल वैसा ही मिलता सबको , जैसा जग में कोई बोता है।।
एक दिन जन्म हमारा होता , एक दिन तैयारी मरने की।
ना कोई बराबरी कर सकता, तेरे कामों को करने की।।
जहां विकास -वहीं विनाश , सृजन जहां – है विध्वंस वहीं।
कहीं राम-कृष्ण से भद्रपुरुष कहीं रावण और कंस कहीं।।
परमेश्वर का एक रूप देखकर अर्जुन विस्मित खड़ा हुआ।
अबसे पहले अपने जीवन में ना दृश्य कभी ये देख सका।।
अनंत प्रभु की अनंत महिमा, विश्व रूप में प्रगट दिखी।
अर्जुन समझ ना सका तनिक , कैसे महिमा जाए लिखी।।
प्रज्ज्वलित जीवन की ज्योति को कभी बुझना भी होता है।
समझदार तो चुप है रहता , पर अज्ञानी जन रोता है।।
सार तत्त्व जीवन का केवल, आना और फिर चले जाना है।
मुक्ति से भी है पुनरावृति – जीवन का उदय हो जाना है।।
यह गीत मेरी पुस्तक “गीता मेरे गीतों में” से लिया गया है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है । पुस्तक का मूल्य ₹250 है। पुस्तक प्राप्ति के लिए मुक्त प्रकाशन से संपर्क किया जा सकता है। संपर्क सूत्र है – 98 1000 8004
डॉ राकेश कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत