ओ३म्
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परम पिता परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में संसार के सभी मनुष्यों के पूवज चार आदि ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया था और प्रेरणा की थी कि जीवात्मा व जीवन के कल्याण के लिए संसार की प्रथम वैदिक संस्कृति को अपनाओं व धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के मार्ग का अनुसरण करो। उस समय मनुष्य के सामने कोई दूसरा मार्ग था भी नहीं। ईश्वर प्रेरित वेदमार्ग पर चलने के लिए वेद एवं वैदिक साहित्य का ज्ञान आवश्यक है। वेदों के ज्ञान के लिए आर्ष संस्कृत व्याकरण का अध्ययन भी आवश्यक है अन्यथा वेद भाष्य व टीकाओं का सहारा लेना पड़ता है जिससे वेदों व वैदिक साहित्य का पूरा-पूरा अभिप्राय विदित नहीं होता। महाभारत काल के बाद संस्कृत व्याकरण व शिक्षा के अध्ययन-अध्यापन में अनेक कारणों से व्यवधान आया। महर्षि दयानन्द जी ने उस व्यवधान को दूर कर वैदिक शिक्षा का उद्धार किया जिसका परिणाम आज देश भर में चल रहे सहस्राधिक गुरुकुल हैं जहां संस्कृत व्याकरण और वैदिक साहित्य का अध्ययन कराया जाता है। जीवन के आरम्भ के कुछ वर्षों में संस्कृत व्याकरण का अध्ययन पूरा किया जा सकता है जिससे अध्येता में वह योग्यता पं्राप्त हो जाती है कि वह वेद सहित संस्कृत के प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन कर उनमें निहित विद्या, ज्ञान व इनके रहस्यों से परिचित होकर जीवन को ज्ञान मार्ग पर चलाकर जीवन को सफल बना सकता है।
स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी आर्यजगत के एक संघर्षशील, अनेक गुरूकुलों के प्रणेता तथा वैदिक जीवन मूल्यों के धारणकर्ता महात्मा दिवस है। स्वामीजी हमारे ही नहीं वरन् आर्यजगत् के सभी विद्वानों व वैदिक धर्म प्रेमियों के प्रेरणा स्रोत, श्रद्धास्पद व गौरवमय जीवन के धनी महात्मा हैं। आपने अपने जीवन का लक्ष्य वेदविद्या के निरन्तर विकास व उन्नति को बनाकर देश भर में आठ गुरूकुलों की स्थापना व उनका संचालन कर अपना यश व कीर्ति को देश-देशान्तर में स्थापित किया है। आपके स्तुत्य प्रयासों से वेद विद्या का विकास व उन्नति निरन्तर हो रही है और इससे नये-नये विद्वान, प्रचारक, लेखक, शोधार्थी व पुरोहित आदि तैयार होकर वैदिक धर्म की पताका को देश व विदेशों में फहरा रहे हैं। आपके पुरुषार्थ से आपके गुरूकुलों से प्रत्येक वर्ष शताधिक स्नातक देश व समाज को प्राप्त हो रहे हैं जो देश के विद्यलायों व महाविद्यालयों में भी अपनी ज्ञान क्षमता से देशवासियों को शिक्षा देकर सभ्य व श्रेष्ठ नागरिक प्रदान कर रहे हैं।
स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती का संन्यास ग्रहण करने से पूर्व का नाम आचार्य हरिदेव था। आपका जन्म 7 जुलाई, सन् 1947 अर्थात् आषाढ़ शुक्ला द्वितीया संवत् 2004 को हरियाणा के जनपद भिवानी के ग्राम गौरीपुर में माता श्रीमती समाकौर आर्या और पिता श्री टोखराम आर्य जी के परिवार में हुआ था। आप तीन भाईयों में सबसे छोटे हैं। जब आप लगभग 14 वर्ष के थे, तब आर्यजगत के विख्यात आचार्य भगवानदेव जी, जो बाद में संन्यास लेकर स्वामी ओमानन्द सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुए, ने दादरी में आर्यवीर युवकों का शिविर लगाया था। आप उस शिविर में पहुंचें तथा वहां अल्पकाल रहकर वैदिक विचारधारा से प्रभावित हुए। स्वामी ओमानन्द जी ने भी आपको पहचाना और गुरूकुल झज्जर आकर अध्ययन करने की प्रेरणा की। इससे प्रभावित होकर स्वामी प्रणवानन्द जी ने गुरूकुल झज्जर जाकर अध्ययन किया और वहां से व्याकरणाचार्य की दीक्षा ली। आपने कुछ समय तक गुरूकुल कालवां रहकर अध्ययन कराया। महात्मा बलदेव जी भी इसी गुरूकुल में अध्यापन करते थे। यह वही गुरूकुल हैं जहां पंतजलि योगपीठ के स्वामी रामदेव जी विद्यार्थी रहे हैं। इस गुरूकुल में रहते हुए आपने मासिक पत्रिका ‘‘वैदिक विजय” का सम्पादन भी किया। आप हरयाणा में स्वामी इन्द्रवेश के नेतृत्व में कार्यरत आर्यसभा में भी प्रचारक के रूप में रहे। इन्हीं दिनों आपने हरियाणा यमुनानगर में प्रसिद्ध विद्वान स्वामी आत्मानन्द द्वारा स्थापित आर्यजगत् की प्रमुख संस्था उपदेशक महाविद्यालय, शादीपुर में अध्यापन कार्य किया। देश में आपातकाल लगने पर आप हरिद्वार आ गये और गुरूकुल कांगड़ी में वेद से एम.ए. करने के लिए प्रवेश लिया। आप गुरूकुल कांगड़ी में अध्ययन के साथ-साथ भोजन व निवासार्थ अवधूत मण्डल, हरिद्वार की संस्कृत पाठशाला में अध्यापन कराया करते थे। इसका नाम वर्तमान में श्री भगवानदास संस्कृत महाविद्यालय है। गुरूकुल झज्जर के अध्ययनकाल में आपने जीवन भर नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहकर वैदिक धर्म व संस्कृति की सेवा करने का व्रत लिया था जिसे आप सफलतापूर्वक निभा रहे हैं।
जिन दिनों आप हरिद्वार में अध्ययन व अध्यापनरत थे, उन दिनों दिल्ली में स्वामी सच्चिदानन्द योगी गुरूकुल गौतमनगर का संचालन कर रहे थे। गुरूकुल की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। हरिद्वार में अध्ययन पूरा कर आपने योगी जी की प्रेरणा से गुरुकुल गौतमनगर के संचालन का दायित्व सम्भाला और अपने पुरुषार्थ से इसे सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ाया। उसके बाद आप एक के बाद दूसरा, तीसरा, चैथा गुरूकुल स्थापित करते रहे। इस प्रकार से आप वर्तमान में 8 गुरूकुलों सहित दिल्ली स्थित गुरुकुल का संचालन कर रहे हैं। सभी गुरूकुल सन्तोषप्रद रूप से चल रहे हैं। सबके पास अपने भवन, यज्ञशालायें, गोशालायें और खेलने के मैदान हैं। 8 गुरुकुल स्थापित करके आपने आर्य जगत में एक रिकार्ड स्थापित किया है। यह उल्लेखनीय है कि गुरूकुलों में बच्चों से नाम-मात्र का ही शुल्क लिया जाता है। बिना किसी सरकारी सहायता केवल आर्यपरिवारों के दान से चलने वाले इन गुरुकुलों में 20 से 30 प्रतिशत बच्चे निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करते हैं।
सम्प्रति स्वामी प्रणवानन्द जी देश भर में 8 गुरूकुलों का संचालन कर रहें हैं। पिछले वर्ष स्वामी जी ने केरल के सुदूर क्षेत्र में एक गुरूकुल स्थापित किया है जो सफलतापूर्वक चल रहा है। कुछ महीने पूर्व स्वामी जी ने हैदराबाद में भी एक गुरुकुल स्थापित किया है। इनके अतिरिक्त उड़ीसा में दो, उत्तराखण्ड, हरयाणा, दिल्ली तथा उत्तर प्रदेश में भी गुरूकुल चल रहे हैं। देहरादून का गुरूकुल पौंधा आपने सन् 2000 में स्थापित किया था। यह गुरुकुल आचार्य डा. धनंजय एवं श्री चन्द्रभूषण शास्त्री जी सहित डा. यज्ञवीर जी आदि आचार्यों के मार्गदर्शन में प्रगति करते हुए विगत 22 वर्षों में देश के अग्रणीय गुरूकुलों में प्रमुख गुरुकुल बन गया है। जब यह गुरूकुल स्थापित हुआ, तभी से हमारा स्वामी प्रणवानन्द जी से परिचय व सम्पर्क है। इस गुरूकुल से जुड़कर हमने अपना कल्याण किया है और हमें आशा है कि यह गुरूकुल आने वाले समय में देश को वैदिक धर्म व संस्कृति के उच्च कोटि के रक्षक व प्रचारक प्रदान करेगा जो वेदों के ध्वज, ओ३म् पताका को पूरे भूमण्डल पर फहरायेंगे।
स्वामी प्रणवानन्द जी द्वारा संचालित गुरूकलों में गुरूकुल गौतम नगर, दिल्ली सभी 8 गुरूकुलों का केन्द्रीय गुरूकुल है जहां लगभग 200 ब्रह्मचारी वेद विद्या के अंग शिक्षा, व्याकरण, कल्प, निरूक्त, ज्योतिष व छन्द तथा उपांगों सांख्य, योग, वैशेषिक, वेदान्त, न्याय एवं मीमांसा आदि ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं। यह कार्य ही वस्तुतः वैदिक धर्म को सुरक्षित रखने व इसका दिग्दिगन्त प्रचार करने का प्रमुख उपाय व साधन है। यदि गुरुकुल न हों, तो हम वेदों के प्रचार व प्रसार की कल्पना नहीं कर सकते। संस्कृत के अध्ययन व अध्यापन से ही वेदों की रक्षा हो सकती है और वेदों की रक्षा से ही वैदिक धर्म का प्रचार व प्रसार हो सकता है। स्वामी प्रणवाननन्द सरस्वती ने वेदों के प्रचार प्रसार को अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य बनाकर महर्षि दयानन्द के लक्ष्य को पूरा करने का निष्काम, श्लाघनीय व वन्दनीय कार्य किया है। धर्म-अर्थ-काम व मोक्ष की साधना के लिए गुरूकुलों में अध्ययनरत ब्रह्मचारियों की शिक्षा व्यवस्था के लिए तन-मन-धन से सहयोग करना पुण्य कार्य होने के साथ हमें यह प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य प्रतीत होता है। गुरूकुलों को सहयोग करना वैदिक धर्म की रक्षा का एक मुख्य साधन है और यह सहयोग ही वस्तुतः दान की श्रेणी में आता है। इसी से महर्षि दयानन्द का स्वप्न साकार हो सकता है। ईश्वर ने वेदों का ज्ञान इसी लिए दिया था कि भावी मनुष्य जाति वेदों का अध्ययन कर वेदानुकूल कर्मों को कर अपने जीवन को सफल करे। हम यह आवश्यक समझते हैं कि ऋषि दयानन्दजी की वेद प्रचार की प्रेरणा को अपना उद्देश्य बनाकर उसे सफल करने में हम कोई कमी या त्रुटि न रखें और स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी के गुरुकुल संचालन के कार्यों को तन-मन-धन से सहयोग देकर उसके विस्तार में अपनी यथेष्ट आहुति देने का सौभाग्य प्राप्त करें।
हम यह भी कहना चाहते हैं कि हमारे मन्दिर व गंगा-यमुना नदियां वस्तुतः तीर्थ नहीं हैं। तीर्थं वह स्थान होता है जहां जाने से मनुष्य के सभी संशय व शंकायें दूर होकर ईश्वर प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। आर्यसमाज के यह गुरूकुल ही सही मायनों में सभी भारतीयों के सच्चे तीर्थ हैं जहां बड़े-बड़े साधु व महात्मा लोग जनता का मार्गदर्शन करने के लिए उपलब्ध रहते हैं। प्रत्येक वर्ष इन गुरूकुलों के वार्षिकोत्सव होते हैं जहां आर्यजगत् के उच्च कोटि के विद्वान व संन्यासियों का आना होता है। यहां पहुंच कर तीर्थ से होने वाले सभी लाभ प्राप्त कर लोगों को अपने जीवन को धन्य करना चाहिये। हमारी दृढ़ आस्था है कि स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती व इनके द्वारा संचालित गुरूकुल सच्चे तीर्थ एवं पुण्यकारी स्थान हैं। स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी वेदाध्ययन एवं वेदप्रचार में सहायक वेद एवं संस्कृत विद्या के अध्ययन हेतु आवश्यक गुरुकुलों की स्थापना एवं इनके संचालन का कार्य कर रहे हैं। इस कार्य के लिए वह हमें समस्तजनों के प्रेरणाप्रद व्यक्तित्व प्रतीत होने सहित सबके श्रद्धास्पद अनुभव होते हैं। उनके द्वारा किया जा रहा कार्य महान है। हम स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी के सुस्वास्थय एवं दीर्घ जीवन की मंगलकामना करते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य