लेखक-शास्त्रार्थ महारथी डॉ शिवपूजन सिंह कुशवाहा जी
प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ
सहयोग-वैदिक विद्वान् डॉ बृजेश गौतम जी
महात्माबुद्ध का जन्म कपिलवस्तु नगर में सूर्यवंशान्तर्गत शाक्यवंश में हुआ था। सुमंगलविलासिनी और ‘महावंश’ की कथाओं में शाक्यों का राजा इक्ष्वाकु का वंशज बताया गया है। ‘विष्णुपुराण’ से भी इसी मत की पुष्टि होती है। ‘महावस्तु’ में शाक्यों को आदित्यबन्धु कहा गया है। आदित्यबन्धु और सूर्यवंशी एक ही बात है। सम्प्रति शाक्यवंश के प्रतिनिधि ‘शाक्यसेनी मुराव’ हैं।
महात्मा बुद्ध की मृत्यु कैसे हुई, इसपर विद्वानों के भिन्न-भिन्न विचार हैं। कहा जाता है कि उन्हें ‘सूकर मद्दवम्’ खिलाया गया था जो कि सुअर का मांस था। उसे वे पचा न सके। उन्हें अतिसार हो गया और अन्त में उसी रोग से उनका कुशीनगर (वर्तमान कसियाँ जिला देवरिया) में देहावसान हो गया।
‘सूकर मद्दवम्’ क्या पदार्थ हैं? इसके सम्बन्ध में ‘महापरिनिब्वानसूक्त’ के भाष्यकारों ने अपने-अपने विभिन्न मत प्रकट किए हैं। एक लिखते हैं- ‘सुक्कमद्दो एक प्रकार की रसायन का नाम है जो शारीरिक रक्षा के लिए अद्वितीय है। भगवान् बुद्ध को पुष्ट करने के लिए यह रसायन खिलाया गया था।’
एक-दूसरे भाष्यकार लिखते हैं कि- सुक्कमद्दो पंचगोरस से बना हुआ एक प्रकार का भात है, जो बुद्ध को खिलाया गया था।
श्री बुद्धघोषाचार्य की टीका- ‘सुक्करमद्दवं तिनाति तरुणस्य नातिजिण्णस्स एक जेट्ठक सूकरस्स पवत्तमंस्तं। तं किरं मृदुं चेव सिनिद्धं चहोति। तं पटियारापेत्वा साधुकं पचापेत्वाति अत्यो। एक भणन्ति, सूकरमद्दवं ति पन मृदुओदनस्स पञ्चजोरसयूसपाचनविधानस्स नाममेत्तं, यथा गवपानं नाम पाकनामं ति। केचि भणन्ति सूकरमद्दवं नाम रसायनविधि, त्वं पन रसायनस्थे आगच्छति, तं चुन्देन भगवतो परिनिब्वानं न भवेय्या ति रसायनं पटिपत्तं ति।’
अर्थात्- ‘जो न बिलकुल बूढ़ा हो और बिलकुल जवान, जो हो तो कम उम्र का, पर खूब मोटा-ताजा, ऐसे सुअर का पका-पकाया मांस। वह नरम और चिकना होता है। उसे तैयार करके अर्थात् अच्छी तरह से पका करके यह अर्थ समझना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं कि पंचगोरस से बनाये गए नरम भात का यह नाम है। जैसेकि ‘गवपान’ एक विशिष्ट पक्वान को कहते हैं। कुछ लोगों की समझ में सूकरमद्दव नामक एक रसायन था। रसायन के अर्थ में ही उस शब्द का प्रयोग किया जाता है। चुन्द ने बुद्ध भगवान् को यह पदार्थ इसलिए दिया कि उनका परिनिर्वाण न हो।
मूल श्लोक-
‘चुन्दस्त भत्तं भुंजित्वा कम्पाररस्साति ये सुतं।
आबाधं सम्फुसो धीरो पबाब्टे मारणन्तिकं।।
भतस्स च सूकरमद्दवेन, व्याधि पवाह उदपादिसत्थुनो।
विरेचमानो भगवा आबोच गच्छामहं कुसिनारं नगरंति।। -दीर्घनिकाय महावग्गसूत्त, महापरिनिब्वानसूत्त, अध्याय ४
‘सूकरमद्दव’ का वास्तविक तात्पर्य और भाष्यकारों का भ्रम- ‘तथागत’ ने जीवन में कभी भी मांसाहार न किया, वरन् जीवनपर्यन्त उन्होंने मांसाहार के विरुद्ध उपदेश किया।
उनका जन्म शुद्धोदन के घर हुआ। शुद्धोदन को यह उपाधि शुद्ध भोजन का व्यवहार करने से प्राप्त हुई थी।
‘मांसभक्षण और कुकर्म का कलंक देवदत्त ने बुद्ध के ऊपर झूठमूठ ही लगा दिया था। वह बुद्ध का एक शिष्य था और उसने अपने गुरु के प्राण भी आघात करने की चेष्टा की थी, किन्तु इतने पर भी बुद्ध सदा उसे क्षमा कर दिया करते थे और उसे अपने साथ ही रखते भी थे। निसन्देह, जिस ओर से मनुष्य एकदम निश्चिन्त रहता है उसी ओर से उसपर घोर आपत्ति आती है। बुद्ध को भी सांसारिक क्लेश भोगने पड़े थे।’
बौद्ध मत की आदि और प्राचीन शाखा ‘हीनयान’ है जिसके ग्रन्थ पाली भाषा में है। आठवीं शताब्दी में भारत के प्रायः सभी बौद्ध सम्प्रदाय वज्रयान गर्भित ‘महायान’ के अनुयायी हो गए थे। महायान शाखावाले तथागत की मूर्ति की पूजा, बोधिसत्त्वों की प्रतिमा पूजा, भैरवीचक्र, मांस, शराब, प्रभृति पूरे वाममार्ग के उपासक थे। उसे ‘सहजयान’ भी कहने लगे।
इसी ‘महायान’ शाखावाले तथागत पर मांसाहार का दोषारोपण करते हैं, ऐसा सम्भव है।
‘सूकरमद्दव’ का अर्थ ‘सूअर का मांस’ कभी नहीं हो सकता है। यह तो ‘दीर्घनिकाय’ के भाष्यकारों की कल्पनामात्र है।
मूल पाली में ‘सूकरमद्दव’ शब्द आया है जिसका अक्षरार्थ है- ‘सूकर के मांस की भांति मुलायम’। यह गोबरछत्ते (छत्रक) के पौधे का नाम है। इसका अर्थ सूकर का मांस नहीं है जैसाकि लोग भ्रमवश समझते हैं। इस विषय पर विचार करने के लिए ‘सूखा’ शब्द बड़े महत्त्व का है। सूकर का सूखा मांस कोई वस्तु ही नहीं है, पर गोबरछत्ता (छत्रक) जो वर्षा ऋतु में उत्पन्न होता है, वर्ष-भर तक काम में लाने के लिए सुखाकर रख लिया जाता है। भगवान् तथागत की मृत्यु वसन्त ऋतु में हुई थी। इस ऋतु में सूखा ही गोबरछत्ता प्राप्त हो सकता था, अतः यह स्पष्ट है कि उनकी मृत्यु सूखे गोबरछत्ते के विषाक्त प्रभाव से हुई; और उनकी मृत्यु के लक्षण भी सचमुच वे ही थे जो गोबरछत्ते के विष के कारण होनेवाली मृत्यु में होते हैं।
बुद्धघोषाचार्य जी की जो टीका है- ‘इस टीका में सूकरमद्दव शब्द का मुख्य अर्थ सूअर का मांस ही किया गया है। लेकिन टीकाकार बुद्धघोष को इस अर्थ के सम्बन्ध में कुछ शंका थी। बात यह है कि उन दिनों उक्त शब्द के दो अर्थ और भी प्रचलित थे। इसके सिवा ‘केचिपन सूकरमद्दवं ति न सूकरमसं, सूकरे हि मद्दितवंसकलीरो ति वदन्ति अञ्जे सूकरे हि मद्दितपदेसे जात अहिच्छत्रकं ति।’ अर्थात् कुछ लोगों का कहना है कि सूकरमद्दव का अर्थ सूअर का मांस नहीं है। वह तो बांस का ऐसा कोमल अंकुर है, जिसे सुअर ने रौंद डाला हो। औरों की राय में सुअरों की रौंदी हुई जगह में उपजा हुआ कुकुरमुत्ता उक्त वस्तु (उक्त दोनों वस्तुएं) की कहीं-कहीं तरकारी बनाई जाती है।
श्री नेहपालसिंह जी, डिप्टी डायरेक्टर शिक्षा विभाग, उत्तर प्रदेश लिखते हैं- ‘सूकर माद्दव साधारण कुकुरमुत्ता के अर्थ में समझना चाहिए- इसका बड़ा सुन्दर शाक बनता है। पर यह ‘कुत्ते का मूत्र होता है’ बम्मीन्याय के अनुसार कोई कहने लगे तो कितनी बेढंगी बात होती। कुकुरमुत्ता है भी बड़े डर की चीज। कोई-कोई ही खाने में आता है। कुछ उग्र विष होते हैं। कभी-कभी परिवार के परिवार खाकर समाप्त हो जाते हैं…जो अनजान हैं वह पहचान में भूल कर बैठते हैं। चुन्द ने सम्भव है ऐसी ही भूल की हो।’
श्री बच्चीराम आर्य, रामगढ़, नैनीताल- ‘शूकरमादव-शाक नहीं कन्द ही हो सकता है। वराही कन्द को कुमाऊँ में गेठी कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है एक घरेलू मीठा, दूसरा जंगली कड़वा। वाराह या सुअर इसको प्रिय समझते हैं। इस कन्द पर छोटे शूकर के समान बाल होते हैं। गेठी के अतिरिक्त एक और कन्द होता है। यह चेपदार, मधुर और गरिष्ठ होता है। यह अतिसार उत्पादक है। गोरखपुर, देवरिया की तराई में ही महात्मा बुद्ध का निर्वाण हुआ था। तराई की इस उपज का तब भी प्रयोग होता ही होगा।’
श्री जगन्नारायण शर्मा वैद्य, अतरौली, देवरिया- ‘आयुर्वेद शास्त्र में एक कन्द होता है जो बल्य, वृष एवं रसायन होता है जिसे लोक में वराही कन्द कहते हैं। आयुर्वेद में इसके वाराही कन्द, शकरकन्द, शूकरी आदि नाम हैं।’
श्री राकहिल (Rockhill) ने बुद्ध की जीवनी तिब्बती ग्रन्थों के आधार पर लिखी है उसमें सुअर के मांस का उल्लेख नहीं है। स्वादु भोजन का ही वर्णन है। उन्होंने यह टिप्पणी दी है-
“It is curious that text contains no mention of the pork which is said to have caused inflamation, the cause of Buddha’s death.”
अर्थात्- ‘यह विचित्र बात है कि पाठ में सूअर के मांस का वर्णन नहीं है जो बुद्ध की मृत्यु का कारण उसकी ज्वाला के कारण होना कहा जाता है।’
श्री रीज डेविड्स (Rhys Davids) dialogues of Buddha- Sukker Maddava- see the note in my translation of Milinda (1890), VOL. I, P. 244, Dr. Hoey informs me that the peasantry in these districts are still very fond of a loullouons root, a sort of Tuffle found in the Jungle and called Sakarkand; Mr. K.E. Neuman in his translation of the Majhim (1896) has collected several similar instances of tuffle-like roots or edible plants having such names.
अर्थात् ‘रीज डेविड्स ने बुद्ध के वार्तालाप पर जो पुस्तक लिखी है उसमें ‘सूकरमद्दव’ मिलिन्द (१८९०) जिल्द १, पृष्ठ २७४ के अनुवाद में एक टिप्पणी दी है। डॉ० हो ने उनको लिखा कि इन प्रान्तों में एक कन्द होता है जिसे शकरकन्द कहते हैं। श्री के० ई० न्यूमेन ने अपने मज्झिम (१८९६) के अनुवाद में ऐसे कई कन्दों का उल्लेख किया है।’
अन्य विद्वानों के स्पष्ट मत-
आचार्य रामदेवजी, गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार लिखते हैं- ‘मूल पाली में खुम्ब के लिए सूकरमादव शब्द आया है। अनेक विद्वानों ने इस शब्द का अर्थ खुम्ब ही किया है। प्रसिद्ध ऐतिहासिक रॉकहिल भी हमारे इसी मत का समर्थन करते हैं। अपने ‘Life of Buddha’ नामक ग्रन्थ के १३३ पृष्ठ पर उन्होंने लिखा है कि मूल पाली ग्रन्थों में सूअर के मांस का कहीं वर्णन नहीं मिलता। रीज डेविड्स ने भी इसी मत का समर्थन किया है।’
पं० गङ्गाप्रसादजी उपाध्याय, एम० ए०- ‘…महात्मा बुद्ध के सुअर के मांस खाने की संभावना बहुत कम है। प्रथम तो विदेशी और विशेषकर यूरोप के विद्वान् यह नहीं जानते कि भारतवर्ष में सूअर के मांस को कैसा समझते हैं। अन्य देशों में मांस खाने या किसी पशु-पक्षी को मारने में किसी को संकोच नहीं होता, भारत में होता है। फिर सुअर का मांस तो मेहतर और पासियों के अतिरिक्त कोई खाता ही नहीं। चुन्द ऐसी जाति का व्यक्ति न था। दूसरी बात यह कि भारतवर्ष तथा अन्य देशों में भी कई वनस्पतियों का नाम पशुओं के अंगों पर है। इससे केवल धातुओं के अर्थों से कोरे व्याकरण जानने वाले को भ्रान्ति हो जाती है। … भारतवर्ष से जब बौद्धधर्म अन्य देशों में गया तो इसमें बहुत-से परिवर्तन और विकार आ गये। पुरानी परिपाटी के विस्मृत हो जाने पर लोगों ने अटकल से अर्थ लगाए होंगे, और विशेषकर विदेशी भाष्यकारों ने। ‘सूअर के मांस’ का विचार तो बुद्धघोष की कल्पना प्रतीत होती है, जिन्होंने महापरिनिब्वान सूत्र की सुमंगल विलासिनी टीका लिखी है। यह बुद्धजी के निर्वाण के ९३५ वर्ष पीछे सिंहल देश में गए। उन्होंने वहां त्रिपिटक ग्रन्थ के उक्त कथासमूह का पाली भाषा में अनुवाद किया। यह अनुराधपुर के महाविहार में रहते थे। उनके समय ‘सूकरमद्दव’ के विषय में वहां के लोगों के कई मत थे। एक मत था-
‘नाति तरुण नातिवृद्ध पवत्त मंस’, दूसरा ‘पंचगोरस से बना हुआ पायस विशेष’। तीसरा ‘एक प्रकार का रसायन’। किसी-किसी ने इसको एक प्रकार का पका चावल बताया है। क्योंकि इसके लिए ‘मत्त’ (भात) शब्द का प्रयोग हुआ है।…’
गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित स्नातक, विद्वद्वरेण्य पं० धर्मदेवजी विद्यामार्तण्ड, सम्पादक ‘गुरुकुल-पत्रिका’ हरिद्वार लिखते हैं-
“सूकरमद्दवम् (Sukar Maddavam) which was prepared by his devotee Chunda for him and which, unfortunately caused dysentery and ended Mahatma Buddha’s noble life. It is remarkable that neither in the Tibetan nor any of the Chinese accounts of the death of Buddha is there any mention of pork at the last breakfast. Nor is it mentioned in any of the Mahayanist books, nor in the account of Chunda’s feast given in the Sarvata Vinaya…”
अर्थात्- ‘सूकरमद्दव उनके भक्त चुन्द द्वारा उनके लिए तैयार किया गया था और दुर्भाग्यवश अतिसार का कारण बना और महात्मा बुद्ध के श्रेष्ठ जीवन का अन्त किया। यह विचारने योग्य है कि तिब्बतियों और चीनियों में बुद्ध की मृत्यु का कारण उनके अन्तिम कलेवा में सुअर के मांस का कोई वर्णन नहीं है। न महायानियों की किसी भी पुस्तक में वर्णन है। न ‘सरवत विनय’ में चुन्द के दिए भोज का कारण है।’…
डॉ० हो (Dr. Hoey) who was a civilian officer of Gorakhpur, holds that at Pava Buddha ate at the house of Chunda Sukara (not hog’s flesh but Sukara Kanda or hog’s root) which aggravated the illness that terminated his life. An article taken by those keeping a fast, Sukarkand is taken boiled, so this corresponds very nearly to Sukar Maddavam, the soft pulp of the Sukarkand. It has got a sweet taste and has got thread like things within their pulp when boiled, and these cause a griping pain in weak stomachs. It possesses many of the names of the boar, such as grishti, Sukari, Varahi and Varahakanda. This article of diet is spoken of in bad terms by medical authorities, it is always difficult of digestion, and some varieties of it are posionous and often cause death with symptoms of dysentary.”
अर्थात्- ‘गोरखपुर के नागरिक ऑफिसर डॉ० हो विश्वास करते हैं कि पावा में बुद्ध ने चुन्द के गृह में सूकर (सूअर का मांस नहीं वरन् सूकरकन्द अथवा सूकर की जड़) खाया जिसने बीमारी को बढ़ाया और उनके जीवन को समाप्त किया। तेज सूकरकन्द को लेकर उन्होंने उबाला। सूकर कन्द का मुलायम गूदा सूकरमद्दव के बहुत ही अनुरूप होता है। इसका स्वाद मीठा होता है और उबालने पर उसके गूदे में तागे के समान वस्तु होता है, और यह निर्बल पाकस्थली में पेचिश की पीड़ा का कारण होता है। यह सूअर के बहुत नामों को रखता है, यथा ग्रिष्ठी, सूअरी, वाराही और वाराहकन्द। ओषधीय अधिकारियों के द्वारा आहार के सामान में निन्दित शब्दों में कहा जाता है, यह पचने में सदैव कठिन होता है, और इसके कुछ भेद विषाक्त होते हैं और प्रायः पेचिश के लक्षणों के साथ मृत्यु का कारण होता है।’
इन प्रमाणों के आधार पर यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि भगवान् बुद्धदेव (तथागत) पर मांसाहार का मिथ्या दोषारोपण किया गया है।
भगवान् बुद्धदेव ने जीवनपर्यन्त मांसाहार का विरोध किया। यथा-
‘सब्बे तसन्ति दण्डस्स सब्बे भायन्ति मच्चुनो।
अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातवे।।’ -१२९ धम्मपद, दण्डवग्गो १
त्रिपिटकाचार्य भिक्षु धर्मरक्षित, एम० ए०, कृत हिन्दी टीका-
‘दण्ड से सभी डरते हैं, मृत्यु से सभी भय खाते हैं, अपने समान (इन बातों को) जानकर न (किसी को) मारे, न मारने की प्रेरणा करे।
‘सब्बे तसन्ति दण्डस्स सब्बेसं जीवितं पियं।
उत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये।।’ -१३०, धम्मपद, दण्डवागो २
अर्थात्- ‘सभी दण्ड से डरते हैं, सबको जीवन प्रिय है, (इन बातों को) अपने समान जानकर न (किसी को) मारे और न मारने की प्रेरणा करे।’
‘पाणं न हाने न च घातयेय्य, न चानु जंजा हननं परेसं।
सब्वेसु भूतेषु निधाय दण्डं, ये थावरा ये च तसन्ति लोके।।’ -सूत्रनिपात्र, धार्मिक सूत्र १९
भिक्षु धर्मरत्नजी कृत टीका- ‘संसार के स्थावर और जंगम सब प्राणियों के प्रति हिंसा त्याग, न तो प्राणी का वध करे, न करावे और न करने की दूसरों को अनुमति ही दे।’
‘एकजं वा द्विजं वाणि, योऽध पाणं विहिंसति।
यस्य पाणे दया नत्थि, ते जञ्जा वसलो इति।।’ -वसलसूत्र
अर्थात्- ‘जो अण्डा, पक्षी अथवा जानवरों को मारता है और जीवित प्राणियों के प्रति दयालु नहीं है, उसे चाण्डाल के तुल्य जानना चाहिए।’
‘न तेन अरियो होति येन पाणानि हिंसति।
अहिंसा सब्बपाणानं अरियोति पवुच्चति।।’ -२७० धम्मपद, वम्मट्टवग्गो
त्रिपिटकाचार्य भिक्षु धर्मरक्षित एम० ए०- ‘प्राणियों की हिंसा करने से (कोई) आर्य नहीं होता, सभी प्राणियों की हिंसा न करने से आर्य कहा जाता है।’
“लोभार्थ हन्यते प्राणी, मांसार्थ दीयते धनम्।
उभौ तौ पापकर्माणौ, पच्येते रौरवादिषु।।
वक्ष्यन्त्यनागते काले, मांसादा मोहवादिन:।
कल्पिकं निरवद्यं च, मांसबुद्धानुवर्णितम्।।
त्रिकोटिशुद्धं मांसं वै, अकल्पितमयाचितम्।
अचोदितं च नैवास्ति, तस्मान्मांसं विवर्जयेत्।। -लङ्कावतारसूत्र अ० ८, मांसभक्षण परिवर्त
अर्थ- ‘जो व्यक्ति लोभवश प्राणी को मारता है या मांस क्रय करने के लिए धन देता है, ये दोनों ही पापी हैं और रौरव नरक की प्रचण्ड अग्नि में पकते हैं। आनेवाले समय में कुछ अज्ञानी लोग यह कहेंगे कि महात्मा बुद्ध ने भी ऐसा मांस खाने की अनुमति दी है जिसको न देखा जा सके, न सुना जा सके और न कल्पना की जा सके। परन्तु ऐसे मांस की प्राप्ति असम्भव है, अतः मांस निषिद्ध है।’
“योऽतिकम्य मुनेर्वाक्यं, मांसं भक्षति दुर्मति:।
लोकद्वयविनाशार्थ, दीक्षित: शाक्यशासने।।” -लङ्कावतारसूत्र
अर्थ- “शाक्यशासन में दीक्षित होकर भी जो दुर्बुद्धि-मुनि (बुद्ध) के वचन का उल्लंघन करके मांस खाता है, वह अपने इस लोक और परलोक दोनों का नाश करता है।”
“अनुज्ञातवानस्मि स्वयं वा परिभुक्तवानिति नेदं स्थानं विद्यते। नहि आर्यश्रावका: प्राकृतमनुष्याहारमाहरन्ति कुत एवं मांसरुधिराहारमकल्प्यम्। तथागता धर्माहारस्थितयो न सर्वामिषाहार स्थितय:। अकल्प्यं मांसभोजनम्। सर्वसत्तवैकपुत्र संज्ञी कथमिव स्वपुत्रमांसमनुज्ञास्यामि परिभोक्तुम्।’ -लङ्कावतार सूत्र, अ० ८
अर्थ- ‘यह सर्वथा मिथ्या है कि मैंने कभी मांस खाया है या दूसरों को मांस भक्षण की अनुमति दी है। आर्यगृहस्थ तो साधारण मनुष्यों के खाने की सब चीजों को भी नहीं खाते तो फिर मांस और रुधिर खाने की तो कल्पना भी नहीं करनी चाहिए। बुद्धलोग धर्मानुमोदित भोजन करके जीवित रहते हैं, मांसभोजन नहीं करते। मांसभोजन सर्वथा निषिद्ध है। मैं जो सब प्राणियों को अपना पुत्र कहकर पुकारता हूँ, कैसे इस बात कि अनुमति दे सकता हूँ कि लोग मेरे पुत्रों का मांस खाएं? अर्थात् किसी भी प्राणी के मांस खाने की अनुमति देना ऐसा अनर्थ है, मानो मैं अपने ही पुत्र का मांस खाने का आदेश दे रहा हूँ।’
जब तथागत स्वयं कह रहे हैं कि मैंने मांस कभी न खाया और न किसी को खाने की अनुमति देता हूँ तब ऐसी परिस्थिति में उनपर मांसाहार का आक्षेप नितान्त निर्मूल हो जाता है।
श्री शान्तिभिक्षु शास्त्री, प्राध्यापक, कार्ल मार्क्स विश्वविद्यालय, लाइपछिग (जर्मनी) अपने के लेख में लिखते हैं-
“…धार्मिक जन को यह कभी सहन नहीं हो सकता कि वह स्वीकार करे कि किसी भी काल में बुद्ध मांस खा सकते हैं और उसके खाने की किसी को किसी अवस्था में अनुमति दे सकते हैं। पूर्वयुग में भी धर्म के क्षेत्र में वह दृष्टि थी और आज भी यही दृष्टि है। अन्तर है कि पहले यह दृष्टि कुछ नरम थी। त्रिकोटिशुद्धि के अतिरिक्त आपत्ति-काल में रोग आदि की निवृत्ति के हेतु यदि कोई मत्स्य या मांस खा ले तो बुरी बात न समझी जाती थी। रोग तथा रोगिपथ्य में मांस की अनुमति विनयपिटक में देखी जाती है, पर यह सब कथा व्यवहार की है। परमार्थ में मत्स्य-मांस विहित नहीं हो सकता। लंकावतार सूत्र में घोषित किया गया है-
अनुज्ञातवानस्मि स्वयं वा परिभुक्तवानिति नेदं स्यानं विद्यते।
‘(मांस की) मैंने अनुज्ञा दी है अथवा स्वयं मैंने (मांस) खाया है- यह बेठौर-ठिकाने की बात है।’
तथागता धर्माहारस्थितयो न सर्वामिषाहारस्थितय:।
‘तथागत धर्महार पर टिके हुए हैं आमिषाहार पर नहीं।’
इस प्रकार की निर्मल दृष्टि जिनमें है वे धर्म के साधक अपनी आहारचर्या में न तो मांस को स्थान ही दे सकते हैं और न यह स्वीकार ही कर सकते हैं कि मांस कभी भी विहित हो सकता है।”
श्री दामोदर धर्मानन्द कोसम्बी (बौद्ध) का विचार है-
‘चन्द लुहार ने बुद्ध के लिए कुकुरमुत्ते का ऐसा भोजन तैयार किया जिसे खाने से उनको रक्तातिसार की पुरानी बीमारी पुनः उभरी और यही उनकी अन्तिम व्याधि सिद्ध हुई।’
पं० गंगाप्रसाद जी उपाध्याय एम० ए०, साप्ताहिक ‘आर्यमित्र’, ११ सितम्बर सन् १९५२ ई०, पृष्ठ ६ में अपने ‘महात्मा बुद्ध और सूकरमादव’ शीर्षक लेख में लिखते हैं-
“मैंने ‘आर्यमित्र’ में इस सम्बन्ध में जो विद्वानों से सहायता मांगी थी उसके उत्तर में अभी तक दो पत्र आये हैं जिनको ‘मित्रपरिवार’ की सूचना के लिए भेजता हूँ। मैं अभी उत्तरों की प्रतीक्षा कर रहा हूँ और जो उत्तर आये हैं उनके विषय में अनुसन्धान जारी है। इस सम्बन्ध में कई प्रश्न विचारणीय हैं।
पहला उत्तर श्री राजेन्द्र शर्मा जी, अतरौली, अलीगढ़ का है। उन्होंने आचार्य रामदेवजीकृत ‘भारतवर्ष का इतिहास’, भाग ३, पृष्ठ ८६-८७ की ओर संकेत किया है कि यह वस्तु सुअर का मांस नहीं अपितु ‘खुम्बा’ नामी शाक था। इसके प्रमाणस्वरूप उन्होंने Rockhills, Life of Buddha, Davis के ग्रन्थों का हवाला दिया है।
दूसरा उत्तर श्री वैद्य जगन्नारायण शर्मा वैद्य, अतरौली, देवरिया (यू० पी०) का है। ये लिखते हैं कि आयुर्वेदशास्त्र में एक कन्द है जो बल्य, वृष तथा रसायन होता है जिसे लोक में वाराहीकन्द कहते हैं। आयुर्वेद में इसके वाराहीकन्द, सूकर आदि नाम हैं।
परिचय- वाराहीकन्द की लता होती है। पत्र नागर पान की तरह होते हैं, कन्द कुछ लम्बा, कृष्ण एवं वाराह लोम सदृश लोम से आवृत्त होता है। छिलका हटाने पर कन्द का भीतरी रंग पिलाई लिए सफेद होता है, देखो यादवजीकृत ‘द्रव्यगुणविज्ञानम्’ तथा कविराज उमेशचन्द्र गुप्तकृत ‘वैद्यक शब्दप्रकाश’ आदि।
गुणकर्म- वाराहकन्द रसविभाग पाक…कटु, बल्य, रसायन है। कफ, प्रमेह, कुष्ठ आदि नाश करता है (सुश्रुत सू० अ० ४६)
क्या इसका प्रयोग भोजन के रूप में होता था?
वैद्य जी के सुझाव से एक सम्भावना और भी प्रतीत होती है। क्या जिसको हम सकरकन्दी कहते हैं वह सूकरकन्दी का ही बिगड़ा रूप तो नहीं है? यह मीठी भी होती है, खाते हैं और यह पेट में दर्द भी कर सकती है, परन्तु यह सकरकन्दी, वैद्यजी के बताए हुए रसायन से तो भिन्न है। मैं अन्य सुझावों की प्रतीक्षा करूंगा और जब तक किसी धारणा के लिए पुष्कल प्रमाण न हो, अपना आन्दोलन जारी रखूंगा।”
इसी प्रकार पं० श्री उषर्बुघजी वैदिक रिसर्च स्कालर, नैरोबी, पूर्वी अफ्रीका साप्ताहिक पत्र ‘आर्यमित्र’ २७ नवम्बर सन् १९५२ ई०, पृष्ठ १० पर अपने “क्या महात्मा बुद्ध मांसाहारी थे?” शीर्षक लेख में लिखते हैं- “कुछ दिन पूर्व श्री पं० गंगाप्रसाद जी उपाध्याय की प्रेरणा से ‘आर्यमित्र’ में महात्मा बुद्ध की मांसाहार से मृत्यु के विषय पर कुछ लेख प्रकाशित हुए थे; मैं इस विषय में अपने कुछ विचार प्रस्तुत करना चाहता हूँ।
‘महापरिब्वानसुत’ आदि बौद्ध ग्रन्थों में महात्मा बुद्ध की मृत्यु के विषय में यह कथा है कि पावा में किसी भक्त के निमंत्रण पर उन्होंने ‘सूकरमद्दव’ खा लिया था; जिससे संग्रहणी हो जाने के कारण कुसीनारा में आकर उनकी मृत्यु हो गई।
इसी बात को आधार बनाकर, तिब्बत, वर्मा, लंका आदि में बौद्ध लोग मांस खाते हैं। उनके मत में पालीभाषा का ‘सुकरमद्दव’ शब्द संस्कृत के ‘शूकरमार्दव’ का अपभ्रंश है।
बौद्ध ग्रन्थों में ‘शूकरमार्दव’ का वर्णन किया गया है। यह शुष्क ‘शूकरमार्दव’ क्या है?
शुष्क का अर्थ है सूखा, यह तो स्पष्ट है; शूकर का अर्थ सूअर भी है, किन्तु मार्दव शब्द का अर्थ मांस नहीं है। किसी आधुनिक टीकाकार ने इस शब्द का अशुद्ध अर्थ करके भ्रम उत्पन्न कर दिया है। वास्तव में शूकरमार्दव का अर्थ है- ‘सूअर के मांस के समान मुलायम’।
सूअर का सूखा मांस एक सर्वथा अपरिचित पदार्थ है; क्योंकि सूअर के मांस में चर्बी बहुत होती है, इसलिए वह बिना सड़े सूख नहीं सकता।
महात्मा बुद्ध शुद्धोदन के पुत्र थे; जिनका शुद्धोदन (शुद्ध ओदन) नाम ही भोजन की पवित्रता के कारण पड़ा था। स्वयं बुद्ध ने सारे संसार को अहिंसा का उपदेश दिया था और वे जीवहिंसा के विरोधी थे। साथ ही सूअर के मांस को सुखाकर रखने का कोई अर्थ न था; सूअर कोई ऐसा फल नहीं है; जो ऋतु विशेष में उत्पन्न होता है; अतः उसके मांस को सुखाकर रखा जाए। आश्चर्य की बात एक और भी है कि मुसलमानों ने आज तक कभी भी सूअर के मांस की चर्चा उठाकर भगवान् बुद्ध की निन्दा नहीं की।
यहां ‘दीर्घनिकाय’ का कूटदन्तसुत्त दर्शनीय है; ब्राह्मण कूटदन्त ने यज्ञ में आहुति देने के लिए बहुत से पशु एकत्र किए थे; भगवान् बुद्ध ने उसके समक्ष सम्राट् महाविजित के यज्ञ का वर्णन करते हुए कहा- “हे विप्र! उस यज्ञ में गोवध नहीं हुआ; छाग वध नहीं हुआ, शूकरवध तथा अन्य प्राणियों का वध नहीं हुआ। वह यज्ञ घी, तेल, मक्खन, दही, गुड़, शहद के द्वारा ही सम्पन्न हुआ।” यह सुनकर कूटदन्त ने बन्धन में डाले हुए सब पशुओं को छोड़ दिया।
इस प्रकार अन्य पशुओं के साथ शूकर की भी हिंसा का विरोध करने वाले बुद्ध ने सुअर का मांस खाया होगा; यह अकल्पनीय है। वस्तुतः प्रारम्भ में देवदत्त ने ही उनपर मांसभक्षण का कलंक लगाया था; जोकि उनका तीव्र विरोधी था, और उसने कई बार महात्मा बुद्ध की हत्या करने के प्रयत्न किए; और बुद्ध उसे क्षमा करते रहे।
तब यह शूकरमार्दव क्या है? शूकर या वाराह नाम आयुर्वेद में वराहीकन्द का आता है तथा वराहतृण मोथे को कहते हैं। यह सामान्यतः खाने के काम में नहीं आती। वास्तव में शूकरमार्दव…छत्रक (गोबरछत्ते) का नाम है। यह वर्षा ऋतु में उत्पन्न होता है। पावा और कुशीनारा के निर्धन लोग अब भी बरसात के दिनों में इसे खाते हैं परन्तु खाने के लिए इसे सुखाकर रखा जाता है। वैद्यलोग इसे भोजन के लिए हानिकारक बताते हैं। इसे पचाना अत्यन्त कठिन है।
भावप्रकाश-शाकवर्ग में…यह पौष्टिक होता है किन्तु इसके भेद विषाक्त होते हैं। इसके भोजन भी जब अधिक दिनों तक रक्खे जाएं तो विषाक्त हो जाते हैं; इसके लिए अच्छे और अभ्यस्त…की आवश्यकता है। इसके…को खाने से संग्रहणी हो जाती है।
बुद्ध की मृत्यु वसन्त ऋतु…से हुई थी, अतः यदि उन्होंने…पूर्व छत्रक खाया होगा तो शुष्क खाया होगा; क्योंकि ताजा…वर्षा ऋतु में ही प्राप्त होता है। …की संभावना छत्रक से ही होगी।
आयुर्वेद से स्पष्ट है; वैद्यक…में शूकरमार्दव का अर्थ…फिर एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि यदि मान भी लिया जाए कि बुद्ध की मृत्यु शूकर मांसाहार से हुई तो मानना होगा कि बुद्ध मांसाहार के अभ्यासी नहीं थे। उन्हें मांस दिया गया; उन्हें मांस की पहचान नहीं थी। बौद्धभिक्षु संघ का यह नियम था; जो वस्तु उन्हें भिक्षा में प्राप्त हो…विषय में कुछ पूछा न जाए। बुद्ध ने पूछे बिना उस वस्तु को खाया। मांस के अभ्यासी न होने के कारण उन्हें मांसाहार से संग्रहणी हुई जिससे उनकी मृत्यु हो गई; ऐसी स्थिति में उस आकस्मिक घटना को ही अपना आदर्श मानकर वर्मा आदि के लोगों का मांस खाना बौद्धधर्म के अनुकूल नहीं माना जा सकता; वस्तुतः मार्दव का अर्थ भी किसी कोष में मांस नहीं है। ‘शूकरमार्दव’ का अर्थ ‘गोबरछत्ता’ है और उसे ही खाने से बुद्ध की मृत्यु हुई थी।”