वैदिक सम्पत्ति
गतांक से आगे …
जिस समय गोत्र और शाखाप्रचार की धूम हो रही थी , उस समय एक एक वेद की अनेकों शाखाएँ हो गई थीं । मूल मन्त्रों की ज्यों की त्यों रक्षा करते हुए केवल मन्त्रों के उलट फेर से जितनी शाखाएँ हो सकती थीं , उतनी हुई । हम उन शाखाओं को आर्यशाखा कहते हैं । परन्तु रावरणसंप्रदाय के कारण जितनी शाखाएँ बनीं , उनमें आर्य शाखाओं की अपेक्षा दो बातें अधिक हुई । एक बात तो यह हुई कि मन्त्रों में पाठभेद किया गया और उनके साथ प्रासुरी साहित्य , ब्राह्मणभाग और मनःकल्पित बाह्य संस्कृत का मिश्रण करके शाखाएँ बनाई गई और दूसरी बात यह हुई कि मन्त्रों का बहुत सा भाग निकाल डाला गया और मन्त्रों का रूप विकृत करके छोटे छोटे वेदांशों का नाम भी शाखा रक्खा गया । इन दोनों प्रकारों से बनी हुई शाखाओं को हम अनार्य शाखाएँ कहते हैं । श्रायं शाखाओं का उत्तम नमूना शाकल और बाष्कल आदि शाखाएँ हैं और अनार्य शाखाओं का नमूना तैत्तिरीय और काठक आदि हैं । आर्य शाखाओं में उलट फेर के अतिरिक्त न्यूनाधिक्यता नहीं है , पर अनार्यशाखाओं में दोनों बातें विद्यमान हैं । ऋग्वेद की मूल आर्यशाखा के अतिरिक्त अब तक किसी अनार्यशाखा का पता नहीं मिला । कहते हैं कि ऋग्वेद की इक्कीस शाखाएँ थीं , परन्तु इस समय ऋग्वेद की शाकल और बाष्कल दो ही शाखाएँ एक में मिली हुई मिलती हैं । ऋक् प्रातिशाख्य में लिखा है कि ऋचां समूह ॠग्व वस्तमभ्यस्य प्रयत्नतः । पठितः शाफलेनादौ चतुभिस्तदनन्तरम् ।। अर्थात् ऋग्वेद की समस्त ऋचाओं का स्वाध्याय करके बड़े यत्न से उनको आदि में पहिले पहिल शाकल ऋषि ने शाखा का रूप दिया और शाकल के बाद अन्य चार शाखाकारों ने अन्य अन्य शाखाओं का प्रवचन किया । इस प्रमाण से पाया जाता है कि सबसे प्रथम शाकल ऋषि ने ही शाकल शाखा का प्रवचन किया है । शाकल ऋषि अत्यंत प्राचीन हैं और उनकी प्रामाणिकता सर्वमान्य है । क्योंकि शाकलसंहिता के विषय में ऐतरेय ब्राह्मण में लिखा है कि यदस्य पूर्वमपरं यदस्य पद्वस्य परं तद्वस्य पूर्वम् । अहेरिव सर्पणं शाकलस्य न विजानन्ति यतरत् परस्तात् || ( ऐतरेय ब्रा ० १४१५ ) अर्थात् शाकलसंहिता का जैसा श्रादि है वैसा ही ग्रन्त है और जैसा ग्रन्त है वैसा ही आदि है । जिस तरह सर्प की चाल आदि से अन्त तक एक समान होती है , इसी तरह शाकलसंहिता का भी क्रम एक ही समान है , उसकी गति में उपर्युक्त श्लोक ऐतरेय के गाथाभाग का ही है और ब्राह्मणों को गाथा भाग ब्राह्मणों के पूर्व साहित्य का निर्विवाद [ भाग ] है , इसलिए इसकी प्राचीनता आदिम काल तक पहुँचती है । इस आदिमकालीन प्रमाण में शाकलशाखा की पूर्णता और एकरसता का स्पष्ट वर्णन है , इसलिए शाकलसंहिता ही आदिम संहिता है , इसमें संदेह नहीं । अनुवाकानुक्रमणी में लिखा है कि ऋग्वेदे शंशिरीयायां संहितायां यथाक्रमम् । प्रमाणमनुवाकानां सूक्त : शृणुत शकिला : ।। अर्थात् मण्डल , अनुवाक और सूक्तों में शाकल ने अपनी शाखा का प्रवचन किया । मालूम हुआ कि जिस शाखा में मण्डल , अनुवाक और सूक्त हों , वह शाकलसंहिता है । वर्तमान शाकलसंहिता में ये लक्षण पाये जाते हैं , अतः शाकलसंहिता ही आादि है । क्योंकि लिखा हुआ है कि ‘ पठितः शाकलेनादौ ‘ अर्थात् उसका सबसे पहिले शाकल ने ही प्रवचन किया । इससे ज्ञात हुआ कि बाकी शाखाएँ शाकल के बाद ही बनीं । विकृतवल्ली की टीका में लिखा है कि शिशिरो बाष्कल : शाह्वो वातश्र्वं वाश्वलायनः । पञ्चैते शाकलाः शिष्याः शाखामेदप्रवर्तकाः || – अर्थात् शाकल ऋषि की शिष्यपरम्परा में पाँच ही आचार्य – शिशिर , बाष्कल , शङ्ख , वात और आश्वलायन शाखाभेद के प्रचारक हुए हैं । इन पाँचों में बाष्कल बहुत प्राचीन हैं । इसी ने ऋग्वेद को अष्टक , अध्याय और वर्गों में सङ्कलित किया है । इस तरह से ये दोनों शाकल और बाष्कल शाखाएँ अत्यन्त प्राचीन अर्थात् आदिमकालीन हैं । कोई कोई महानुभाव शाकल को शाकल्य भी मानते हैं और कहते हैं कि शाकल शाखा का पदपाठ करनेवाला शाकल्य ही है और शाकल्य के कारण ही उसका शाकल शाखा नाम पड़ा है , परन्तु हमको इस विवाद से मतलब नहीं है । शाकलसंहिता चाहे शाकल के नाम से प्रसिद्ध हुई हो चाहे शाकल्य के , देखना तो यह है कि जब ऋक् प्रातिशाख्य में स्पष्ट रीति से कह दिया गया है कि ‘ पठित : शाकलेनादौ ‘ अर्थात् सबसे पहिले आदि में शाकल ने ही इसका प्रवचन किया तब इस बात के लिए स्थान ही नहीं रह जाता कि इसके पहिले भी कोई और शाखा थी । शाकल्य अथवा शाकल ने ही सबसे पहिले प्राचीन प्रकृति और पदपाठयुक्त संहिता को दश मण्डलों और एक सहस्त्र सूक्तों में विभक्त किया है । इसीलिए यह संहिता दाशतयी अर्थात् दशवाली कहलाती है । इस शाखा के पश्चात् थोड़े ही दिनोंमें इनके प्रधान शिष्य बाष्कल ने उसी शाखा को अष्टक , वर्ग और अध्यायों में भी विभाजित कर दिया । पर इस विभाजन के कारण मन्त्रों के केवल संख्या प्रङ्क ही फिरे और किसी प्रकार का फेरफार नहीं हुआ । इसीलिए वैदिकों ने दोनों को एक ही मानकर एक मिला दिया । अब तक दोनों शाखाएँ एक ही में मिली हुई मिलती हैं और केवल इतिहासस्मरणार्थ दोनों प्रकार के पते वर्तमान ऋग्वेद के पृष्ठों में लिखे रहते हैं । यह क्रम आदि काल ही से चला आ रहा है । इस प्रकार से यह आदि प्रवचनकर्ता की स्थिर की हुई ऋग्वेदशाखा प्राप्त है और इसमें अब तक आरम्भिक संहिता के प्रकृत मन्त्र और पदपाठ दोनों एक ही में छपते हैं । वर्तमान ऋग्वेदसंहिता के सायणाचार्य और स्वामी दयानन्द के भाष्यों में मन्त्र और पदपाठ तथा मण्डल , सूक्त और अष्टक , वर्ग आदि चारों प्रारम्भिक और प्राथमिक चिह्न आज तक लिखे हुए मिलते हैं , इसलिए आदिम अपौरुषेय ऋग्वेदसंहिता पूर्ण रूप से प्राप्त है इसमें जरा भी संदेह नहीं ।
क्रमश: