बिखरे मोती

प्रेम और मोह में अंतर

प्रेम में मनुष्य तेरा ही तेरा कहता है अर्थात् त्याग और बलिदान की भावना प्रबल होती है जबकि मोह में मनुष्य मेरा ही मेरा कहता है अर्थात् स्वार्थ और संकीर्णता की भावना होती है इसलिए सर्वदा प्राणी मात्र से प्रेम करो पर मोह- पाश में मत फँसो I

वेद- वाणी तो पुनीत है,
ईश्वरीय सौगात ।
ऊर्जा के कण मंत्र है,
जो करे आत्मसात॥1934 ॥

रवि किरणों को देखकर ,
ज्यों नलिनी मुस्कुराए ।
ऐसे ही सच्चे मीत को,
देख मीत हर्षाय ॥ 1935 ॥

सूर्य ऊर्जा का केंद्र है ,
दे ऊष्मा प्रकाश ।
फूलों को मुस्कान दे,
सृष्टि करें विकास ॥1936॥

हिमालय तेरी गोद में,
दृश्य बड़े रमणीक ।
वनसरिता फूलों की घाटी,
तपें संत निर्भीक ॥1937॥

केश काले ना रहें,
सारे हुए सफेद ।
चित्त तेरा काला अभी,
षडरिपु दृष्टि -भेद॥ 1938॥

प्रेरक की हो प्रेरणा,
तब होता सत्कर्म ।
मौके को चुके मति,
स्वर्ग की मुद्रा धर्म॥ 1939॥

अहिंसक दानी ज्ञानी की,
संगती होय महान ।
आकर्षण का केंद्र बन,
गुण -गरिमा की खान ॥1940॥

रवि रश्मियों को,
चांद ही करता है रसवान ।
प्रकृति की सुरम्यता,
मन करती हैरान॥ 1941॥

सूर्य से प्रकाश ले,
करें चंद्रमा दान ।
नम्र मधुर शीतल रहे,
चेहरे पर मुस्कान॥1942॥

भक्ति हुए अनन्य तो,
होता सौम्य स्वभाव ।
चेहरे पर हो दिव्यता,
शरणागति मिल जाय॥ 1943॥

ईश्वर प्रणिधान से ,
दाशुष भक्त कहाय ।
ब्रहमनिष्ठ को संत ही,
इतना ऊंचा जाय॥ 1944॥

जो जितना प्रवृत्ति में,
उतना ही मुक्ति से दूर ।
निवृत्ति के मार्ग पर,
चलता कोई शूर॥1945 ॥

प्रवृत्ति अर्थात् – प्रेय मार्ग ,निवृत्ति अर्थात् – श्रेय मार्ग, ज्यों मोक्ष अथवा आत्मकल्याण का ‘हाईवे’ है ।

प्रेम में श्रद्धा समर्पण,
और होता है त्याग ।
प्रेम – पाश से हरि मिले,
जाग सके तो जाग ॥1946॥

पेट पोषण के लिए,
मत करना तू पाप ।
नरक का गामी बने,
भौगे तीनो ताप॥1947॥

जिनकी संत प्रकृति हो,
भगवद्- भजन सुहाय ।
दुष्ट प्रकृति के कारणै,
हरी – नाम नहीं भाय॥1948॥

देवत्त्व को प्राप्त हो,
तो सब आते पास ।
असुरत्त्व को प्राप्त हो,
तो दूर रखे खास॥1949॥

सूरज तप गर्मी करें,
मेघ चढ़े आकाश ।
झुक करके वर्षा करें,
मिटती भू की प्यास॥19450 ॥

स्वप्रकाश से प्रकाशित ,
कहते वेद स्वराट ।
तुझसा कोई सूक्ष्म नहीं,
नाहि कोई विराट॥1951 ॥

आत्म – प्रेरणा को यदि,
समझ प्रभु- संकेत ।
आत्मा का उद्धार कर,
चेत सके तो चेत॥1952॥

हर शै में दिखता मुझे,
वैशवानर का रूप ।
मूक भाव में कह रहा,
बन मेरे अनुरूप॥1953॥

अध्यात्म की भूख को,
मत पढ़ने दे मन्द ।
ब्रह्म – रस का स्रोत है,
बिरला ले आनन्द॥1954॥

दिव्य सौम्य और रोद्रता,
चित्त के है प्रतिरोध ।
कारण तो संस्कार है,
शोध सके तो शोध॥ 1955॥

वेदों के जो मंत्र हैं,
नहीं पूजा के मंत्र ।
आत्मसात् कर देखिए,
पूज्य बनावें मंत्र॥1956॥

सद्बुद्धि सद्भाव से,
जीवन को ले काट ।
दुनिया एक सराय है,
चार दिनों की हॉट॥1957॥

मूरख के संदर्भ में –
मूरख मन की शांति,
खींच ले कटुबोल ।
मुरख से रख फासला,
मत अपने को घोल॥1958 ॥
क्रमश:

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