*राष्ट्र-चिंतन*
*ये मुसलमान दलितों के अपराधी हैं, इसलिए सरकार खामोश है*
*आचार्य श्री विष्णुगुप्त*
==================
मारूमात की लोमहर्षक और घृणात्मक घटना की गूंज पूरे देश में क्यों नहीं हुई, राज्य सरकार और केन्द्र सरकार मारूमात की घटना पर विशेष संज्ञान क्यों नहीं ली, मानवाधिकार आयोग, अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति आयोग संज्ञान क्यों नहीं लिया, राष्टीय और प्रदेश महिला आयोग संज्ञान क्यों नहीं लिया, दलित की राजनीति करने वाले लोग मारूमात की घटना पर आक्रोशित क्यों नहीं हुए, दलित नेता मारूमात पहुंच कर इस लोकहर्षक और घृणात्मक घटना की आलोचना क्यों नहीं की, बात-बात पर स्वयं संज्ञान लेना वाले सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट भी संज्ञान क्यों नहीं लिये? मारूमात की लोमहर्षक और घृणात्मक घटना के पीड़ितों को न्याय से क्यों वंचित किया जा रहा है? क्या संगठित और मजहबी मानसिकता से ग्रसित और प्रेरित मुस्लिम अपराधियों को सजा मिलेगी?
राजनीति और नियामकों तथा संगठनों से उम्मीद नहीं भी हो सकती है पर मीडिया से उम्मीद तो होती ही है कि वह ऐसी घटना पर विशेष रिपोर्ट सामने लायें और सरकार, नियामकों पर ऐसी घटनाओं के दोषियों पर कार्रवाई करने के लिए बाध्य करे, प्रेरित करे। पर यह काम मीडिया ने नहीं किया। मीडिया ने प्रमुखता के साथ मारूमात की घटना को नहीं उठाया, मारूमात की घटना कितना अमानवीय है, कितना भयावह है, कितना लोमहर्षक है, कितना घृणित है, कितना संगठित अपराध का है, कितना मजहबी मानसिकता से प्रेरित है, यह जानकर कठोर से कठोर व्यक्ति के भी रोंगटे खड़े हो जायेंगे। ऐसी घटनाओं पर मीडिया की सक्रियता तो विशेष होनी चाहिए थी। मीडिया ने इस खबर को एक तरह से दबा ही दिया। अगर मीडिया ने प्रमुखता के साथ खबर प्रेषित की होती तो मारूमात की घटना की आवाज सत्ता और नियामकों तक पहुंचती। अगर सत्ता और नियामकों तक बात पहुुंचती तो फिर मजहबी तौर पर पागल मुस्लिम अपराधियों पर कठोर कार्रवाई होती और खास कर संवैधानिक नियामकों को स्वयं संज्ञान लेने के लिए प्रेरित करती।
अब प्रश्न यह है कि मारूमात की घटना क्या है जिस पर मीडिया भी खामोश, राज्य सरकार और केन्द्र सरकार भी खामोश, हाईकोट्र खामोश, सुप्रीम कोर्ट खामोश, दलित संगठन और दलित राजनीति भी खामोश। मारूमात एक गांव है जो झारखंड राज्य के पलामू जिला के पांडू थाना में आता है। मारूमात गांव में अत्यंत गरीब और अस्तित्व विहीन होने के कगार पर पहुंच चुके मुशहर जाति के लोग रहते थे। मुशहर जाति की महादलित में गिनती होती है। मुशहर जाति अभी भी अशिक्षित और उपेक्षित है। उनके लिए सरकार की सभी योजनाएं बेअर्थ साबित हुई हैं, उन्हें विकास का अवसर नही मिला। मारूमात गांव में मुशहर जाति के पचास से ज्यादा घर थे। ये करीब 30 साल से भी ज्यादा दिन से वहां रह रहे थे। जब ये उस स्थान पर बसे थे वह जमीन सरकारी थी और बंजर होने के साथ ही साथ कंटीली भी थी, यानी की कंटीली झाड़ियों से भरी पड़ी थी। मुशहर जाति के लोगांें ने जमीन से कंटीली झाड़ियां हटा कर साफ-सूथरा कर वहां बस गये। सरकारी सर्वे में भी दर्ज है कि उस भूमि पर मुशहर जाति के लोग रहते हैं और उनके घर है। मुशहर जाति सांस्कृतिक तौर पर पक्के या बड़े घरों में रहने के आदि नहीं हैं, वे झोपड़ियों में रहते है, उनके घर छोटे होते हैं, खफरैल के होते हैं। मुशहर जाति की संस्कृति और उनका कर्म एकदम ही अलग है। इसलिए वे सामाजिक तौर पर थोड़ा अलग-थलग ही रहना पसंद करते हैं।
मारूमात गांव में मुसलमानों की बहुलता है। मुसलमानों ने मुशहरों की जमीन पर गिद्ध दृष्टि लगाकर रखी थी। मुसलमानों का कहना था कि मुशहर जाति चूंकि गंदे होते हैं, इसलिए मुस्लिम बहुल क्षेत्र में उनका रहना इस्लाम का तौहीन है और हमारी मजहबी आस्थाएं आहत होती है। मुसलमानांें ने मुशहर जाति को उनके जमीन और घर से बेदखल करने की साजिशे भी खूब रची थी, उन्हें धमकाया गया, उनकी हत्या करने का डर दिखाया गया। लेकिन मुशहर जाति के लोग अपनी जमीन और घर छोड़ कर जाने से इनकार कर दिये थे।
फिर मुसलमानों ने मजहब का हथकडा अपनाया। मुसलमानों ने प्रत्यारोपित करना शुरू कर दिया कि जिस जमीन पर मुशहर रह रहें हैं वह जमीन मदरसे और अन्य मस्जिद की है। उस जमीन पर मदरसे बनने थे और मस्जिद बननी थी। कुछ समय के लिए उन्हे झौपड़ियां लगाने दी गयी थी। जबकि यह बात सरासर गलत थी। मुशहर जाति के लोग तीस साल से उस जमीन पर रह रहे थे। मुसलमानों ने राजनीतिक दलों को भी प्रभावित करने का काम किया।
मुसलमानों की एक हथियार बंद भीड़ आती है और मुशहर जाति के टोले का स्वाहा कर देती है, पूरे मुशहर टोले को अस्तित्व विहीन कर देती है, उजाड़ देती है, झौपड़ियों के मलवे को थोड़े समय में ही ठिकाने लगा दिया गया।मलवे को फौरन इसलिए ठिकाना लगाया गया ताकि यह साबित किया जाये कि यहां पर कोई आवास नहीं था और ये सब खानाबदोश थे जो थोड़े समय के लिए यहां पर आश्रय लिये हुए थे।
सबसे बड़ी बात यह है कि विरोध को मुसलमानों ने हिंसक तरीके से कुचला, जमकर पिटाई की गयी। महिलाओं को बाल पकड़-पकड़ झौपडियों से बाहर खीचा गया। बच्चो की भी पिटाई की गयी। मुशहर जाति के लोग हथियार विहीन थे। उनकी मदद के लिए कोई नहीं था, मुस्लिमों की भीड़ बर्बर थी, हथियारों से लैश थी और जान लेने पर तूली हुई थी। आसपास की आबादी जरूर देखने आयी थी पर मुसलमानों की वहशी भीड़ के सामने बोलने तक हिम्मत नहीं हुई। मात्र चार किलोमीटर की दूरी पर थाना है। पुलिस आयी पर मुसलमानों के पक्ष में खडी हो गयी। पुलिस की मौजूदगी में जबरदस्ती सहमति पत्र हस्ताक्षर कराया जाता है। मुशहर लोगों को गाड़ियों में भर कर जंगलों में ले जाकर छोड़ दिया गया और फिर जंगल से वापस आने पर जान मारने की धमकी पिलायी गयी। बरसात के समय में जंगलों में ये खूल आकाश में कैसे रहेंगे।
बर्बर और हिंसक मुसलमानों के पक्ष में सेक्युलर लोग खडे हो गये। इनका कहना था कि भूमि उनकी नहीं थी। पर एक प्रश्न का जवाब ये नहीं देते हैं कि मुसलमानों को कानून हाथ में लेने का अधिकार है क्या? क्या मुसलमान पुलिस हैं, क्या मुसलमान सरकार हैं, मुुसलमान कोर्ट है? जमीन किसकी है, यह तय करने का काम सरकार का है, मुशहर जाति वहां पर तीस सालों से रह रही थी कि नहीं, यह तय करने का काम सरकार का है, विवाद होने पर फैसला देने का काम कोर्ट का है। मुसलमानों को पुलिस, कोर्ट का सहारा लेना चाहिए था। पर मुसलमानों ने मजहब का सहारा लिया, हिंसा का सहारा लिया और हिंसा फैलायी भी।
अगर ऐसी बर्बर और हिंसक घटना में पीड़ित मुसलमान होता तो फिर क्या होता? देश मे आग लग जाती, राजनीति गर्म हो जाती, मुस्लिम संगठन और सेक्युलर लोग बर्बर हो जाते, हिंसक हो जाते, सड़कों पर उतर इस्लाम की तौहीन व उत्पीड़न की बात करते, सरकार डर कर निर्णय लेती, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट खुद संज्ञान लेकर संरक्षक की भूमिका मे होती, अखबारों की सूर्खियां भी बनती, अखबारों के पन्ने इस संबंध में रंगे होते और चैनलों पर बहसें होती। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि यह बात विदेशों तक फैल जाती, मुस्लिम देशों से भारत के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग होती, दुनिया भर के मानवाधिकार संगठनों और यूएनओ की मार भारत पर पड़ती।
दलितों पर मुसलमानों की हिंसा की कई कहानियां देश भर फैली हुई है। एक उदाहरण बिहार के पूर्णियां जिले के मझुआ गांव का है जहां पर महादलितों की बस्ती पर सैकड़ांें की संख्या में मुस्लिम जिहादियों की भीड हमला करती है और महादलितों की पूरी बस्ती को आग लगा कर स्वाहा कर देती है, पचास से अधिक घर जला कर राख कर दिया गया था, एक महादलित को पीट-पीट कर हत्या कर डाली थी। दूसरी घटना उत्तर प्रदेश की है। उत्तर प्रदेश के नूरपुर गांव मंें दलितों के दो-दो बरातों पर मुस्लिमों की जिहादी भीड हमला करती है, दूल्हें सहित पूरी बारात को पीटा जाता है, बारात वापस लौटने के लिए मजबूर किया जाता है, बारात नहीं लौटाने पर पूरी बारात को काट कर फेंकने की धमकी दी जाती है, डर कर दोनों बारातें लौट गयी। तीसरा उदाहरण मे राजस्थान के झाडवाला में कृष्ण नाम के एक बाल्मिकी युवक को मुस्लिमों की जिहादी टोली ने पीट पीट कर मार डाली। चौथा उदाहरण उत्तर प्रदेश के मुजफफरपुर के कैथोड़ा गांव की है जहां पर दलितों की जमीन पर मुसलमानों की भीड़ ने कब्र खोद दी और उसे बलपूर्वक कब्रिस्तान बना दिया। पाचवां उदाहरण देश की राजधानी दिल्ली से जुडा हुआ है ,जहां पर एक दलित युवक का एक मुस्लिम युवती के साथ प्रेम हो जाता है, दोनों अपनी मर्जी से शादी करते हैं। जिहादी मुसलमानों की गोलबंदी हो जाती है, हथियारों से लैस होकर जिहादी मुस्लिम भीड़ बाल्मिकी युवक के टोले पर हमला कर देती है, बाल्मिकियों के पूरे टोले में हिंसा को अंजाम देती हैं, पाचवां उदाहरण उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिलें का है जहां पर दलितों के घरों को मुसलमानों ने आग लगा दी थी। छठा उदाहरण बेंगलुरू का है। बेंगलुरू की मुस्ल्मि हिंसा को कौन भूल सकता है। एक दलित कांग्रेसी विधायक के भतीजे ने सोशल मीडिया पर कुछ बातें लिख देता है फिर मुस्लिम जिहादियों की हिंसा कैसी बरपी थी, यह भी जगजाहिर है। कई सरकारी प्रतिष्ठानों को आग के हवाले कर दिया गया था।
मरूमातू के मुशहर जाति अपने लिए न्याय की गुहार किससे लगाये? झारखंड सरकार सेक्युलर लोगों की है। सेक्युलर पार्टियों की सरकार मुसलमानों के वोट से बनती है। यही कारण है कि पुलिस और प्रशासन न्याय दिलाने के लिए आगे नहीं आ रहा है। केन्द्रीय सरकार, कोर्ट और महिला आयोग, राष्टीय अनूसूचिज जाति और अनूसूचित जन जाति आयोग हस्तक्षेप करे तो फिर मुशहर जाति को न्याय मिल सकता है, उनकी जमीन वापस हो सकती है और मजहबी मानसिकता से ग्रसित मुस्लिम अपराधियो को दंड मिल सकता है।
===============
*संपर्क*
*आचार्य श्री विष्णुगुप्त*
*नई दिल्ली*
मोबाइल 9315206123
===================