भारत वर्ष के इतिहास से संसार भर का अर्थात कभी के आर्यावर्त का संबंध है। भारतवर्ष से ही सभ्यता और संस्कृति का संचार समस्त संसार में हुआ। भारत संस्कारों का देश है। यही कारण है कि इसने संस्कृति पर बल दिया। जबकि संसार के अन्य देशों ने भारत की वैदिक संस्कृति के प्रतिगामी हवा चलाकर सभ्यताओं का विकास किया। इन सभ्यताओं ने लड़ाई झगड़े उत्पात और उन्माद को जन्म दिया। यह सभ्यताएं कालांतर में संप्रदाय अथवा मजहब का प्रतीक बनीं। जबकि संस्कृति अपनी मूल चेतना में धर्म के साथ समन्वित होकर कार्य कर रही थी और आज भी कर रही है। बस, यही कारण है कि भारत संस्कार संस्कृति का देश होकर धर्म के आधार पर सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखता है।
प्राचीन भारत अर्थात आर्यावर्त से निकलकर अनेक लोग संसार में यत्र तत्र सर्वत्र फैल गए। आर्यावर्त से जाने के बाद कुछ देशों ने अपने-अपने पृथक पृथक संवत चलाए हैं। विश्व के इतिहास की यही सामग्री है ।आर्यावर्त (भारतवर्ष )का करोड़ों वर्ष का चुंबकीय इतिहास रहा है। विश्व के प्राचीन संवत और उनके इतिहास से स्पष्ट हो जाता है कि आर्यों का सृष्टि संवत और मनुष्य उत्पत्ति काल कितना प्रामाणिक है। उसी भारतवर्ष के प्राचीन गौरव को लौटाने के लिए हमें वेदों की ओर लौटना होगा। तभी विश्व बंधुत्व विश्व शांति समग्र विकास संभव होगा ।
हमारे प्यारे भारतवर्ष के बारे में कहा गया है कि :-
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवाः।।
महर्षि दयानन्द ने उसी आर्यावर्त के पाठ के अनुसार अर्थ किया है – ‘‘इसी आर्यावर्त्त में उत्पन्न हुए ब्राह्मणों अर्थात् विद्वानों से भूगोल के सब मनुष्य – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, दस्यु, म्लेच्छ आदि सब अपने अपने योग्य विद्या चरित्रों की शिक्षा और वि़द्याभ्यास करें ( ग्रहण करते आए हैं ) ।’’
तभी भारतवर्ष पुनः विश्व गुरु के पद पर पदस्थापित हो पाएगा। तभी विश्व कल्याण संभव है ।भारत के उत्थान में विश्व का उत्थान निहित है, क्योंकि जब भारतवर्ष में पतन हुआ तो वैश्विक स्तर पर सर्वत्र पतन हुआ। वैश्विक स्तर पर शांति स्थापित करना यदि हम चाहते हैं तो भारतवर्ष को पहल करनी होगी। भारतवर्ष को अपना उत्थान करना होगा। मानवता आज कराह रही है। इसको दूर करने में भारत की भूमिका ही महत्वपूर्ण है । समग्र विश्व आज भारतवर्ष की ओर आशान्वित होकर देख रहा है।शांति से ही मानव उत्थान संभव है। शांति के लिए ओ३म की पताका को फहराना होगा। भारतवर्ष को रूढ़िवाद ,अज्ञानता ,सांप्रदायिकता, जातिवाद को समाप्त करना होगा ।
सत्कर्म ,परमार्थ, परोपकार दया, सौहार्द ,सतचिंतन ,जीवन मूल्य ,आदर्शों को अंगीकार करके द्वेष, घृणा, वैमनस्य ,हिंसा, शोषण, अत्याचार, अनाचार, पापाचार के दलदल से निकलना होगा ।तभी मानवता का वास्तविक धयेय प्राप्त कर पाएंगे।
हमारा जीवन कर्तव्यवाद के मार्ग पर चलने वाला हो होना चाहिए। अनुसंधान करने वाला होना चाहिए ।हमें यह भी अनुसंधान करना चाहिए कि मैं कौन हूं ?कहां से आया हूं ?अब मानव जीवन को पाकर मेरा गंतव्य क्या है? मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है? मुझे यह मानव जीवन ईश्वर ने क्यों दिया है? मैं क्यों आया हूं इस संसार में? राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में समझ लो कि :-
विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी
हुई न यों सुमृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये
नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए
यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे
जब यह प्रश्न कि मैं कौन हूं और कहां से आया हूं ?अपने आपसे करना प्रारंभ कर दोगे तो जीवन रहस्य समझ में आता चला जाएगा तथा उतना जीवन प्रखर, प्रवर एवं प्रबल और सफलतम हो जाएगा। जीवन का श्रेय मार्ग प्राप्त हो जाएगा ।यही आत्मावलोकन, आत्मचिंतन का सुफल है। परमपिता परमात्मा से मैं किस प्रकार जुड़ा हूं?
परमात्मा से मेरा संबंध किस प्रकार का होना चाहिए?
मैं संसार की चकाचौंध में खो तो नहीं गया हूं ?मैंने गर्भकाल की अवधि में परमात्मा से जो (कौल-औ -करार ) अनुबंध किया था क्या उसको मैं भूल तो नहीं गया हूं?
उपरोक्त सब बिंदुओं पर विचार आवश्यक है। यदि आज का मानव इन प्रश्नों पर अपना चिंतन करेगा तो उसको आत्मबोध हो जाएगा ।मानव फिर अपने पतनोन्मुख होने पर विचार करेगा अर्थात मानव को अपने पतन की अवस्था का बोध हो जाएगा । जिस दिन ऐसा बोध जागृत होगा, वहीं से वह मानव उर्ध्वरेता, ब्रह्मवेत्ता होना प्रारंभ करेगा।
ऐसा मानव मूलाधार चक्र से अपनी चेतना को (जागृति को) नाभि चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, हृदय चक्र, आज्ञा चक्र से ऊपर ले जाते हुए शून्य एवं ब्रह्मरंध्र तक पहुंचा पाएगा। जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। ऐसी अवस्था में ही मानव को शांति एवं विकास प्राप्त होगा।
इसलिए अपने आत्मनिरीक्षण, आत्म परीक्षण ,आत्मपरिष्कार, आत्म विकास को प्राथमिकता प्रत्येक मानव को देनी चाहिए। जब प्रत्येक मानव का आचरण शुद्ध हो जाएगा तो सारा समाज सुधर जाएगा क्योंकि व्यक्ति समाज की इकाई होती है ।समाज से ही राष्ट्र बनता है ।तभी राष्ट्र की उन्नति संभव है । तभी हमारा पतन रुक पाएगा, तभी हम भारतवर्ष को पुनः उसके विश्व गुरु के पद पर पदस्थापित कर पाने में सफल होंगे।
ऐसी ही कामना करते हुए अपने उद्देश्य को लेकर मुझे ईश्वर से प्रेरणा मिली कि अपने समाज के लिए कुछ अच्छा कर जाऊं अथवा अच्छा लिख जाऊं ।
विषय बहुत ही विस्तृत, विशाल, निषाद एवं गूढ है। मैं अपने राष्ट्र के उत्थान के लिए प्रयास कर रहा हूं ।इसी उद्देश्य से पुस्तक का लेखन आप सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत है , क्योंकि वर्तमान दौर में चहुंदिश पतन है। आज का सभ्य मानव धर्म के नैसर्गिक, स्वाभाविक नियम को सार्वजनीन, सार्वभौमिक नहीं बना पाया।
हमने यह लेख मानव मात्र के कल्याण के पवित्र दृष्टिकोण से एवं उद्देश्य से लिखा है ।श्रेष्ठ (अर्थात आर्य) समाज के निर्माण के उद्देश्य को लेकर लिखा है। हम अपने अंदर आये अनार्यपन को दूर करें ।हम अपने अनाड़ीपन को दूर करें। हम अपनी असभ्यता को दूर करें। हम अपने कुसंस्कारों को छोड़ें। जिससे हम अपने पतन से शिक्षा लेकर अपने प्राचीन गौरव पूर्ण इतिहास को केंद्र बिंदु में रखकर वर्तमान दुर्दशा से मानव मात्र को संवारने का सदकार्य कर सकें। हम वेद के आदेश के अनुसार मानव को मानव बना सकें।
जो भी कुछ मैं कर रहा करवाता जगदीश।
कृपा उसकी देखकर, नित्य नवाऊं शीष।।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट चेयरमैन उगता भारत समाचार पत्र
ग्रेटर नोएडा
चलभाष
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