द्वेष क्रोध का अचार है, पालै मत मन माहिं

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बिखरे मोती

 

द्वेष क्रोध का अचार है,
पालै मत मन माहिं।
जब तक घट में द्वेष है,
भक्ति सफल हो नाहिं॥1916॥

वाणी से आदर करें,
नयन बरसे नेंह ।
ऐसा हृदय होत है,
पाक प्रेम का गेह॥1917॥

बैर गिरावै प्रेम बढ़ावै,
खुलै हरि का द्वार I
मत जीवै तू बैर में ,
बैर नरक का द्वार॥1918॥

घृणा से घृणा बढै,
बैर से बढ़ता बैर ।
ह्रदय में यदि प्रेम है,
खुदा की समझो खैर॥1919॥

कहीं बादल कहीं ओस है,
कहीं सागर कहीं कूप ।
पानी सम ही प्रेम के,
जग में बहुविध रूप॥1920॥

जिनके चित में हो नहीं,
दिव्यता के संस्कार ।
लाख यतन कर लीजिए,
होगा नहीं परिष्कार॥1921॥

जिनके चित में होते हैं,
दिव्यता के संस्कार ।
बाधाओं को पार कर,
करते निज परिष्कार॥1922॥

जो डूबे प्रमाद में,
करते रहे बकवाद ।
नरक का जीवन जिये,
होते नहीं आबाद॥1923 ॥

मितभाषी कर्मठ सदा,
करें दृढ़ संकल्प ।
बने प्रेरणा पुंज वो,
करते कायाकल्प॥1924॥

आर्जव ऋजता खास है,
जो चले भक्ति पंथ ।
जिनका चित इनसे भरा,
वही कहावै संत ॥1925 ॥

नशेड़ी की इज्जत नहीं,
तोड़े सब मर्याद ।
समय सम्पदा सेहत को,
नित करता बर्बाद॥1926 ॥

प्रतिभा- पुँज के सामने,
स्वतः करें निज काज ।
जैसे ही वो रहता नहीं ,
छिन जाते हैं राज॥1927॥

जो मिला संसार में ,
मात्र क्षणिक संयोग ।
नियम अटल है विर्सग का,
एक दिन होय वियोग॥1928॥

पुण्य – प्रताप के कारणै,
जिनमें कोई संस्कार ।
हरी-कृपा समझो इसे,
होगा अब परिष्कार॥1929॥

भक्ति में चलता नहीं,
घट में कपट का भाव ।
ॠजुता की पतवार से,
पार लगेगी नाव॥1930॥

शेर
ऐ खुदा !
बस इतनी सी आरजू है,
इसे मंजूर कर लेना ।
तेरी नजरों से नजर मिला सकूं,
मुझ में रूहानी नूर भर देना॥1931 ॥
समय और सागर-लहर,
कोई न पाया रोक ।
पल-पल हरि का नाम भज,
सुधरेगा पलोक॥1932॥

प्रेम करो प्राणी मात्र से,
पर मत करना मोह ।
श्रद्धा तारक है तेरी,
घातक होता द्रोह॥1933॥
क्रमशः

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